15.6.21

हनुमानबाहुक - संवाद


शब्द का प्रभाव भिन्न होता है, निर्भर करता है कि वक्ता कौन है, निर्भर करता है कि वक्ता की मनःस्थिति क्या है? गुड़ खाने वाले साधु की कहानी तो सुनी ही होगी। एक माँ अपने पुत्र को लेकर एक साधु के पास जाती है, अधिक गुड़ खाने कारण। साधु सुनते हैं और एक माह बाद आने को कहते हैं। एक माह बाद साधु उस बालक को गुड़ छोड़ देने के लिये समझाते हैं। कालान्तर में गुड़ तो छूट जाता है पर माँ के मन में प्रश्न रह जाता है कि यदि समझाना ही था तो साधु ने पहली बार में ही क्यों नहीं समझा दिया? अगली भेंट में संशय शमित होता है, उत्तर सरल था और कठिन भी। साधु ने कहा कि बेटा उस समय मुझे भी गुड़ से अत्यधिक अनुराग था और जब एक माह के प्रयत्न के बाद मन से भी गुड़ छोड़ सका तब ही इस योग्य हो पाया कि किसी और को समझा सकूँ।


योगसूत्र के साधनपाद(२.३६) में पतंजलि उद्घोष करते हैं कि जिसने सत्य पर संयम किया है, जिसने सत्य का अभ्यास और अनुशीलन किया है, जिसमें सत्य की प्रतिष्ठा हो जाती है, उसके शब्द सत्य की सामर्थ्य रखते हैं, उसका कहा हुआ सच हो जाता है। मन्त्रों का भी यही प्रभाव रहता होगा। काव्यविनोद और गूढ़साधना में लिखे गये शब्दों के प्रभाव में अन्तर तो रहता ही होगा। क्या कारण है कि मेरी बिटिया को पिता की बातें सामान्य लगती हैं और वही बातें जब रतन टाटा के अनुभवों के रूप में कहीं उद्धृत होती हैं तो बिटिया को अभिभूत कर जाती हैं। बिटिया को अपने पिता के प्रति कितना भी स्नेह हो पर रतन टाटा की उपलब्धियों के सामने तो वह कुछ भी नहीं।


जब तुलसीदास कुछ लिखते हैं तो उसका प्रभाव व्यापक होता है। शब्द चक्षुओं से भीतर प्रविष्ट होते हैं और सारे तन्त्र को झंकृत कर जाते हैं। यह अद्भुत अभिव्यंजना उनकी सतत साधना के कारण ही आयी होगी। प्रभाव बौद्धिक स्तर पर नहीं, सब कुछ भेदते हुये आत्मा पर होता है। कुछ तो विशेष कारण होगा कि तुलसीदास के शब्द भारतीय जनमानस के हृदय में गहरे बैठे हैं और परिस्थितियाँ आने पर स्वतः व्यक्त होने लगते हैं। कुछ तो कारण रहा होगा कि तुलसीदास जब किसी घटना का वर्णन करते हैं तो लगता है कि सब कुछ सामने ही घट रहा है। लगता है कि तुलसीदास के माध्यम से देव संवाद करना चाहते हैं, लगता है कि हनुमान संवाद करना चाहते हैं।


हनुमानबाहुक के रचनाकाल में और पीड़ा के उन कालखण्डों में तुलसीदास और हनुमान के बीच का संवाद और मुखर हो गया है। संवाद व्यक्तिगत है, सीधा सीधा। तुलसीदास की अन्य रचनाओं में कई स्थानों पर हनुमान उन्हें प्रेरित करते हुये दिखते हैं, दोनों ही एक दिशा में। हनुमानबाहुक में तुलसीदास हनुमान से सीधा संवाद करते हैं, प्रश्न करते हैं, उलाहना देते हैं। कुछ स्थानों पर श्रीरघुबीर को भी पुकारते हैं। कहीं कहते हैं कि आपके अतिरिक्त तो किसी को भजा भी नहीं, आपको ही सब कुछ माना, फिर भी आप ध्यान नहीं दे रहे हो? कई स्थानों पर आत्मग्लानि में चले जाते हैं, कहते हैं कि आपके उपकार को मैंने भुला दिया इसीलिये यह प्रतिफल पा रहा हूँ। कहीं अपनी भक्ति पर विश्वास आता है तो हनुमान से कृपा करने में विलम्ब का कारण पूछने लगते हैं। कहीं निराश हो बैठ जाते हैं कि यहीं भुगतना था तो मान लेंगे कि कुछ कुकर्म किये होंगे। कहीं विनोदवश उलाहना देते हैं कि आप अब बूढ़े हो चले हो या थक गये हो। 


तुलसीदास को अभिव्यक्ति में इतना मुखर कहीं नहीं देखा है। पीड़ाजनित व्यक्तिगत संवाद में यदि कहीं इसके समानान्तर उदाहरण मिलता है तो वह पीड़ा में डूबे बच्चे का अपनी माँ किया गया संवाद होता है। चोट खाकर भी उसे लगता है कि माँ के होते हुये उसे पीड़ा क्यों हो रही है? माँ पर क्रोध करता है, माँ को पीड़ा आने का कारण मानने लगता है, कोई पुरानी घटना बताता है कि आपने ऐसा कहा था, तभी चोट लगी है। जब हम आपके पुत्र हैं तो हमारी पीड़ा के सारे कारण, निवारण, उच्चारण, सब आप ही है। अपार समर्पण, अपार आश्रय, अपार विश्वास का प्रकटीकरण होता है यह प्रकरण। 


इन संदर्भों में हनुमानबाहुक न स्तुति है, न अर्चना है, न प्रार्थना है और न ही आरती। जब भी मैं पाठ करता हूँ, मेरे हृदय के अनुभवहीन स्पंद मुझे यही बताते हैं कि यह एक पुत्र का अपनी माँ से पीड़ा के घोर क्षणों में किया हुआ संवाद है। पुत्र तुलसीदास का माँ समान पालने वाले हनुमान से किया गया संवाद। “पाल्यो हो बाल जो आखर दू, पितु मातु सों मंगल मोद समूलो”, आनन्द-मंगल के मूल दो अक्षरों (राम) से आपने माता-पिता के समान मेरा पालन किया है। अपनी माँ के जन्म देते ही चले जाने और पिता द्वारा उसको अमंगलकारक मानकर त्यागने के बाद राम और राम की भक्ति ने तुलसीदास को पाला। हनुमान तब से उनके साथ माता-पिता के समान बने रहे।


हनुमानबाहुक के माध्यम से तुलसीदास ने भक्ति की परम्परागत श्रेणियों से परे एक नयी श्रेणी स्थापित की है। तुलसीदास अपनी सामाजिक चेतना के कहीं ऊपर चले गये हैं। वह क्षमता कहाँ है मुझमें जो वातजातं द्वारा संरक्षित तुलसीदास को बौद्धिक रूप से समझने का प्रयास भी कर सकूँ। वायु को कौन समेट पाया है? कभी लगता है कि यदि तुलसीदास को ऐसी पीड़ा न होती तो हनुमानबाहुक जैसी कृति नहीं आ पाती। कभी लगता है कि तुलसीदास अपनी व्यक्तिगत नहीं वरन हम सबकी पीड़ा झेल रहे थे। उनका संवाद उनका अपना व्यक्तिगत नहीं वरन हम सबका साझा और सम्मिलित संवाद था।


पीड़ा का उच्चारण गहरा होता है, आर्तनाद आत्मा से होता है। हम जैसे सामान्यजनों को पीड़ा झकझोर जाती है पर वही पीड़ा तुलसीदास से हनुमानबाहुक जैसी दुर्लभ और सबका कल्याण करने वाली कृति लिखवा जाती है। अपने आराध्य के प्रति जो स्नेहिल भाव तुलसीदीस ने सामाजिक मर्यादावश कहीं और व्यक्त नहीं किये गये, वे उस पीड़ा से द्रवित होकर शब्द पा जाते हैं। वे शब्द जो पीड़ा को सम्हाल लेते हैं, वे शब्द जो हाहाकार को रोक लेते हैं, वे शब्द जो सब सह सकने की शक्ति देते हैं।


प्रश्न अधिक हो जाते हैं तो हनुमानबाहुक के शब्दों में उत्तर ढूढ़ने लगता हूँ। हनुमानबाहुक को तनिक और जानेंगे अगले ब्लाग में। 

2 comments:

  1. शब्दों के प्रभाव का सुंदर विश्लेषण !ज्ञानवर्धक चक्षु उन्मीलक लेख !!

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    1. अनुपमाजी, आपका बहुत आभार। आप स्वयं ही शब्दों की सिद्धहस्तता रखती हैं।

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