10.6.21

हनुमानबाहुक - अभिव्यक्ति


यद्यपि हम एक ही अर्थों में प्रयोग करते हैं पर स्तुति, अर्चना, प्रार्थना और आरती में मूलभूत भिन्नता है। कौन ईश्वर को भज रहा है और किस अभिप्राय से भज रहा है, इस पर निर्भर करता है कि उसका विभाग क्या होगा। श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि चार प्रकार के व्यक्ति उन्हें भजते हैं, ज्ञानी, जिज्ञासु, अर्थार्थी और आर्त। किसकी मनःस्थिति क्या है, वैसे तो शब्दों से स्पष्ट है, पर निहित भावों पर एक चर्चा आवश्यक है।


गुण से गुणी को जोड़ना स्तुति है। स्तु धातु का अर्थ होता है, प्रशंसा। स्तवन या प्रशंसा के द्वारा किसी को सम्मान देना स्तुति कहलाती है। औपचारिक परिवेश में, भय या राग से विलग, गुणों का सम्भाषण स्तुति कहलाता है। जब भाव स्वार्थतिक्त होते हैं या मद प्रबल होता है तब गुणी के गुणों को आवश्यकता से अधिक या कम बतलाना क्रमशः चाटुकारिता या दम्भ कहा जाता है। ग्रन्थ इस प्रकार के संवादों से भरे पड़े हैं, अद्भुत स्तुतियों से। ईश्वर को अपने प्रकार से समझ सकने और व्यक्त करने के उपक्रम में स्तुतियाँ भिन्न हो जाती हैं। इसके मूलतः दो सार्थक उद्देश्य होते हैं। पहला है यथार्थ का यथोचित ज्ञान, जो जैसा है, वैसा व्यक्त करने की सहज प्रवृत्ति। दूसरा है, संवाद को पाठकों और श्रोताओं की ओर लक्ष्य कर समाज में अनुकरणीय गुणों को उद्भाषित करना। यदि किसी स्तुति में ईश्वर को भक्तवत्सल कहा जाता है तो पहला संदेश यह है कि आप भक्ति में प्रवृत्त हों और ईश्वर आपका भला करेगा। दूसरा संदेश आपको अपने अधीनस्थों और आश्रितों के प्रति भला करने का भाव जागृत करना है, यह अनुकरणीयता का पक्ष है।


अर्चना स्तुति से अधिक व्यक्तिगत और अभ्यासयुक्त है। आपका अपने आराध्य से सम्बन्ध उन गुणों से प्रभावित होता है जिन्हें आप अपने अन्दर चाहते हैं या जिन्हें देखकर आपका मन मुदित हो जाता है, अस्तित्व प्रसन्न हो जाता है। अपनी प्रवृत्ति के अनुसार अपना आराध्य पाना और उससे नित्य का संवाद स्थापित करना अर्चनाकृत भक्ति का प्रमुख बिन्दु है। अभ्यास अपनी स्थिति में बने रखने के लिये आवश्यक है। नित्य अर्चना, विधान पूर्वक पूजा उस स्नेह, सम्मान और श्रद्धा का प्रतीक है जो आप अपने इष्ट को अर्पित करना चाहते हैं। इष्ट शब्द भी यज् धातु से निकला है, यज् धातु में क्त प्रत्यय लगाने से, यज देवपूजने, देव के पूजन के लिये। स्तुति की भाँति ही इसमें कोई वस्तु या वर की चाह नहीं होती है, बस दैनिक संवाद अभीप्सित गुणों तक ही सीमित रहता है। एक विश्वास रहता है कि आपके आराध्य आपके आश्रय हैं। आश्रयता का पथ कठिन है, अहं तजना होता है, पुत्र का माँ के प्रति आश्रयता जैसा। यह साधनापथ देखने में सरल लग सकता है पर पूर्ण समर्पण अत्यन्त कठिन है। सुख में विस्मरण और दुख में दोषारोपण आश्रयता के विध्न हैं। अर्चना में भी गुण से गुणी को जोड़ा जाता है और साथ में आश्रयता का सम्बन्ध भी प्रस्तुत किया जाता है या स्वीकार किया जाता है।


स्तुति और अर्चना मुख्यतः ज्ञानी और जिज्ञासु के स्तर पर होती है। ज्ञानी और जिज्ञासु के बीच संशय और उसके शमन में लगे समय भर का अन्तर है। दोनों की दिशा एक होती है, कालान्तर में एक जिज्ञासु ज्ञानी बनकर स्थापित होता है।


प्रार्थना किसी अर्थ विशेष की चाह के लिये होती है। शब्द से ही स्पष्ट है कि किसी विशेष अर्थ के लिये होती है। वैशेषिक के अनुसार द्रव्य, गुण और कर्म के समुच्चय को अर्थ कहते हैं। यद्यपि यह वैशेषिक की वैज्ञानिक परिभाषा है पर अर्थ का प्रयोग सदा ही भौतिक निरूपण में किया जाता है। अर्थ का धन के रूप में प्रयोग एक अत्यन्त सीमित दृष्टि है, ठीक वैसे ही जैसे काम का रतिकर्म में प्रयोग। काम इच्छा है और अर्थ भौतिक जगत का निरूपण। पदार्थ पद की भौतिक अभिव्यक्ति है। आम पद है, एक शब्द है और आम पदार्थ है, एक रूप, भौतिक वस्तु। हमें कोई वस्तु मिल जाये, हमें कोई गुण विशेष मिल जाये या हमारा कोई कार्य हो जाये, एक प्रार्थना में कोई न कोई भाव प्रमुख रहता है। प्रार्थना अर्थार्थी करता है। एक प्रार्थना में पहले गुण से गुणी का सम्बन्ध स्थापित होता है, फिर गुणी के उस सामर्थ्य का चित्रण होता है जो अभीप्सित है, फिर गुणी का याचक से सम्बन्ध जोड़ा जाता है और अन्त में उस अर्थ में बारे में निवेदन किया जाता है जो प्रार्थना का उद्देश्य है। कार्य सिद्धि या अर्थ प्राप्ति तक ही प्रार्थना की जाती है।


आर्त आरती करता है। आरती आर्त का ही शब्दान्तर है। आर्त, जो कष्ट में है। गुणों की प्राप्ति और अर्थ की कामना में तो थोड़ी प्रतीक्षा की भी जा सकती है, पर जब कष्ट आ जाते हैं तो जीवन असह्य हो जाता है। जब तक उनका निवारण नहीं हो जाता, जीवन असामान्य ही बना रहता है। उस समय तो अपनी योग्यता सिद्ध करने का भी समय नहीं होता है। जब सहसा कुछ आवश्यकता आती है तो व्यक्ति अपनों के पास ही जाता है। भक्त अपने आराध्य की शरणागति होता है। उस समय अहं का कोई स्थान नहीं रहता। संभवतः पीड़ा से अधिक अहं का नाश करने वाला कुछ भी नहीं है। पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त कुछ और संभावना रहती भी नहीं है तब। आर्त की इस अभिव्यक्ति में क्रम लगभग प्रार्थना जैसा ही रहता है पर अर्थ के स्थान पर कष्टनिवारण को प्राथमिकता मिलती है। पहले गुण और गुणी का सम्बन्ध, विशेषकर उन गुणों का जो कष्टनिवारण या आर्त से सम्बन्ध में सहायक होने वाले हैं। इस समय जहाँ एक ओर आराध्य की करुणा, अहैतुकी कृपा, भक्तवत्सलता आदि गुण उभरते हैं और दूसरी ओर आर्त की दयनीयता प्रदर्शित होती है। पहले से पूजा या अर्चना न करने का कारण, भविष्य में नियमित देवस्थान जाने की प्रतिज्ञा, अच्छे गुण अपनाने के आश्वासन, ये सब भी अपनी अभिव्यक्ति पा जाते हैं। गुणी और याचक का सम्बन्ध यथासंभव मधुर रखा जाता है और भूत में हुयी भूलें पूरी तरह से भ्रम की श्रेणी में आती है। अन्त में कष्ट का विवरण और कृपा प्राप्ति की इच्छा। आरती का यह रूप जनसामान्य में बहुतायत में देखने को मिलता है। 


इन चारों में भिन्नता जानना तो आवश्यक है पर आपसी तुलना उचित नहीं है क्योंकि कुछ भी हीन नहीं है। स्तुति, अर्चना, प्रार्थना और आरती, अपने आराध्य के प्रति एक व्यक्ति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। अपने अपने स्तर पर सब उचित है। देखा जाये तो लगभग सब कुछ ही हमको प्रकृति से प्राप्त होता है, जो शुभ शेष रहा, वह सत्संग, गुरु के आशीर्वाद और ईश्वर की कृपा से प्राप्त होता है। सफलता, लाभ आदि में श्रम, बुद्धि आदि का महत्व है पर दैवयोग का भी लगभग उतना ही योगदान है। देवों को मान लेने से अपना महत्व कम हो जायेगा, ऐसी मानसिकता रखने वाले लोग इस पर आपत्ति कर सकते हैं। ब्रह्माण्ड में क्या हमारी स्थिति है और बड़े बड़े राजाओं का क्या अन्त हुआ है, इस पर तनिक सा भी विचार कर लेने से सारे विभ्रम प्रयाण कर जाते हैं। सरल, सुहृद भक्त अपने आराध्य को अपनी समस्या बता कर व्यस्त करने से पहले स्वयं उपाय करता है, जितना संभव हो सके उतना सहता है और असहनीय होने की स्थिति में पुकारता है।


हनुमानबाहुक को आप किस श्रेणी में रखेंगे? तुलसीदास अद्भुत ज्ञानी थे, सत्य का स्वरूप समझने वाले, स्वप्रेरित भक्ति में लीन, अपने आराध्य के नित्य उपासक, अपने आराध्य के शब्द उपासक। भक्ति के अतिरिक्त किसी और अर्थ की कामना भी नहीं थी उनमें, भौतिकता की तो लेश मात्र भी नहीं। बाँह की पीड़ा उन्हें हुयी, सारे उपाय भी उन्होंने किये, जितना संभव हो सका, सहा भी। अन्ततः हनुमानबाहुक के रूप में अभिव्यक्ति हुयी।


हनुमानबाहुक के संवाद में इस प्रश्न के उत्तर निहित हैं। वह विवेचना अगले ब्लाग में।

8 comments:

  1. वाह!कितना सुंदर वर्णन किया है। संयोग से आज गीता के इसी श्लोक 7/16 को पढ रहा था।

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    1. जी अरुणजी, इसी श्लोक का संदर्भ है। आभार आपका।

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  2. स्तुति, अर्चना, प्रार्थना और आरती शब्द को गीता से संदर्ब लेकर सुंदर व्याख्या की है | भक्ति पर शब्द और भाव से गुथी हुई सारगर्भित अभिव्यक्ति हेतु साधुवाद |

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  3. बढ़िया प्रस्तुति

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  4. वाह ... मन को आनंदित करते भाव हैं आपके आलेख में ...
    आत्म संतुष्टि सारगर्भित पोस्ट से ...

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    1. बहुत धन्यवाद आपके अवलोकन का।

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