3.6.21

हनुमानबाहुक - तुलसीदास


वाल्मीकि और तुलसीदास, दोनों ही क्रमशः रामायण और रामचरितमानस में राम के चरित्र को समग्रता से व्यक्त करते हैं। यद्यपि कथानक, घटनाक्रम, पात्र आदि समान हैं, भेद का मुख्यतः एक ही कारण है। स्थूल रूप में अन्तर अधिक नहीं है पर किस घटना को कितना महत्व देना है, किस पात्र का कौन सा पक्ष उभारना है, पाठक को क्या संदेश देना है, इन पक्षों पर अन्तर तनिक स्पष्ट हो जाता है।


राम से रचयिता का सम्बन्ध ही भेद का मुख्य कारण है। सम्बन्ध का प्रभाव अभिव्यक्ति पर पड़ता है। वाल्मीकि राम के समकालीन थे। राम स्वयं वनगमन में उनके आश्रम गये, पत्नी सीता उनके आश्रम में रहीं, पुत्र लव और कुश उनसे शिक्षा पाये, स्वाभाविक है कि वाल्मीकि को राम का चरित्र लिखने में अन्याश्रयों की आवश्यकता नहीं थी।  वाल्मीकि ने रामकथा, लवकुश के माध्यम से व्यक्त की, दरबार में अपने पिता के समक्ष गाते हुये। घटनायें या तो प्रत्यक्ष थीं या सीतावर्णित रही होंगी। वैसे भी उस समय ऋषिसमाज में कथाओं का बड़ा महत्व था। ज्ञान, नीति, समाज के उजले पक्ष कथाओं में अवलेहित कर संरक्षित रखे जाते थे। आश्रमों के सत्संग, तीर्थ यात्रायें ज्ञान के अदानप्रदान के सुदृढ़ आधार थे। इस वातावरण में रामायण की रचना की शैली इतिवृत्तात्मक थी और उद्देश्य रामराज्य के उदाहरण से प्रेरित अम्युदय। वाल्मीकि ने राम का चरित्र एक अत्यन्त अनुकरणीय रूप में प्रस्तुत किया है। वाल्मीकि के राम सहज ही प्रश्न पूछते हैं, लोकाचार जानते हैं और निभाते भी हैं, सम्बन्धों में विनम्रता, करुणा और स्नेह की मर्यादा तक भी जाते हैं, यह सब एक मानव के रूप में, एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप में।


यही नहीं, वाल्मीकि के अन्य पात्र भी एक सहज और सरल चिन्तन शैली लिये हुये लगते हैं, देवत्व और प्रभुत्व के प्रदर्शन से बचते बचाते। समकालीनता का एक लाभ यह भी होता है कि उस समय की मनःस्थिति रचयिता के मन में लगभग पात्र के अनुरुप ही रहती है। हनुमान जब सीता को रावण के महलों में ढूढ़ते होते हैं तो रावण के महलों के विलासिता के दृश्यों से निस्पृह हो मात्र कर्तव्य ही नहीं कर रहे होते हैं। उस समय वाल्मीकि के हनुमान हम सबकी तरह सोचते भी हैं कि मुझ ब्रह्मचारी को इस कार्य के लिये क्या क्या अर्धनग्न दृश्य देखने पड़ रहे हैं। वाल्मीकि के हनुमान न केवल इस प्रश्न को स्वीकार करते हैं वरन उसका तर्क और नीति से निवारण भी करते हैं।


वहीं दूसरी ओर तुलसीदास के राम उस भाव के परिवाहक थे जो कई सहस्रवर्षों से भारतीय जनमानस में ज्योतिर्मय था। सम्बन्धों में मर्यादा की पराकाष्ठा, शासन में रामराज्य का परमोत्कर्ष और पराक्रम में धनु सायक धरे राम, ये तीनों रूप सतत ही हमारे आदर्शों को एक निर्विवाद दिशा प्रदान करते हैं। राम और तुलसीदास के राम के बीच संस्कृति के सहस्रवर्षों का अन्तर था, विस्तार था। मध्य में इतनी कथाओं का प्रसार था कि जिन्हें समाहित कर पाना सरल नहीं था। सबके अपने नायक राम, सबके अपने पालक राम, सबके अपने बालक राम, सबकी अपनी एक भिन्न परिकल्पना पल्लवित हो चुकी थी राम और तुलसीदास के राम के बीच। तुलसीदास के समय का तात्कालिक परिवेश वाल्मीकि के समय से भिन्न था। वाल्मीकि ने जिस समय रामायण की रचना की, उस समय राक्षस मारे जा चुके थे, रामराज्य का उत्कर्ष दृष्टव्य था। जहाँ वाल्मीकि का परिवेश उत्थान का परिवेश था वहीं तुलसीदास के सारे रचनाकाल का परिवेश संघर्ष का था। आक्रांताओं के अनैतिक शासन के विरुद्ध आह्वान का केन्द्रबिन्दु था तुलसीदास का रचनावृत्त।


इस दृष्टि से देखा जाये तो तुलसीदास के राम को न केवल मर्यादा की सीमा के रूप में प्रस्तुत होना था, न केवल वीरता के प्रतिरूप के रूप में व्यक्त होना था, न केवल आदर्श शासक के मानदण्ड स्थापित करने थे, वरन संगठन, संघर्ष, संस्कृति, समरूपता, समाज के उत्थानबिन्दु पर राष्ट्र को ले जाने का दायित्व भी था। रचना पर कर्तव्यों और आकांक्षाओं के महत्भार का निर्वहन तुलसीदास ने अकेले नहीं किया और न कभी उसका श्रेय ही लिया। 


तुलसीदास ने किसी एक वक्ता के मुख से रामचरितमानस नहीं कहलायी, जिस समय जिस शैली की आवश्यकता हुयी, उस प्रकार के संवाद द्वय के प्रश्नोत्तरों से उसे व्यक्त किया। शिव पार्वती, याज्ञवल्क्य भरद्वाज, काकभुशुण्डि गरुड़ के संवादों से कथानक बढ़ाते हुये कई स्थानों पर तुलसीदास ने अपने श्रोताओं से सीधा संवाद स्थापित किया। जनमानस के भीतर की अग्नि जगानी हो या समाज का विक्षोभ मथना हो, तुलसीदास “पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं” का उद्घोष करते हैं। वेद, उपनिषद, पुराण आदि का सार हो या विज्ञान, संगीत, कृषि, ज्योतिष, तर्क के विषय, तुलसीदास अपनी संस्कृति के उत्कृष्ट अंगों का वर्णन करते हैं। आस्था के प्रतिमान हों या अपने स्वामी पर सर्वस्व न्योछावर करने का भाव हो, तुलसीदास भक्ति की शक्ति यथासंभव उभारते हैं। समाज में व्याप्त कुरीतियों हों या शैव वैष्णव, सगुण निर्गुण के विभ्रम, सबको एक निर्विवादित सार के रूप प्रस्तुत करते हैं तुलसीदास।


रामचरितमानस का प्रभाव भारतीय जनमानस में इतना व्यापक और गहरे उतरा है कि उसे शब्दों में उतार पाना असंभव है। घर घर में, गाँव गाँव में, सभाओं में, ज्ञानियों में रामचरितमानस की चौपाइयाँ, दोहे, छन्द प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। तुलसीदास के शब्द मन्त्र की शक्ति रखते हैं, उच्चारण भर कर लेने से मन निर्भय हो जाता है। तुलसीदास के शब्द मन का कलुष, व्यक्तित्व की क्षुद्रता, आचरण की न्यूनता, सबकुछ पिघलाकर अश्रु रूप में बहा डालते हैं। तुलसीदास के शब्द भक्ति की पराकाष्ठा हैं, शक्ति का उत्कर्ष हैं, भावनाओं का सौन्दर्य है और सम्बन्धों की कोमलता। रामचरितमानस के इस निर्मल आनन्द ने जब हम जैसे अधमों को इतना रुलाया है, कल्पना कीजिये किस भाव विभोरता में तुलसीदास ने रामचरितमानस का एक एक छन्द पिरोया होगा?


इस महत्कृति का तुलसीदास ने कभी भी तनिक भी श्रेय नहीं लिया और न ही कभी दंभ भरा राम से अपनी निकटता का। हर स्थान पर हनुमान उनके पथ प्रदर्शक के रूप में आते रहे। अपने आराध्य से जुड़ने में तुलसीदास को सदा ही अपने स्वामी हनुमान का आश्रय था। वाल्मीकि को राम से अपनी समकालीनता का लाभ था तो तुलसीदास को राम के भक्त और दरबार के रखवाले हनुमान का साथ और आशीर्वाद।


आश्रयता के इस चरम पर जब सेवक तुलसीदास को बाँह की पीड़ा हुयी होगी तो उनके अपने स्वामी हुनमान के प्रति क्या उद्गार होंगे, यदि इस रहस्य को जानना है तो “हनुमानबाहुक” का पाठ आवश्यक है, एक समझ आवश्यक है। भक्ति की अंतरंगता के इस पक्ष को व्यक्त कर सकने का प्रयास भर करूँगा अगले ब्लाग में। 

10 comments:

  1. बहुत बढ़िया !सूक्ष्म अध्ययन के बाद लिखा गया ,हिंदी साहित्य के लिए एक धरोहर है यह आलेख !साधुवाद !!

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    1. तुलसी बरबस लिखवा जाते हैं। आभार प्रोत्साहन का।

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  2. दोनों महा काव्य लिखने के अंतराल में मुख्य पात्रों के बीच सोच का बदलाव होना स्वाभाविक है और इसको बाखूबी लिखा है आपने ... और ये भी सच है अगर नायक महा नायक हो जाता है तो वो एक इश्वर का रूप ले कर ज्यादा प्रचलित हो जाता है ...

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    1. किसी का चरित्र बाद में लिख पाना सरल भी है, कठिन भी। सरल इसलिये कि कथा आपको ज्ञात है, कठिन इसलिये कि कथा सबको ज्ञात है।

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  3. अद्भुत वर्णन सर👏👏 बारंबार पढ़ने को मन करता हैं ।

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  4. पढ़ना आनंदमय रहा। पुनः ब्लाग लेखन की ओर लौटना शुभकारी है।

    रामयुग कब था और कब वाल्मीकि ने रामायण महाकाव्य लिखा - हजारों वर्ष का अन्तर है। अपनी श्रेष्ठ सृजनशीलता में महाकाव्यों के कथानायक के साथ स्वयं उपस्थित हो रहना एक ओर तो रचनाकार की उसके सामीप्य की चाह को अभिव्यक्त करता है तो यह कथानक की विश्वसनीयता भी पाठकों में स्थापित करता है। तुलसी भी इस भाव पक्ष से पृथक नहीं रह सके हैं - तुलसीदास चंदन घिसत तिलक देत रघुवीर। या फिर चित्रकूट की धरती पर श्रीराम के पहुंचते ही अपने आराध्य का स्वागत एक रहस्यमय तेजस्वी द्वारा किया जाना जो स्वयं तुलसी ही लगते हैं - ऐसे ही उदाहरण हैं। इस बिन्दु पर चिन्तन निवेदित है।

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    1. सामीप्य लेखन को सहजता देता है। लेखक बहुधा अपने निकटवर्ती विषयों को ही प्रमुखता भी देते हैं। वाल्मीकि और तुलसीदास में संभवतः यही अन्तर था। तुलसीदास ने कैसे इतना सजीव वर्णन किया, समझना कठिन है। किसी स्थिति विशेष पर राम की प्रतिक्रिया अचम्भित कर जाती है, उतना ही अचम्भित करता है तुलसीदास द्वारा उस भाव को पकड़ पाना।

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