27.8.19

अभ्यास और वैराग्य - ३

मन का एक रूप है कि यह स्थिर नहीं रहता, इधर उधर भागता है, शीघ्र ही उकता जाता है, नयापन ढूढ़ता है, उद्योग और श्रम से भागता है, इन्द्रियों के प्रभाव में सरलता से आ जाता है, अपनी बात मनवाने हेतु तर्क कुतर्क ढूढ़ ही लाता है। दूसरा रूप है कि जिस बात की ठान लेता है, शरीर पर पूर्ण नियन्त्रण धर करवा लेता है, सृजनशील है, सटीक तर्क प्रस्तुत करता है, अद्भुत व्यक्तित्व बनाने में सहायक है। अन्तर स्पष्ट है, जहाँ अनियन्त्रित मन पहला रूप दिखलाता है, नियन्त्रित मन दूसरा। पहला रूप शत्रुवत है, दूसरा मित्रवत। किसी के जीवन में मन का यह रूपान्तरण यदि संभव हो पाता है, तो केवल अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से।

किसका अभ्यास और किससे वैराग्य?

मन को जब साधना इतना कठिन हो और साधने से क्रियाफल में आमूलचूल परिवर्तन हो तो वह प्रक्रिया भी ठोस होगी, आजकल की भाँति कागजी या कृत्रिम नहीं। पतंजलि योग के लिये ८ अंगों की प्रक्रिया बतलाते हैं, अतः इसे अष्टांग योग भी कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। कुछ परिचित शब्द हैं, कुछ सर्वथा अपरिचित। अभ्यास और वैराग्य के संदर्भ में और विभूतियों के संदर्भ में इनकी यथास्थान व्याख्या की जायेगी। 

योग के बारे में सर्वाधिक प्रचलित धारणा आसन की है। यह अंग हठयोग के नाम से भी जाना जाता है। यद्यपि योग में आसन की उपादेयता बस इतनी ही है कि हम बिना किसी शारिरिक व्यवधान के दीर्घ समय तक बैठकर ध्यान लगा सकें। योगी एक या दो ही आसन सिद्ध करते हैं, पद्मासन या सुखासन या सिद्धासन। शरीर को इस कार्य के लिये उद्धत किया जाता है कि शरीर में हो रहे विचलन के कारण मन अस्थिर न हो जाये। आसन योग का अंग है पर मात्र आसन ही योग नहीं है। आसन का अभ्यास शरीर को इतना स्वस्थ और सुदृढ़ कर देता है कि रोग इत्यादि होने की संभावना क्षीणातिक्षीण होती जाती है। रोगनिदान के लिये भी आसन की उपादेयता अद्भुत है, हठयोग की संभावना अपरिमित है।

आसन के साथ प्राणायाम को भी योग के रूप में द्वितीयक ख्याति प्राप्त है। प्राणायाम मन को स्थिर करने का क्रम है। इसे कारण और प्रभाव के माध्यम से समझना उचित होगा। मन की स्थिति बदलने से हमारी साँसों की गति में बदलाव आता है। जब हम क्रोधित होते हैं तो साँसों का क्रम द्रुत होता है। शान्ति में साँसें सम रहती हैं। प्राणायाम से हम अपनी साँसों को नियन्त्रित करते हैं जिससे मन यथानुसार स्थिर होने लगता है। मस्तिष्क में शुद्ध आक्सीजन की मात्रा से मन स्थिर रहता है, शान्त रहता है। जहाँ आसन तन को स्थिर करने के लिये है, प्राणायाम मन को स्थिर करने में सहायक है। जब भी प्रातःचर्या में आसन और प्राणायाम का अवसर प्राप्त होता है, शेष दिन स्फूर्त और सजीव बीतता है।

योग के संबंध में हमारा ज्ञान और सीमित प्रयोग आसन और प्राणायाम के आसपास ही भटकता रहता है। संभवतः यह इसीलिये होता होगा कि इनसे होने वाले लाभ प्रत्यक्ष दिखायी पड़ते हैं, स्वास्थ्य में, मेधा में, विचारों की सम्यकता में। कुछ लोग ध्यान भी करते हैं, किसी एक बिन्दु पर। कुछ विपश्यना जैसी पद्धति अपनाते हैं, आती जाती साँसों पर ध्यान देकर। ध्यान एक अत्यधिक कठिन प्रक्रिया है, किसी योगसाधक के बिना स्वयं करना तो और भी कठिन होती है। आसन और प्राणायाम तो सम्यक रूप से किये भी जा सकते हैं, ध्यान की परिधि के अन्दर जा पाना सबके लिये सम्भव नहीं होता है। देखा जाये तो आसन और प्राणायाम से अधिक योग की सिद्धि और प्रसिद्धि जनमानस को नहीं है।

योग के अंगों का क्रम कुछ विचार कर के ही निर्धारित किया गया है। आसन और प्राणायाम तो यम और नियम के सम्यक पालन के बिना फिर भी किये जा सकते हैं, पर ध्यान तक पहुँचने के लिये यम, नियम, प्रत्याहार और धारणा से होकर आगे बढ़ना आवश्यक है, सभी को सम्यक रूप से साधते हुये, नहीं तो ध्यान टिकेगा ही नहीं। 

यम और नियम को तो हम मुख्यतः अच्छे गुणों के रूप में लेते हैं और उसमें सुधार करने का प्रयास करते रहते हैं। प्रत्याहार को एक मानसिक सिद्धान्त मानकर प्रतीक्षा और आशा करते रहते हैं कि वह कालान्तर स्वयं सिद्ध हो जाये। धारणा के बारे में बहुधा हमारा ज्ञान विचारों के परे नहीं जा पाता। इन चार अवयवों के अभाव में ध्यान को करना तो दूर, समझ पाना भी असम्भव है।

योग एक व्यापक प्रक्रिया है, कठिन तब जब हम बिना सिद्धान्त समझे आगे बढ़ेंगे, सहज तब जब समझ कर और अभ्यास और वैराग्य से साधकर आगे बढ़ेंगे। संभवतः यही कारण रहा है कि पतंजलि ने योग की परिभाषा देने के तुरन्त बाद ही अभ्यास और वैराग्य की प्राथमिक आवश्यकता बताना उचित समझा, अष्टांग योग बताने के पहले उसे साधने के उपाय बताना उचित समझा। अगले ब्लाग में अभ्यास और वैराग्य को परिभाषित करने हेतु पतंजलि के सूत्र और योग के अन्य लाभ।

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