17.8.19

अभ्यास और वैराग्य - १

पतंजलि पहले ४ सूत्रों में ही योग को परिभाषित कर देते है, शेष व्याख्या है। चित्त, वृत्ति, निरोध, दृष्टा, स्वरूप, सारूप्य, इन शब्दों को समझ लेने से ही पूरा योग दर्शित या स्पष्ट हो जाता है।

शाब्दिक अर्थ है। चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। योग में दृष्टा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। अन्य समय में वह वृत्तियों के सारूप्य रहता है।

चलिये और सरल करते हैं। चित्त मन है। मन की भटकन वृत्ति है। मन की भटकन का रुकना योग है। दृष्टा मन से भिन्न है। उसका मन से भिन्न अपना एक स्वरूप है। योग की स्थिति में वह अपने स्वरूप में रहता है, नहीं तो वह मन की भटकन जैसा अनुभव करता है।

मन की भटकन को रोकने के लिये उसे समझना भी आवश्यक है। मन के अनुकूल कुछ हुआ तो हम सुखी हो जाते हैं, कुछ प्रतिकूल हुआ तो हम दुखी हो जाते हैं। कितने असहाय हो जाते हैं। मन में आ रहे विचारों का प्रवाह नियन्त्रित करना कठिन है अतः जैसा मन कहता है, हम हो जाते हैं। जो कहता है, हम कर जाते हैं। जैसा मनवाता है, हम मान जाते हैं। है न विडम्बना, हमारा सेवक हमें नियन्त्रित करता है। हम विचारों के आकार में हवा हवा हो जाते हैं। है न दयनीय स्थिति।

ऐसा नहीं है कि हमारा ही मन इतना उत्पाती है या हम ही इतने असमर्थ हैं। सबकी यही समस्या है। अर्जुन जैसा वीर भी कहता है कि हे कृष्ण, यह मन इतना चंचल है कि बलपूर्वक मुझे हर लेता है और इसे नियन्त्रित करना वायु को बाँधने से भी अधिक कठिन है। तो उपाय क्या है?

अभ्यास और वैराग्य। कृष्ण भगवद्गीता (२.३४) में और पतंजलि (१.१२) में यही उपाय बताते हैं।

कहावत है कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। कटु सत्य पर यह है कि सदैव मन ही जीतता है तो वह हमारी हार ही हुयी। कहाँ से कहाँ लाकर पटक देता है। कभी अत्यधिक उन्माद में ढकेलता है तो कभी विषादग्रस्त कर जाता है। क्या दुर्गति नहीं करता है? मन की इस मनमानी में कभी कभार जो स्थिर सा दिखता है, वही हमारा स्वरूप है। सही मुहावरा तो होना चाहिये मन के जीते हार है, मन से जीते जीत।

पतंजलि मन की ५ वृत्तियाँ बताते हैं। प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा, स्मृति। प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम) के द्वारा प्राप्त सही ज्ञान, विपर्यय या मिथ्या ज्ञान, विकल्प या कल्पना, स्मृति या पुराने प्रत्यक्ष का पुनः उभरना, निद्रा या ज्ञान का अभाव। मन इन्ही ५ वृत्तियों के बीच अनियन्त्रित भटकता है और साथ में हमें भी बलवत बहा ले जाता है। यह साथ कालान्तर में इतना गाढ़ा हो जाता है कि हम स्वयं को ही मन समझने लगते हैं।

मन की सारूप्यता में बद्ध दृष्टा को अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से ही मुक्त किया जा सकता है।

अभ्यास क्या है, किसका अभ्यास, किन सोपानों पर बढ़ते रहने का अभ्यास? वैराग्य ही क्यों? भौतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में इन प्रश्नों के उत्तर हमारी भटकन की समस्या सुलझाने के लिये आवश्यक हैं। इस विषय को समझने का प्रयास करेंगे अगले ब्लाॆग में।

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