12.6.16

कविता का कालबन्ध

पिछले दो वर्षों में मुख्यतः कविता ही लिखीं, वह भी परस्पर असंबद्ध विषयों पर। कभी उत्साह की आस, कभी दर्शन की नीरवता, कभी तथ्यों की चोट, कभी बिखरे भावों को समेटने का प्रयास, कभी कुछ न कह सकने की टीस और कभी अभिव्यक्ति को ढूँढ़ लाने का उपक्रम। जब स्वयं से बात करने का समय घट जाता है तो ऐसे ही फुटकर बातें होती हैं। शब्द भी नहीं मिलते हैं, वाक्य पूरा करने के लिये। भाव अपना सत्य आधा व्यक्त करते हैं और आधा छिपा ले जाते हैं, संभवतः यह सोचकर कि पाठक उसे बीज रूप में समेट कर भाषा का समुचित विस्तार दे देगा और ठीक वैसा ही समझ लेगा जैसा भाव मन में प्रस्फुटित हुआ है।

किन्तु वैसा होता नहीं है, जैसा सोचा होता है। कवितायें अपनी ही कह जाती हैं, जो मन में आता है, वह लिखवा जाती हैं। पढ़ने वाले से संवाद होना या आंशिक होना या न होना, सब इस बात पर निर्भर करता है कि पाठक भी व्यक्त मनस्थिति से कितना परिचित है। यदि ऐसा नहीं है तो कविता असंप्रेषणीय शब्दों का एक समुच्चय बनी अपनी लघुता में भी ऐंठती रहती है।

जब कार्य कम शब्दों में होने लगता है तो मन भी आलस्य में उतरा जाता है। हमारे पूर्वजों और महान ऋषियों ने ज्ञान को संजोने के लिये सूत्र की विधा विकसित की थी। जब एक शब्द भी अतिरिक्त न हो और सारी बात कह भी दी जाये तो अभिव्यक्ति जिस रूप में निकलती है, उसे सूत्र कहते हैं। योगसूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि इसी उत्कृष्टता के साक्षात प्रमाण हैं। उनके इस प्रयास में आलस्य नहीं वरन गहन विस्तार को संश्लेषित किये जाने में लगा परिश्रम था, चिन्तन का गहराव और विषय की पूर्ण समझ थी। यदि पतंजलि योगसूत्र के प्रथम चार सूत्रों में विषय को पूर्ण स्पष्ट करने की क्षमता रखते हैं तो वह उनकी अद्भुत मेधा का परिचायक है। मेरे द्वारा अभिव्यक्त कविता की चार पंक्तियाँ मेरे गहराये आलस्य और मन में उमड़ते समग्रभाव के शतांश से अधिक कुछ भी नहीं  है।

समय न मिल पाना, किसी एक विषय में चित्त को ध्यानस्थ न कर पाना और आलस्य की इसी स्थिति ने कविता को प्रधानता दे दी। पहले अध्ययन किये हुये विषयों पर लिखना अच्छा लगता था, मन को संतुष्टि मिलती थी। धीरे धीरे गद्य के स्थान पर कविता आती गयी, नयी कविताओं के सृजन के स्थान पर संचित कवितायें जाने लगीं, सप्ताह में दो ब्लाग के स्थान पर एक ही पर संतोष करना पड़ा और धीरे धीरे नियत समय में कुछ न लिख पाने के कारण उस पर भी २-३ दिन का विलम्ब होने लगा।

यदि सृजनशीलता शान्ति से लिखना जानती है तो वह अन्तःकरण को इस आलस्य के लिये झकझोरना भी जानती है। झकझोरना और भी तीव्रता से होता है जब समयाभाव का कारण भी समाप्त हो गया हो। अब तो मन अस्थिरता और आलस्य ही कारण बचे, समुचित न लिख पाने के। लिखने के लिये पढ़ना पड़ता था, तथ्यों और विचारों को समझना पड़ता है। न लिखने से आत्मोन्नति का प्रवाह रुद्ध सा हो गया, इस कालखण्ड में। 

मन से जूझने का कौन सा उपाय है जो मानव न अपनाता हो। कार्य को न कर सकने के ढेरों कारण लाकर रख देगा आपका मन आपके सामने। आपका मन आपको ही भ्रम में डालने के लिये तत्पर है।

अन्तः कुछ कहने को आतुर है। न जाने कितने ऐसे विषय हैं जिन पर विचारों ने परिश्रम किया है,  न जाने कितनी उलझने सुलझी हैं, सरलता के न जाने कितने समतल देखे हैं, जीवन में कितना कुछ घटा है पिछले दो वर्षों में। संवादहीनता निश्चय ही नहीं रही है पर मन के बादल जमकर नहीं बरसे हैं। दो वर्ष की प्रतीक्षा के पश्चात, इस वर्ष का मानसून भी आशा से अधिक आने की संभावना है। प्लावित मन निश्चय ही कविता के कालबन्ध से बाहर निकलेगा।

8 comments:

  1. अपनी ही बात कहने की कोशिश में हार गया मैं
    न जाने कब मन के भाव स्याही बन कागजों में बिखर गए

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  2. कहने की अपनी बात हिम्मत कभी जुटा नहीं पाया
    न जाने कब मन के भाव स्याही बन कागजों पर उतर गए

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  3. कहने की अपनी बात हिम्मत कभी जुटा नहीं पाया
    न जाने कब मन के भाव स्याही बन कागजों पर उतर गए

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  4. व्यक्त तो होना ही है, यदि आज न तो कल सही !
    निकलें ह्रदय के भाव निर्झर आज न तो कल सही ! - सतीश सक्सेना

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  5. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 14/06/2016 को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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  6. विलम्ब से ही किन्तु मानसून तो बरसने ही लगा है।

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  7. सचमुच आल्सय कह लें, या रोज की आपाधापी, लिखना अनिमियत तो हो ही गया है। कई बार लगता है लिखने का कोई फायदा। तो इतना फायदा तो है कि अपने अंदर छपटपटाते शब्द बाहर निकल जाते हैं, और अंदर शांति मिल जाती है।

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