29.5.16

चक्रव्यूह अनुकूल नहीं अब

भौतिकता में क्यों अटका है?
मार्ग जटिल ही क्यों तकता है?
स्वप्निल मनवा जागेगा कब?
चक्रव्यूह अनुकूल नहीं अब,

झेल चुका, अब बहुत हो गया,
जागृत संचितधर्म सो गया ।
जीवन के हर द्वारे द्वारे,
जयद्रथ जैसे शत्रु आज सब ।
चक्रव्यूह अनुकूल नहीं अब ।।

पार्थ-पुत्र तू नहीं प्रलयंकर,
प्राप्त नहीं हैं तुझे विजयशर ।
अस्तित्वों के युद्ध निरन्तर,
खीखें व्यूह भेदना हम कब ।
चक्रव्यूह अनुकूल नहीं अब ।।

अन्दर सुख है शेष व्यर्थ है,
अन्तरतम की बलि निरर्थ है ।
चक्रव्यूह के अग्निकुण्ड में,
भौतिकता ही दान करो अब ।
स्वप्निल मनवा जागेगा कब?

4 comments:

  1. प्रवीण जी बहुत ही सुंदर व रोचक रचना......आपने इस रचना के माध्यम से लोगों को चक्रव्यूह में न पड़ने के लिए एक नई राह दी है......ऐसी ही उत्साहवर्धक रचनाएं अब आप शब्दनगरी
    के माध्यम से भी लिखकर व जुड़ कर एक नया अनुभव ले सकतें हैं....

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  2. बहुत सुंदर रचना......

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  3. Oh great,sir I am a regular reader of your poems and love to read them,all are eqally brillainat.

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