10.4.16

मन-राक्षस

दुनिया,
कुछ अधखुली मस्तिष्क-पटल पर,
करती है हर काम अपनी धुन पर ।
कुछ भी हो,
मैं भी हूँ दुनिया,
और प्राप्त हैं सारे अधिकार,
मानवीय, दैवीय, राक्षसीय आदि ।
आखिर हों भी क्यों न,
मैं भी उस धरती का पुत्र,
जिसने जन्म दिया कुछ राक्षसों को,
उनके लिये अवतरित किया,
भगवान को ।
लड़ाई हुयी और विजय मिली,
सत्य को ।

शायद कभी कभी ऐसा ही युद्ध होता है,
मेरे मन की पर्तों में ।
शायद बाहरी राक्षस,
विजय पाना चाहते हों,
मन के देवता पर,
क्योंकि मन तो निर्मल है ।
और यदि होती है हार,
तो विजय पाकर राक्षस,
मन को करता दूषित, बेकार,
और इस तरह,
निर्माण होता है, एक नये राक्षस का ।
वह भी अपनी धुन में सवार,
आक्रमण हेतु खोजता है शिकार ।

11 comments:

  1. वर्षों से हम कागज के रावण जलाते हैं
    पर अपने भीतर के रावण को मार नहीं पाते हैं

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  2. वर्षों से हम कागज के रावण जलाते हैं
    पर अपने भीतर के रावण को मार नहीं पाते हैं

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  3. आपने लिखा...
    कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
    हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 11/04/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
    अंक 269 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " आगे ख़तरा है - रविवासरीय ब्लॉग-बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. WOW!! I am reading your post after ages, will catch up with your previous posts but this one hits hard. Brilliantly put!! Thanks!!!!

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  6. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (11-04-2016) को

    Monday, April 11, 2016

    "मयंक की पुस्तकों का विमोचन-खटीमा में हुआ राष्ट्रीय दोहाकारों का समागम और सम्मान" "चर्चा अंक 2309"

    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  7. एक अनूठापन है इस रचना में , बधाई आपको !!

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  8. कहा जाता है, जिसने अपने मन पर काबू रखना सीख लिया हो उसके लिए हर काम सम्भव है। सुंदर प्रस्तुति।

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  9. मन के हारे हार है मन के जीते जीत
    पारब्रह्म को पाइए मन की ही परतीत ।
    कबीर

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  10. मैं भी उस धरती का पुत्र,
    जिसने जन्म दिया कुछ राक्षसों को,
    उनके लिये अवतरित किया,
    भगवान को ।
    लड़ाई हुयी और विजय मिली,
    सत्य को । सत्य की विजय ही विजय है बांकी हम सत्य को हराकर जीत भी गए तो वो हमारी शर्मनाक हार ही है ?

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