19.7.15

सुख-श्रृंगार

आज विचारों में उतराकर, सकल अलंकृत प्यार करूँ मैं ।
कहीं दूर एकान्त बैठकर, तेरा सुख-श्रृंगार करूँ मैं ।।

तृषा-दग्ध हर दृष्टि, मची है उथल-पुथल, तुझको डर है ।
स्वार्थ-तिक्त जग-रीति तुम्हारे पंख काटने को तत्पर है ।।

व्यर्थ तुम क्यों झेलो सब वार,
बसाकर सरस हृदय में प्यार,
सिमटकर बाहों में छिप जा,
तुम्हारे हर दुख का उपचार करूँ मैं ।

आ जा तेरे मुग्ध, सुवासित उपवन को तैयार करूँ मैं ।
तेरा सुख-श्रृंगार करूँ मैं, सकल अलंकृत प्यार करूँ मैं ।

7 comments:

  1. दिनांक 20/07/2015 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
    पुकारा तो ज़रूर होगा[मेरी पहली चर्चा] पर...
    आप भी आयेगा....

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  2. सुन्दर श्रृंगार और आश्वस्ति की रचना

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  3. सकल अलंकॄत प्यार ...वाह ..

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, यारों, दोस्ती बड़ी ही हसीन है - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. रीतिकाल उतर आया जान पड़ता है। (y)

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  6. श्रृंगार के प्रति आशक्ति!!

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  7. Lovely !:) beautiful..

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