15.2.15

मन और जीवन

मैं जीवन बाँधता हूँ और मन से रोज लड़ता हूँ,
लुढ़कता ध्येय से मैं दूर, लेकिन फिर भी चढ़ता हूँ ।
बहुत कारक, विरोधों की हवा अनवरत बहती है,
बचाये स्वयं को, बन आत्मा की आग जलता हूँ ।।

विविधता में जगत की, किन्तु मन हर बार बहलाता,
भुलाता, स्वप्न दिखलाता, छिपाता रूप जीवन का ।
सुलाता नींद में, फिर भी स्वयं का भान होता है,
बढ़ाता हूँ कदम मैं, प्रात को पाने की उत्सुकता ।।

कभी मन साथ होता है,
कभी आघात होता है,
कभी आह्लाद आ जाता,
कभी संताप होता है ।
विकट इस द्वन्द्व में रहना,
सरलता चरमराती है,
हृदय में, किन्तु फिर भी आस,
रह रह टिमटिमाती है ।। 

10 comments:

  1. Beautiful Inspiring poem!

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  2. Beautiful Inspiring poem!

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  3. आप की रचना के लिए धन्यवाद!
    ईश्वर भक्त कहलाने वालों ,का सत्कार होता है |
    उनके शरीर पर ईश्वर भक्ति का चिन्ह होता है ||
    वैभवों के मनसूबे बांधकर अप्रत्यक्ष जो रहते हैं |
    ईश्वर के क्रोध से डर कर पापों से बचते कहते हैं ||

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  4. स्वयं की प्रेरणा स्वयं हो , इससे अच्छा कुछ नहीं ।

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  5. ह्रदय में आस का टिमटिमाना ही जीवन की निशानी है!

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  6. सादर प्रणाम सर जी ! शोधपरक ,सच्ची सरलता झलकती है इन पंक्तियों में जिसके लिए कठिन आयास अपेक्षित होता है ।ऐसी अभिव्यक्ति आप सरीखा कओई सच्चा साधक ही कर सकता है ।

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  7. बहुत सुन्‍दर।

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  8. जीवन में लुका छिपी चलती रहती है।

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  9. सरलता के चरमराने का एहसास ही उसको बचाने की दिशा में पहला कदम है।
    यह द्वंद्व मानव मात्र का है।

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