19.1.15

एक बचपन माँगता हूँ

अब समय की राह में,
अस्तित्व अपना जानता हूँ ।
यदि कहीं, कुछ भा रहा है,
एक बचपन माँगता हूँ ।

कहाँ से लाऊँ सहजता,
हर तरफ तो आवरण है ।
आत्म का आचार जग में,
बुद्धि का ही अनुकरण है ।
क्यों नहीं प्रस्फुट हृदय है,
कृत्रिम कविता बाँचता हूँ ।
एक बचपन माँगता हूँ ।।

खो गया हूँ, मैं अकेला,
स्वयं के निर्मित भवन में ।
अनुभवों की वृहद नद में,
आचरण के जटिल वन में,
क्यों सफलता के घड़ों से,
जीवनी मैं नापता हूँ ।
एक बचपन माँगता हूँ ।। २।।

7 comments:

  1. लाजवाब रचना...

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  2. वाह… मर्मस्पर्शी

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  3. जीवन में बचपन को बचपन, युवा, प्रौढ़, वृद्धावस्‍था सब नजरों से देखने पर लगता है कि बचपन ही श्रेष्‍ठ है। सुन्‍दर प्रवाह।

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  4. सच में उलझनों से दूर होना चाहता हूँ
    मासूम सा बचपन फिर मांगता हूँ ....

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  5. बचपन जैसी सहजता फिर कहाँ मिलेगी
    सही मांग की है आपने

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  6. वाह… मर्मस्पर्शी बेहद उम्दा सोच के साथ लिखी गई कविता

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  7. क्यों सफलता के घड़ों से,
    जीवनी मैं नापता हूँ ।
    एक बचपन माँगता हूँ

    यदि हम ना करें तो दुनिया नापती है हमें सफलता के घडों से। सुंदर अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति।

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