11.1.15

कुछ पल अपने

दिन तो बीता आपाधापी,
यथारूप हर चिंता व्यापी,
कार्य कुपोषित, व्यस्त अवस्था,
अधिकारों से त्रस्त व्यवस्था,
होड़, दौड़ का ओढ़ चढ़ाये,
अवसादों का कोढ़ छिपाये,
कौन मौन अन्तर्मन साधे,
मन के तथ्यों से घबराते,
लगे सभी जब जीवन जपने,
कुछ पल अपने।१।

हमने तो सोचा था जीवन,
होगा अपना करने का मन,
कहाँ पता था, हर पग पग में,
लौहबन्ध और आतुर दृग में,
अँसुअन का अंबार दृष्टिगत,
अनुमोदित अधिकार हस्तगत,
नींव आपके शतकर्मों की,
स्वेद-सुपोषित सत मर्मों की,
जब उत्साह लगा हो छकने,
कुछ पल अपने।२।

जहाँ विकल्पों की सुविधा हो,
जहाँ श्रेष्ठ में नित दुविधा हो,
कौन बताये, क्या अपनायें,
किन मूल्यों पर मार्ग बितायें,
सबके अपने अपने अनुभव,
आशंकित, यदि पंथ चुने नव,
जीवन का वैशिष्ट्य बचाये,
निर्णय को आधार बनाये,
एक संसार लगा है सजने,
कुछ पल अपने।३।

स्थापित पंथों से घर्षण,
छितरे जग जगमग आकर्षण,
स्थितियों के मेरुदण्ड शत,
विश्वासों को उलझाते मत,
ज्ञात प्रात का अन्त भाप सा,
आशान्वित उत्सव विलाप सा,
आदि, अंत का द्वन्द्वयुद्ध जग,
शंका बरसे, संशोधित नभ,
लगता शोधित पंथ बिलखने,
कुछ पल अपने।४।

हर कपाल, एक विश्व रचित सा,
सम प्रायिकता गुण संचित पा,
सहजीवन निष्कर्ष अनन्ता,
हन्त्य चीखते, गुपचुप हन्ता,
अद्भुत खेला, अद्भुत मेला,
भीड़ भरे तत्वों का रेला,
आत्मा की पहचान बचाये,
भय, संभवतः खो न जाये,
मनवेगों को पुनि पुनि मथने,
कुछ पल अपने।५।

हमने तो शाश्वत जाना है,
पल, दिन, जीवन एक माना है,
एक अस्त, दूजा उद्भवमय,
मध्य अवस्थित लुप्त, मृत्यु भय,
कौन ठौर साधे मध्यम का,
जागृत विश्व रहा प्रियतम सा,
मध्य जगी ऊर्जा आगत की,
प्रचुर व्यवस्था है स्वागत की,
अब निद्रा हो, अब हों सपने,
कुछ पल अपने।६।

13 comments:

  1. वाह बहुत ही सुन्दर शिल्प में जीवन और जीवनेत्तर गुत्थियों को सहेजता ,आलोड़ित करता भाव!

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  2. अति सुन्दर रचना

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  3. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (12-01-2015) को "कुछ पल अपने" (चर्चा-1856) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. बेहतरीन अभिव्यक्ति..

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  5. दिन तो बीता आपाधापी,
    यथारूप हर चिंता व्यापी,.......................वाह प्रवीण जी धन्‍यवाद। मेरा अनुरोध मान ही लिया है आपने अाखिर। कुछ समय पहले मेरी किसी ब्‍लॉग पोस्‍ट पर आपने टिप्‍पणी के रूप में अपनी उक्‍त महत्‍वपूर्ण पंक्तियां लिखी थीं अौर मैंने तब ही अापसे कहा था कि इन पंक्तियों को टिप्‍पणी के रूप में खर्च न कर एक कविता बना दें। अब जाकर आपने मेरा वह अनुरोध पूरा किया। क्‍या मैं सही हूँ। कृपया इस बात से अवश्‍य अवगत कराएं।
    देश विदेश के गरीब-अमीर, हर बात घटना से पीड़ित व्‍यक्ति और उसके मन का चौतरफा मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण करती कलि कालानुरूप अद्भुत कविता।

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    1. http://chandkhem.blogspot.in/2014/01/blog-post_7059.html?showComment=1389939048298#c3504956096029828369 (मेरी इस पोस्‍ट पर आपने अपनी इस कविता का एक अन्‍तरा डाला था) और http://www.praveenpandeypp.com/2014/01/blog-post_18.html#comment-form (आपकी इस पोस्‍ट पर मैंने इस टिप्‍पणी को कविता में बदलने का अनुरोध किया था)

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    2. जी विकेशजी, आप के कहने पर ही टिप्पणी को सहेजकर रख लिया था। विचार संघनित हुये, वातावरण नम हुआ, शब्द बरस गये।

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  6. ​बहुत ही बढ़िया ​!
    ​समय निकालकर मेरे ब्लॉग http://puraneebastee.blogspot.in/p/kavita-hindi-poem.html पर भी आना ​

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  7. जहाँ विकल्पों की सुविधा हो,
    जहाँ श्रेष्ठ में नित दुविधा हो,
    कौन बताये, क्या अपनायें,
    किन मूल्यों पर मार्ग बितायें,
    सबके अपने अपने अनुभव,
    आशंकित, यदि पंथ चुने नव,
    जीवन का वैशिष्ट्य बचाये,
    निर्णय को आधार बनाये,
    एक संसार लगा है सजने,
    कुछ पल अपने।३।

    बहुत ही सुंदर रचना..गहरे भाव लिये.

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  8. अपने लिये तो सदा ही पलो का अभाव रहता है।

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