22.11.14

एक अपरिचित सन्नाटा

एक अपरिचित सन्नाटा सा पीछे पीछे भाग रहा,
दिन को दिन में जी लेता, पर रात अकेले होता हूँ ।

कृत्रिम मुस्कानों से, मन की पीड़ायें तो ढक लेता,
कहाँ छुपाऊँ नंगापन, जब अँधियारे में खोता हूँ ।

खारे अँसुअन का भारीपन आँखों में ले जाग रहा, 
एकटक तकता दिशाहीन, मैं जगते जगते सोता हूँ ।

स्वप्नों का तैयार महल जब अपनों के द्वारा खण्डित,
छोड़ नहीं सकता मैं उनको, टूटे सपने ढोता हूँ ।

किससे मन की पीड़ा कह दूँ, दावानल जो धधक रहा,
दिन भर लुटकर शेष रहा जो जीवन वही संजोता हूँ ।

सब कहते हैं, दुख से मन के भाव प्रौढ़ होने लगते,
पता नहीं फिर क्यों बच्चों सा सुबक सुबक कर रोता हूँ ।

9 comments:

  1. मनुष्य अपनी समस्याओं से बहुत बडा है । ऐसी कोई समस्या नहीं है , जिसका समाधान न हो ।

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  2. दिल के दर्द की सुन्‍दर भावनाएं व्‍यक्‍त की हैं। प्रवीण जी पारिवारिक, राजकीय और सामाजिक जीवन में सब ठीक तो है ना?

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  3. भावमय करते शब्‍द व प्रस्‍तुति

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (23-11-2014) को "काठी का दर्द" (चर्चा मंच 1806) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. दर्द छुपाना दर्द संजोना,दर्द दर्द जीने लगना
    जीवन जीने की रीत पुरानी ,दर्द दवा सा पी लेना ......

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  6. सुबक सुबक रोने से तन और मन दोनो हलके हो जाते हैं।

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  7. बस जो शेष बचा है उसे ही जीवन भर समेटना है । भाव वक़्त के साथ प्रौढ़ हो जाएँ यदि बच्चों की तरह रो सकते हैं तो निश्चय ही कष्टों को भूल आगे बढ़ने की क्षमता है । मर्मस्पर्शी रचना ।

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  8. वाह ! भावपूर्ण रचना !!

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  9. बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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