15.11.14

प्रियतम

खोजता दो नेत्र, जिनमें स्वयं को पहचान लूँ मैं,
आप आये, पंथ को विश्राम मिल गया है ।

प्रेम की दो बूँद चाही, किन्तु सागर में उतरता,
आपके सामीप्य का अनुदान मिल गया है ।

हृदय में प्रतिमा बनी थी, और मन से पूजता था,
कहूँ कैसे देवता अन्जान मिल गया है ।

16 comments:

  1. आपकी साधना फलीभूत हुई , इसी तरह हर किसी की साधना फलीभूत हो, ईश्वर से यही प्रार्थना है ।

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (16-11-2014) को "रुकिए प्लीज ! खबर आपकी ..." {चर्चा - 1799) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. वाह क्या सुंदर बात कही है।

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  4. सुंदर पंक्तियाँ

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  5. बहुत सुन्दर...

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  6. दो बूँद की चाह वाले को सागर मिल जाए तो कहना ही क्या !

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  7. ह्रदय से निकली मन की बात।

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  8. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवार के - चर्चा मंच पर ।।

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  9. वाह-वाह, बधाई हो।
    ईश्वर ऐसी तृप्ति सबको दे।

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  10. कहना संभव ही नहीं है. शब्दों में कैसे समाएगा, वह सब्दातीत।

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  11. बहुत सुन्दर भाव । जैसे मन तृप्ति से भर गया हो ।

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