1.11.14

स्वप्न सुनहला

स्वप्न सुनहला देखा मैंने,
सुन्दर चेहरा देखा मैंने ।
मन में संचित चित्रण को,
बन सत्य पिघलते देखा मैंने ।।१।।

आनन्दित जागृत आँखों में,
सुन्दर तेरा रूप सलोना ।
मन की गहरी पर्तों में,
निर्द्वन्द उभरते देखा मैंने ।।२।।

शब्द कभी भी नहीं मिलेंगे,
उपमाओं में नहीं समाना ।
आज कल्पना को फिर से,
हो विकल विचरते देखा मैंने ।।३।।

12 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (02-11-2014) को "प्रेम और समर्पण - मोदी के बदले नवाज" (चर्चा मंच-1785) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. भले अमावस रात क्यों न हो भोर सुबह वह ही लाती है सूर्योदय वह दिखलाती है ।

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  3. Bahut hi sunder va bhawpurn prastuti !!

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  4. वाह! स्वप्न भी और शब्द भी - लाजवाब।

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  5. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवार के - चर्चा मंच पर ।।

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  6. मन में संचित सुन्दर चित्रण.

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  7. सुन्दर शब्द भाव ... सुन्दर चित्रण ...

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  8. बहुत सुन्दर...

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  9. मन में संचित चित्रण को ---क्या बात है जी....

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