4.10.14

समय

मैं टूट रहा प्रतिपल, प्रतिक्षण, वह भाग रहा अपनी गति से,
मैं खड़ा हुआ संवेदित मन, वह टले नहीं निज नियमों से ।
मैं छूट गया इस जीवन में, वह ‘अथक’ निकलता चला गया,
जीवन के सुन्दर स्वप्नों को, वह ‘समय’ रौंदता चला गया ।।१।।

ना ही जाने का स्वर-निनाद, ना ही आने की शहनाई,
है नहीं समय का जन्म कभी, ना बालकपन, ना तरुणाई ।
वह सर्वव्याप्त, वह शान्त सदा, है मन्द अचर गति पायी,
है वही नियामक जीवन का, सब सृष्टि उसी से चल पायी ।।२।।
 
श्रम-बिन्दु समय की बेदी पर, हैं जीवन-पथ में सुधाधार,
प्रत्येक कदम कर निर्धारित, हे मानव, तो है सुख अपार ।
यदि शेष बचे इस जीवन का, हो जाये हर पल श्वेत-धवल,
वह क्षमाशील कर देगा तुझको हर बाधा के सेतु पार ।।३।।

16 comments:

  1. सुंदर प्रस्तुति...
    दिनांक 6/10/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
    हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
    हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
    सादर...
    कुलदीप ठाकुर

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  2. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
    इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 05/10/2014 को "प्रतिबिंब रूठता है” चर्चा मंच:1757 पर.

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  3. बहुत बढ़िया

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  4. समय का मर्म समझाने के लिये हार्दिक धन्यवादँ...

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  5. समय न सहनाई बजाकर आता है न शोर मचाकर जाता है ,वह तो शांत है |उसके पद्श्चाप किसी को सुनाई नहीं देती !....सुन्दर गहन भाव !
    विजयदशमी की हार्दीक शुभकामनाएं !
    शुम्भ निशुम्भ बध :भाग -10
    शुम्भ निशुम्भ बध :भाग ९

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  6. श्रम-बिन्दु समय की बेदी पर, हैं जीवन-पथ में सुधाधार,
    प्रत्येक कदम कर निर्धारित, हे मानव, तो है सुख अपार ।
    .
    बहुत बढ़िया

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  7. उत्कृष्ट सारगर्भित छंद बद्ध कविता !!

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  8. उत्कृष्ट ..........

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  9. पल - पल करके बीत रहा है मूल्यवान यह मानव जीवन ।
    जो वर्त्तमान को जिया वस्तुतः उसका जीवन है वृन्दावन ।

    वर्त्तमान ही वन्दनीय है यह ही सचमुच अपना लगता है ।
    वर्त्तमान से विमुख - हुआ जो उसको पछताना पडता है ।

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  10. Bahut gahan va sunder prastuti ....!!

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  11. समय से बलवान कौन? सार्थ प्र

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  12. बहुत ही सुन्दर एवं सारगर्भित रचना। स्वयं शून्य

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  13. यही समय की गति है...बहुत सारगर्भित और प्रभावी रचना...

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  14. सादर प्रणाम सर ! समय की महत्ता और उसकी पकड़ की अन्यतम समझ जिसे हो , सर्फ और सिर्फ वही दे सकता है ऐसी उत्कृष्ट रचना ।इसे जितने बार पढ़ता हूॅं हरबार नई लगती है औरपढ़ने से मन ही नहीं भर रहा है ।गजब सर ।
    रत्न खान मनुष्य को , पैदा प्रजापति ने किया । पर ,इसे क्षण भंगुर बना , क्रीड़ा विधाता ने किया ।।
    वसन्त का क्या दोष है , किसलय करील में यदि नहीं ।नहीं दोष कोई सूर्य का ,उल्लू को दिन में दिखे नहीं ।
    मेघ भी निर्दोष है , जल स्वाति चातक ना मिले । तब दोष ना कोई किसी का ,लेख विधि का ना मिटे ।।

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  15. कई दिनों बाद आपकी रचना पढ़ पा रही हूँ । आपकी कविताएं विशिष्ट ही होती हैं । सचमुच समय नही ठहरता हमारे लिये लेकिन वह सबसे बड़ा शिक्षक होता है ।

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