24.9.14

कह जाने दो

मन में दुख का भार उठाये,
अपने बिम्बों में सकुचाये,
भीगी पलकों में आँखों की,
मन के गहरे भाव छिपाये,
कब तक अँसुअन को रोकोगे,
कब तक झूठे बहलाओगे,
कब तक धैर्य भरी मुस्कानें,
अपने अधरों पर लाओगे ?

अँसुअन को अब बह जाने दो,
कहते हैं जो, कह जाने दो ।

13 comments:

  1. अच्छा है मन की पीड़ा यूँ ही कह दी जाये ....सुन्दर पंक्तियाँ

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  2. Anonymous24/9/14 15:21

    kitni sundar aur saral bhasha me jivan ke ek dard bhari pahalu ki prastuti......... Sundar kavi ke yahi to pehchan hai.



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  3. अद्भुत क्षमता है सर , पलकों के अन्दर झाॅंक लेने की ,सहानुभूति के साथ सान्त्वना भी प्रकट करने की और उसके काव्यमय प्रस्तुति की ।आसां नहीं है समझना आॅंसुओं का फसाना /पलकों के अन्दर गहरे उतर जाना / खुशी या गम को ताड़ जाना / चमत्कारिक है कविता में आपका व्यक्त कर पाना ।

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  4. बहुत सुन्दर ...क्या बात है पण्डे जी.....

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  5. "मन के सहने की एक सीमा होती है ,जिसमे आन्सुएँ की धारा सोती है;
    सीमा जब अतिक्रमनित होती है ,आन्सुएँ की धारा स्वतः बहती है "

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  6. आपकी लिखी रचना शनिवार 27 सितम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  7. प्रवीण जी ! समय सबसे बडा डाक्टर है । बडे से बडे घाव को वह भर देता है ।

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  8. अंतर की पीड़ा का बह जाना ही श्रेयस्कर है चाहे आँसुओं के रास्ते या फिर शब्दों के माध्यम से ! अर्थपूर्ण, सारगर्भित एवं सुन्दर रचना !

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  9. जब धीरज का बांध टूट जाय , उसे निकल जाने देना ही उचित है !
    नवरात्रि की हार्दीक शुभकामनाएं !
    शुम्भ निशुम्भ बध -भाग ४

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  10. Bhaawpurn abhivyakti ....ati Sunder

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  11. waah jabardast... bahut khoob

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  12. मन की पीड़ा बह जाने दो
    अश्कों से सब कह जाने दो । बेहतरीन

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