8.2.14

सब और हम

धूल उड़ रही,
हम पकड़े निर्मलतम झण्डा।

ऊष्मा बढ़ती,
किये रहे मन विधिवत ठंडा।

गहरी चालें,
सज्जन मन का ठूँठा डंडा।

आदर्शों का खूँटा गाड़े, 
देखें नित हम आँखें फाड़े,
शुचिता हाहाकार मचाती,
संचित आग्रह तजती जाती।

शान्ति शक्ति देती है हमको,
सुखद, व्यवस्था से पालित जो,
हर घर्षण शंकित कर जाता,
गति में आकर्षण रुक जाता।

हर दिन थोड़ा थोड़ा रिसता,
धैर्य धरे मन अब किस किसका,
परिवर्तन कैसा, यह भय है,
आगन्तुक, भीषण संशय है।

रुका हुआ कुछ, कुछ चलने को मान रहा,
दो पथ जीवन, किंचित नहीं विधान रहा,
कैसे निष्क्रिय, हतप्रभ होना भी निर्णय,
नहीं एक पल भी देता है, क्रूर समय।

हम इस पल के संग चलें या जाने दें,
स्थिर रहकर या आगत को आने दें,
काल रहेगा, लहरें भी आती जायें,
नहीं सुनेंगीं, अपनी ही गाती जायें।

निर्णय लें या मुक्त रहें, यह निर्णय हो,
हम रथ पर, सारथि की चाहे जो लय हो,
जब तक संभव, दृष्टा बन जीवन वहन करें,
जब तक संभव, परिवर्तन तनकर सहन करें।

क्या होगा निष्कर्ष आज का, इस क्षण का,
है तटस्थ या युक्त, अर्थ इस तर्पण का,
धूल, ऊष्मा, गहरी चालें गह लेंगे,
कुछ अर्जित यदि, परिवर्तन भी सह लेंगे।

निर्मलतम, शीतल, सज्जन हम बने रहें,
जूझ सकें तो, अपने से ही ठने रहें,
बाहर की बातें परिवर्तन लगती हैं,
अन्दर भी राहें वर्षों से तकती हैं।

लगता होगा, बड़े अनोखेलाल बने हम,
लगता होगा, अवसादों के भाल बने हम।
लगता होगा, हम निष्क्रिय मन, अजगर से,
लगता होगा, अलसाये हर अवसर से।

हमने अपना गगन सम्हाला, लघु होगा,
तिक्त समय, पर कहीं प्रतीक्षित मधु होगा,
वही रूप भाये हमको जो शुभ, सुंदर,
क्षितिज खड़े हैं, हाथों में धरती अम्बर।

34 comments:

  1. एक एक पंक्ति हकीकत बताने में समर्थ है
    सटीक चित्रण
    हार्दिक शुभकामनायें

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  2. असमंजस है अब हर पल , सुंदर एवं क्लिष्ट हिंदी रचना.

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  3. जो लगता आदर्श उसी पर चलना है
    निष्क्रिय होकर जलधार सदृश नहीं बहना है ।
    जो तटस्थ हो बैठ गया वह कायर है
    जो अत्याचारी के सँग गया वह डायर है ।

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  4. सुबोधित शब्द और विचार ........!!सुगठित कविता ...!!

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  5. जब तक संभव, दृष्टा बन जीवन वहन करें,
    जब तक संभव, परिवर्तन तनकर सहन करें।

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  6. गेय पद रूप में बहुत सुन्दर सामयिक चिंतन से ओत-प्रोत रचना ...
    ....
    आपके विचारशील व चिंतनशील लेखों की तरह ही यह कविता भी बहुत सुन्दर लगी ..

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  7. आज के दौर के जीवन का प्रतिबिम्ब हैं ये पंक्तियाँ.....

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  8. सामयिक चिंतन का सुन्दर प्रतिबिम्ब हैं ....बहुत सुन्दर

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  9. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (09-02-2014) को "तुमसे प्यार है... " (चर्चा मंच-1518) पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  10. जीवन का प्रतिबिम्ब दिखाती पंक्तियाँ

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  11. बातें बाहर की परिवर्तन लगती हैं,
    किन्‍तु राहें मन की वर्षों से तकती हैं।......................समय के ऊहापोह में कवि मन का आध्‍यात्मिक संवाद।

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  12. गद्यकार का पद्य बड़ा ही सौंधा पद्य होता है। जीते रहिये।

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  13. लगता हो तो लगे -प्रेरक कविता

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  14. अति सुन्दर ..

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  15. सम सामयिक परिदृश्य को रेखांकित करती .....जीवन की कठिन डगर पर खुद को सम्हल कर चलने को प्रेरित करती रचना

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  16. अच्छी है

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  17. आपकी इस प्रस्तुति को आज की जगजीत सिंह जी की 73वीं जयंती पर विशेष बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  18. बहुत खूब, भावपूर्ण रचना

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  19. बेहतरीन शब्द सामर्थ्य है आपकी ! बधाई !!

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  20. अति सुंदर...क्या बात है...

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  21. आपको पढना और आपके अलग अलग अंदाज़ को पढना बहुत भाता है हमें । कमाल , धमाल

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  22. अति सुन्दर विचार। सौ प्रतिशत सही।

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  23. सुन्दर रचना

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  24. बाहर कितना बदले , भीतर भी चलना जरुरी !

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  25. सार्थकता का इतना सजीव सहज चित्रण मन को छु गया

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  26. 8.2.14

    सब और हम
    धूल उड़ रही,
    हम पकड़े निर्मलतम झण्डा।

    ऊष्मा बढ़ती,
    किये रहे मन विधिवत ठंडा।

    गहरी चालें,
    सज्जन मन का ठूँठा डंडा।

    आदर्शों का खूँटा गाड़े,
    देखें नित हम आँखें फाड़े,
    शुचिता हाहाकार मचाती,
    संचित आग्रह तजती जाती।

    सार्थक संकल्प विमर्श परामर्श सुन्दर रचना। आभार हमें हलचल में लाने के लिए।

    सुन्दर भाव और अर्थ बद्ध सार्थक भावउद्वेलन है इस रचना में।

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  27. बहुत खूब भाव, प्रवीण जी।

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  28. आदर्शों का खूँटा गाड़े,
    देखें नित हम आँखें फाड़े,
    शुचिता हाहाकार मचाती,
    संचित आग्रह तजती जाती..
    कई बार कर्म न करनी आदर्शों के आड़ में आसां हो जाता है ... पर क्यों ये समझना मुश्किल है ...
    भावप्रधान ... उद्वेलित करती रचना ...

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  29. शुक्रिया ज़नाब की निरंतर प्रेरक टिप्पणियों का

    आदर्शों का खूँटा गाड़े,
    देखें नित हम आँखें फाड़े,
    शुचिता हाहाकार मचाती,
    संचित आग्रह तजती जाती।

    शान्ति शक्ति देती है हमको,
    सुखद, व्यवस्था से पालित जो,
    हर घर्षण शंकित कर जाता,
    गति में आकर्षण रुक जाता।

    हर दिन थोड़ा थोड़ा रिसता,
    धैर्य धरे मन अब किस किसका,
    परिवर्तन कैसा, यह भय है,
    आगन्तुक, भीषण संशय है।

    कविता आपकी नित ऊंची परवाज़ भर रही है भाव और अर्थ दोनों में छंद ताल में।

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  30. जीवन का ऊहापोह |

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