30.3.13

मेरा परिचय

आज से पहले अपना इतना विस्तृत परिचय किसी को नहीं दिया है। रश्मि प्रभाजी का आदेश आया तो सोच में पड़ गया, उन्हें कुछ कविताओं के साथ मेरा परिचय व चित्र चाहिये था। किसी भी लेखक को लग सकता है कि उनका लेखन ही उनकी अभिव्यक्ति है, वही उनका परिचय है। सच है भी क्योंकि लेखन में उतरी विचार प्रक्रिया व्यक्तित्व का ही तो अनुनाद होती है। जो शब्दों में बहता है वह लेखक के व्यक्तित्व से ही तो पिघल कर निकलता है। यद्यपि मैं लेखक होने का दम्भ नहीं भर सकता, पर प्रयास तो यही करता रहता हूँ कि जो कहूँ वह तथ्य से अधिक व्यक्तित्व का प्रक्षेपण हो। यदि व्यक्तित्व पूरा न उभरे तो कम से कम उसका आभास या सारांश तो बता सके।

फिर लगा कि लेखन के अतिरिक्त कुछ और भी तथ्य हैं जो परिचय के आधारभूत स्तम्भ होते हैं। महादेवी वर्मा का परिचय माने तो हृदय विदीर्ण करने वाली पंक्तियाँ याद आ जाती हैं, मैं नीर भरी दुख की बदली, परिचय इतना इतिहास यही, उमड़ी कल थी, मिट आज चली। मिटना हम सबको है, परिचय संक्षिप्त दें तो बहुत कुछ इसी तरह का भाव निकलेगा, कुछ के लिये भले दुख इतना संघनित न हो। फिर भी वर्षों के विस्तृत समय काल में कुछ ऐसी बातें निकल आती हैं जिन्हें आप महत्वपूर्ण मानते हैं और उनका आधार बनाकर अपने परिचय का संसार गढ़ना चाहते हैं। इसी को मानक मान कर जितना संभव हो सका, स्वयं को स्वरचित शब्दों के दर्पण में देखने का प्रयास करता हूँ।

जब परिचय लिखने का सोचता हूँ तो सोच में पड़ जाता हूँ कि क्या लिखूँ और क्या छोड़ दूँ। एक अजब सी दुविधा आ जाती है। न जाने कितनी उपाधियाँ जुड़ी हैं, इस शरीर के साथ, कुछ जन्म से, कुछ परिवेश से, कुछ क्षेत्र से, कुछ परिवार से, कुछ धर्म से। थोड़ा और बढ़े तो संस्कृति की छाँह मिली, संस्कारों की श्रंखला मिली, परिचय में मढ़ता गया, जीवन में तनिक और गढ़ता गया। युवावस्था में लगा कि आगत परिचय अनिश्चितता से परिभाषित है, न जाने कितनी उमंगें थीं, न जाने कितनी ऊर्जा थी, क्या न कर जायें, क्या न बन जायें? शिक्षा पूरी हुयी, नौकरी और फिर विवाह। परिवार बढ़ा, अनुभव के नये पक्ष उद्घाटित हुये, स्थिरता आयी और धीरे धीरे परिचय का विस्तार ठहर गया। जहाँ हर वर्ष परिचय बदलता था, हर वर्ष उपाधि मिलती थी, अब वर्ष क्रियाहीन निकलने लगे। प्रौढ़ता की स्थिरता परिचय की स्थिरता बन गयी, अब कुछ ठहरा ठहरा सा लगता है।

इसी प्रकार न जाने कितनी घटनायें जुड़ी हैं, न जाने कितने और व्यक्तित्व जुड़े हैं, जिन्होनें जीवन पर स्पष्ट प्रभाव छोड़ा है। किसको याद रखूँ, किसको गौड़ मानू, समझ नहीं आता। किसको परिचय का अंग बनाऊँ, किसे छोड़ दूँ, समझ नहीं आता। द्वन्द्व भरा व्यक्तित्व है, मन में दो विरोधी विचार साथ साथ सहज भाव से रह लेते हैं, किसको अपना मानकर कह दूँ और किससे नाता तोड़ दूँ? या दोनों बताने का साहस हो तो कौन सा पक्ष पहले बताऊँ? इसी पशोपेश में कुछ न बताऊँ तो भी न चल पायेगा। कुछ सामाजिक तथ्य बता देता हूँ, मन खोलने बैठूँगा तो यात्रा अन्तहीन हो जायेगी।

जन्म सन १९७२ हमीरपुर उप्र में, पिछड़ा क्षेत्र, पर परिवार में शिक्षा के महत्व पर किसी को संदेह नहीं रहा। अच्छे विद्यालय के आभाव में कक्षा ६ से कानपुर आकर छात्रावास में रह कर पढ़ाई की। छात्रावास ने स्वतन्त्र चिन्तन और निर्भयता का अमूल्य उपहार दिया। आईआईटी कानपुर से १९९३ में बी टेक, मैकेनिकल इन्जीनियरिंग से। साल भर की नौकरी, तत्पश्चात १९९६ में आईआईटी कानपुर से ही एम टेक। १९९६ में सिविल सेवा में चयन, रेलवे की यातायात सेवा में। पिछले १७ वर्षों की आनन्दभरी यात्रा में पूरा देशभ्रमण हो चुका है, बस पश्चिमी भारत छूटा है। रेलवे की कार्यप्रणाली ने लगन और सक्षमता के न जाने कितने ही अध्याय सिखाये हैं, अभिभूत हूँ।

१९८५ में पहली कविता, एक वर्ष बाद ही पहला नाटक जो कि व्यवस्था के विरुद्ध होने के कारण चोरी चला गया, सृजन का यूँ चोरी हो जाना अभी भी मन में दुखद स्मृति के रूप में विद्यमान है। उसके पश्चात सृजन मन्थर, निरुत्साहित और मदमय रहा। रेल यात्रा और रेल सेवा, व्यक्तित्वों व समाज के अनगिन अध्यायों से परिचय करा गयी। उन अनुभवों को पुनः खो देने का भय मन मे सदा ही गहराता रहा, एक गहरी सी ललक सदा ही बनी रही, उन्हें लिपिबद्ध कर देने की। विद्यालय से विरासत में प्राप्त हिन्दी प्रेम और निपुणता, पुस्तकों से आत्मीयता और अनुभवों की लम्बी डोर, सबने बहुत उकसाया, लिखने के लिये। ब्लॉग के रूप में एक माध्यम मिला और जिसने पुनः प्रेरित किया, स्थिर किया और अब लगभग चपेट में ले लिया है, निकलना असम्भव है। लिखता गया, दृष्टि और गहराती गयी, निकलना चाहूँ भी, तो मेरे ब्लॉग का शीर्षक ही मुझे रोक लेता है।

तकनीक से अगाध व अबाध प्रेम है, उसे सामाजिक निर्वाण का साधन मानता हूँ मैं। पर मेरी तकनीक जटिल दिशा में कभी नहीं जा पाती है। जब भी मेरी तकनीक की दिशा भटक जाती है, मैं उसे वहीं छोड़कर स्वयं में सिमट जाता हूँ, नयी दिशा खोजता हूँ। मेरी तकनीक पुराने सन्तों के अपरिग्रह के मार्ग से अनुप्राणित है, जो भी आवश्यकता से अधिक है, वह भार है, उसे हम व्यर्थ ही ढो रहे हैं, वह त्याज्य है। संग्रहण न्यून हो पर सर्वश्रेष्ठ हो, उसे पाने में सतत प्रयासरत। प्रयोगधर्मिता के प्रति यही ललक मन में बालमना ऊर्जा बनाये रखती है।

जहाँ जीवन का अग्रछोर तकनीक ने सम्हाला है, वहीं पार्श्व में वह संस्कृति के सिद्धान्तों के सशक्त स्तम्भों पर टिकी है। मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर बड़े स्पष्ट दिखते हैं यहाँ। उस पर अपार श्रद्धा जीवन का सर्वाधिक प्रवाहमय स्रोत है मेरे लिये, ऊर्जा का, सृजनता का, दर्शन का। जब भी मन भरमाता है, वहीं से सहारा आता है। प्राचीन और नवीन के बीच यह साम्य सदा ही बना रहेगा, परिचय का सुदृढ़ अंग बना रहेगा।

परिवार केन्द्रित सामाजिक जीवन भाता है और कार्यालय के बाद का पूरा समय घर पर ही देता हूँ। बच्चों के साथ बतियाने का आनन्द रूखी पार्टियों से कहीं अधिक है मेरे लिये। उन्हें आजकल सिखा कम रहा हूँ, उनके द्वारा सिखाया अधिक जा रहा हूँ। वात्सल्य का यह निर्झर भला कौन छोड़कर जा सकता है। यदा कदा खेलकूद और संगीत पर भी अभिरुचि बनी रहती है, आलस्य गति कम करता है पर जब भी अवसर मिलता है, शरीर और मन ऊर्जान्वित बनाये रखता हूँ।

पता नहीं, परिचय के जिन पक्षों पर केन्द्रित करना था, वे कहीं अनुत्तरित तो नहीं रह गये हैं? आत्ममुग्धता और आत्मप्रशंसा के आक्षेप का कड़वा घूँट पीकर ही आत्मपरिचय लिखने बैठा हूँ। मन की कह देने से न केवल मन हल्का हो जाता है वरन निश्चय कुछ और गहरा जाते हैं, परिचय स्वयं से भी हो जाता है।

27.3.13

युक्तं मधुरं, मुक्तं मधुरं

होली की पदचाप सारी प्रकृति को मदमत कर देती है। टेसू के फूल अपने चटक रंगों से आगत का मन्तव्य स्पष्ट कर देते हैं। कृषिवर्ष का अन्तिम माह, धन धान्य से भरा समाज का मन, सबके पास समय, समय आनन्द में डूब जाने का, समय संबंधों को रंग में रंग देने का, समय समाज में शीत गयी ऊर्जा को पुनर्जीवित करने का। नव की पदचाप है होली, रव की पदचाप है होली, शान्तमना हो कौन रहना चाहता है।

मन के भावों को यदि कोई व्यक्त कर सकता है तो वे हैं रंग, मन को अनुशासन नहीं भाता, मन को कहीं बँधना नहीं भाता, मन शान्त नहीं बैठ पाता है। मन की विचार प्रक्रिया से हमारा संपर्क 'हाँ या नहीं' से ही रहता है, हमारे लिये मन का रंग श्वेत या श्याम होना चाहिये। पर ध्यान से देखा जाये तो वह रुक्षता हमारी है, हम ही कोई विचार आने पर हाँ या ना चुनते हैं। मन तो हमारे श्वेत-श्याम स्वभाव को भी जीवन्त रखता है, उसमें भावों के रंग भरता है। हमारे श्वेत-श्याम स्वभाव में उत्साह के रंग भरने का कार्य मन ही करता है। होली हमारे मन का उत्सव है।

मन में वर्ष भर सहेजे अनुशासित भाव यह अवसर पाकर भाग खड़े होना चाहते हैं, बिना किसी संकोच के स्वयं को व्यक्त कर देना चाहते हैं। कोई इसे कुंठा की अभिव्यक्ति का अवसर कह दे, कोई अन्तर्निहित उन्मुक्तता को प्रकट कर देने का अवसर कह दे या कोई इसे अधीरों का उत्सव कह दे, पर पूरे वर्ष में मन को उसकी तरंग में जीने का यही एक समय आता है। प्रत्येक होली याद है, दिन भर उत्साह और उमंग में होली का ऊधम और रात में निढाल होकर बुद्ध भाव में शयन, खुलकर जीने का एक दिन, कोई बन्धन नहीं, कोई रोकटोक नहीं, मन का निरुपण, ऊर्जा और रंग के संमिश्रण में। होली इसी रंग भरे और ऊर्जा भरे स्वातन्त्र्य का उत्सव है।

जीवन में अमृततत्व की अनुभूति तभी होती है, जब मन प्रसन्न होता है। सुख को खोज में भटकता और व्यथित होता जीवन जब अपनी खोज त्याग कर एक दिन सुस्ताना चाहता है, तो उसे वर्तमान में जीने का सुख मिलता है, भविष्य की आशंकाओं से परे। जिस क्षण उत्सव मनता है उस समय सुख के संधान को स्थगित कर दिया जाता है, वह सुख के संग्रह को लुटाने का समय होता है। जब सुख लुटता है तभी औरों को सुख मिलता है, आपका सुख संक्रमण फैलाता है। संक्रमण भी ऐसा कि उस दिन कोई कृपणता में नहीं जीना चाहता है। जब लुटाने की होड़ मची हो तो आनन्द अनन्त हो जाता है। होली सुख के संक्रमण का उत्सव है।

जब मन निर्बन्ध हो व्यक्त हो जाये और अनन्त में मुक्त हो विचरण करने लगे तो सुख के स्रोत याद आने लगते हैं हृदय को। वह स्रोत जहाँ आनन्द निर्बाध बहता हो, वह स्रोत जहाँ सब घट प्लावित हो जायें, कोई न छूटा वापस जाये। मुझे मेरा कान्हा याद आता है, वह कान्हा जो हर गोप गोपी को यह भाव देता हो कि उसका प्रेम केवल उसके ही लिये है और पूर्ण है। मुझे ब्रज के गाँव याद आने लगते हैं, जहाँ की गलियों में कान्हा हाथों में रंग भरे ऊधम मचा रहा है, सबके आनन्द का स्रोत। हर कोई कान्हा को छूकर ही आनन्द सागर में डुबकियाँ लगाने लगता हो। कान्हा का टोली के साथ गाँव गाँव जाना याद आता है, बरसाना की लाठी खाना याद आता है, वृन्दावनों के मंदिरों में की गई पुष्पवर्षा याद आती है, गुलाब से सुगंधित पानी की बौछार याद आती है। आनन्द के उद्गार में कान्हा की लीलायें याद आती हैं, ब्रजक्षेत्र में व्याप्त उन्माद की उन्मुक्त तरंगें याद आती हैं। होली कान्हा की स्मृति का उत्सव है।

कान्हा की स्मृति बलशाली है, बलपूर्वक मन को खींच ले जाती है, बचपन से लेकर युद्धक्षेत्र तक के सारे दृश्य सामने आने लगते हैं। कान्हा को कान्हा ही कहना भाता है, कृष्ण कह भर देने से उसमें उपस्थित कृष् धातु मन खींच ले जाती है, शिथिल पड़ जाता हूँ, दूर भाग जाने की बल समाप्त हो जाता है। जानता हूँ कि वह त्रिभंगी कहीं खड़ा मुस्करा रहा होगा, अपने नाम का प्रभाव देख रहा होगा। मन के ऊपर कृत्रिम आवरण हट जाता है, कृष्ण का श्याम रूप बादल सा चहुँ ओर छा जाता है, बाँसुरी धीरे धीरे बजने लगती है, राग यमनकल्याण, व्यासतीर्थ की स्तुति याद आने लगती है, कृष्णा नी बेगने बारो, कृष्ण को वहाँ उपस्थित हो जाने की प्रार्थना मन विह्वल कर देती है। होली मेरे लिये कान्हा के आकर्षण में विह्वल हो जाने का उत्सव है।

आनन्द अनन्त हो जाये तो जगत का कार्य समाप्त कर प्रकृति कहीं विश्राम करने चली जायेगी। तनिक सा स्वाद भर मिलता है, हर स्मृति में। मन जब भी विह्वल हो बाहर आता है, अपने होने की टोह लगती है, अहं स्वयं को स्थापित करने में लग जाता है। मन स्वयं को ब्रह्म मानने लगता है, मु्क्ति पा अपना स्वरूप खो जाना चाहता है, अनन्त में विलीन हो जाना चाहता है। न श्वेत, न श्याम, न कोई रंग, सब त्याग बस एक ज्योतिपुंज में समा जाओ। भय लगता है, मन बाहर भाग आता है। आनन्द की चाह थी, लघु ईश्वर बन प्रकृति को भोग रहे मन को न भक्ति रुचती है, न ही मुक्ति, दोनों में ही समर्पण दिखता है। मूढ़ सा अनुभव होने लगता है, मति भ्रमित हो जाती है। तभी सहसा शंकराचार्य का आदेश याद आता है, भज गोविन्दम् मूढ़मते। मन भजने लगता है, गोविन्द को, जो मन समेत सारी इन्द्रियों का रक्षक भी है। मन प्रसन्न होने लगता है, आकर्षण स्वीकार होने लगता है, विराग अनुराग बन जाता है। होली मेरे लिये अपने अनुराग में बस जाने का उत्सव है।

कृष्ण के विग्रह को देखता हूँ, मुख देखता हूँ, मोरपत्र देखता हूँ, पीत बसन देखता हूँ, बाँसुरी देखता हूँ, चरण देखता हूँ, आँख बन्द कर उसे मन में समेट लेने के लिये, बलशाली मन अपनी सामर्थ्य की सीमा बता देता है, आगे नहीं जा पाता। वल्लभाचार्य के मधुराष्टक का पाठ पार्श्व में गूँजने लगता है, अधरं मधुरं, वदनं मधुरं…मधुराधिपतेः अखिलं मधुरम्। एक एक आश्रय पर मन स्थिर होता जाता है, एक एक दृश्य मधुरता को परिभाषित कर देता है, हर साँस में आनन्द उमड़ने लगता है, सुख अपनी सीमायें तोड़ न जाने कहाँ उतर जाना चाहता है, पूर्णमिदं, मधुरं, हर पग मधुरं। मधुरता की यात्रा सहसा ठिठक जाती है, अर्थ समझ नहीं आता। युक्तं मधुरं, मुक्तं मधुरं, कृष्ण गोपियों के साथ भी मधुर है, उनसे अलग भी मधुर हैं। आश्चर्य होता है, कान्हा इतना निष्ठुर, गोपियों के बिना भी मधुर, प्रेम के सागर को प्रेम व्यापा ही नहीं! होली मेरे लिये असीम की उपासना का उत्सव है।

विचार ध्यानमग्न हो बाहर आते हैं, संकेत पाते हैं, स्वप्न से संकेत, सत्य का संकेत। युक्त भी मधुर, मुक्त भी मधुर, रंगों की तरह, स्वयं में सुन्दर और चढ़ जाये तो भी सुन्दर। हर रंग सक्षम, हर मात्रा सक्षम, हर आकार सक्षम, हर आधार सक्षम। रंगों के माध्यम से अपना प्रेमपूरित अस्तित्व और सार्थकता जीने का उत्सव है होली।

23.3.13

चलो, ज्ञान लूट आयें

शिक्षा जब सुविधाभोगी हो जाये और बड़े नगरों से बाहर न निकलना चाहे, तब सब क्या करेंगे? वही करेंगे जो हममें से बहुत लोग करते आये है। हम भी बड़े नगर पहुँच जायेंगे, वहीं रहेंगे, वहीं पढ़ेंगे और नौकरी लेकर आसपास ही बस जायेंगे। थोड़े सम्पन्न लोग तो बस अपने बच्चों की अच्छी पढ़ाई के लिये नगर में आ बसते हैं। अध्यापकों को भी सुविधा हो जाती है, वहीं पढ़ा लेते हैं, ट्यूशन देते हैं और जीवन बिता देते हैं। यही प्रक्रिया कई दशक चली होगी और आज स्थिति यह है कि किसी भी राज्य में एक या दो नगर ही शिक्षा के केन्द्र बन गये हैं, शेष स्थानों पर शैक्षणिक सूखा पड़ा है। विकास की तरह ही शिक्षा भी सुविधा में बैठी हुयी है।

इस तथ्य से मेरा कोई व्यक्तिगत झगड़ा नहीं है। हो भी क्यों, हम भी शिक्षा के इसी सुविधापूर्ण मार्ग से आये हैं। अच्छी बात तो यह है कि हर राज्य में कम से कम दो नगर तो ऐसे हैं, ज़ीरो बटे सन्नाटा तो नहीं है। समस्या पर यह है कि इन शैक्षणिक नगरों के अतिरिक्त भी देश का विस्तार है। सब नगर की ओर पलायन नहीं कर सकते हैं, कई कारण रहते है जो शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण हैं। हर छोटे स्थान पर सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय हैं, कुछ ग़ैर सरकारी भी हैं। शिक्षक भी हैं, पर सदा ही इस जुगत में रहते हैं कि विकास के आसपास ही रहा जाये, वहाँ संभावनायें अधिक रहती हैं। कुल मिला कर कहा जाये विद्यालय होने पर भी स्तर अच्छा नहीं है, शिक्षक होने पर भी पूरो मनोयोग से अध्यापन नहीं होता है।

समस्या गहरी तो है पर स्पष्ट है। यदि कुछ अस्पष्ट है तो वह है छात्रों का भविष्य और समस्या का हल।अध्यापकों का महत्व बहुत गहरा होता है हमारे भविष्य पथ पर। बहुधा देखा गया है कि जिस विषय के समर्पित अध्यापक मिल जाते हैं, उस विषय के प्रति एक नैसर्गिक आकर्षण उत्पन्न हो जाता है और वही विषय साथ बना रहता है, प्रतियोगी परीक्षाओं में भी। शिक्षा के प्रति घोर अनिक्षा विद्यालय के वातावरण पर निर्भर करती है। कभी कभी विषय विशेष के प्रति घोर वितृष्णा का भाव उस विषय से संबद्ध अध्यापक व पाठन शैली से आता है। कई बार लगता है कि यदि वह विषय अच्छे से पढाया गया होता तो संभवतः उसमें भी अच्छा किया जा सकता था।

आज भी आप अपने चारों ओर गिनती कर के देख लें, हर १०० सफल व्यक्तियों में अधिकांश छोटे और मध्यम नगरों से ही होंगे, हो सकता है कि कुछ वर्षों के लिये वे शैक्षणिक नगरों में भी रहे हों। जो विशेष बात उन सब में उपस्थित होगी, वह है कोई न कोई ऐसा व्यक्ति जिसने शिक्षा के प्रति न केवल प्रोत्साहित किया वरन जिज्ञासा को सतत जलाये रखा। वह व्यक्ति अध्यापक के रूप में हो सकता है, अभिभावक के रूप में हो सकता है, शुभचिन्तक के रूप में हो सकता है। पर यह तथ्य भी उतना ही सच है कि छोटे नगर में जो पौधे पनप नहीं पाये, उसके पीछे शिक्षा व्यवस्था का निर्मम उपहास छिपा है, चाहे वह विद्यालय में न्यूनतम सुविधाओं का आभाव हो या अध्यापकों की अन्यमनस्कता।

क्या इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षा और विकास के केन्द्रीकरण में छोटे नगरों और दूरस्थ गाँवों का भविष्य शून्य है? हमारे और आपके मन में निराशा के भाव जग सकते हैं, पर सुगाता मित्रा जी इससे सहमत नहीं हैं। सुगाता मित्रा जी पिछले १४ वर्षों से शिक्षा में नये प्रयोग करने के लिये जाने जाते हैं और उन्हें वर्ष २०१२ के लिये टेड की ओर से सर्वश्रेष्ठ वार्ता का पुरस्कार भी मिला है। शिक्षाविद होते हुये भी बड़ी ही सरलता से प्रयोगों में माध्यम से निष्कर्षों पर पहुँचना और उसे उतनी ही सहजता से प्रस्तुत कर देना, यह उनके हस्ताक्षर हैं।

१९९९ में उनकी प्रयोगधर्मिता प्रारम्भ हुयी, यह समझने के लिये कि जहाँ पर अध्यापक नहीं हैं, क्या वहाँ पर भी शिक्षा पैर पसार सकती है। विकास की धार को छोटे नगरों की ओर मोड़ना एक महत कार्य है और कई दशकों की योजना और क्रियान्वयन के बाद ही वह संभव है। तो क्या अध्यापकों के बिना भी ज्ञानयज्ञ चल सकता है? यदि हाँ तो उसका स्वरूप क्या होगा? ऐसे ही एक क्षेत्र में उनके द्वारा किया गया पहला प्रयोग बड़ा ही सफल रहा।

प्रयोग बड़ा ही सरल था, नाम था 'होल इन द वाल'। खिड़की पर एक कम्प्यूटर, माउस के स्थान पर एक छोटा सा ट्रैक पैड, सतत बिजली व इण्टरनेट। कोई अध्यापक नहीं, कोई रोकने वाला नहीं, कोई टोकने वाला नहीं, जिसको सीखना हो कभी भी आकर सीख सकता है। दो माह बाद बच्चों की योग्यता पुनः परखी जाती है, उनके अन्दर आयी प्रगति लगभग उतनी ही होती है जितनी किसी अच्छे विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे की। सुगाता मित्रा जी का उत्साह तनिक और बढ़ा, प्रयोग का क्षेत्र भाषा सीखने के लिये रखा और वह भी तमिलनाडु के धुर ग्रामीण परिवेश में। न केवल बच्चे अंग्रेजी सीख गये, वरन अंग्रेजों से अधिक अंग्रेजियत की शैली में सीख गये। यही नहीं बायोटेकनोलॉजी जैसे दुरुह विषय पर भी बिना किसी वाह्य सहायता के कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त कर लिया बच्चों ने। बच्चों ने स्वयं ही वह सब कर दिखाया जिसका पूरा श्रेय हम शिक्षा व्यवस्था को दे बैठते हैं।

ज्ञान कहाँ से आया, जिज्ञासा से, स्रोत से, समूह में आदान-प्रदान से, देखकर सीखने से। निश्चय ही सारे के सारे कारक रहे होंगे और साथ में उन्मुक्त वातावरण भी रहा होगा, जहाँ कोई परीक्षा का भय नहीं, नौकरी पाने की विवशता नहीं, कोई प्रत्याशा नहीं, कोई शुल्क नहीं, बस ज्ञान बिखरा पड़ा है, जितना लूट सको लूट लो।

तो क्या अध्यापक की आवश्यकता ही नहीं है? सुगाता मित्रा जी किसी प्रसिद्ध लेखक का उद्धरण देते हैं, कि यदि कोई अध्यापक मशीन से विस्थापित हो सकता है तो उसे हो जाना चाहिये। बड़े गहरे अर्थ हैं इस वाक्य के। उसे तनिक ठिठक कर समझना होगा। ज्ञान सहज उपलब्ध हो, बच्चे में जिज्ञासा हो, तो ज्ञानार्जन बड़ा ही सरल है। सामाजिक परिवेश में देखें तो न जाने कितना कुछ बच्चा देखकर ही सीखता है। जो वह जानना चाहता है, गूगल पर देखकर खोज ही लेगा। तब अध्यापक का क्या कार्य है और वह कहाँ से प्रारम्भ होता है और उसकी अनुपस्थिति में वह कार्य कोई और कर सकता है?

प्रयोग जितने प्रभावी हैं, निष्कर्ष उतने ही स्पष्ट। पहला, जहाँ पर अध्यापक नहीं भी हैं, वहाँ भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है, इस प्रकार की व्यवस्था से ज्ञान का प्रवाह अबाधित चल सकता है। दूसरा, अध्यापक के आभाव में गाँव का कोई बड़ा और समझदार व्यक्ति जिज्ञासा, उत्साह और सामूहिक भागीदारी का वातावरण बनाकर ज्ञानार्जन की प्रक्रिया बनाये रख सकता है। तीसरा, माना ज्ञानार्जन का कार्य बिना अध्यापक चल सकता है, पर जो दिशादर्शन और नये क्षेत्रों को बच्चों से परिचित कराने का कार्य है, उस विमा को हर अध्यापक को बनाये रखना है। ज्ञान की तृष्णा अपने लिये माध्यमों के बादल ढूढ़ ही लेगी, अध्यापक को तो स्वाती नक्षत्र की बूँद बनकर अपनी महत्ता बनाये रखनी होगी।

तो भले ही विकास के शैक्षणिक विस्तार में हमारा क्षेत्र न आता हो, पर हमें सीखने से कोई नहीं रोक पायेगा, देर सबेर कोई सिखाने वाला आ जायेगा, 'होल इन द वाल' के रूप में।

20.3.13

गूगलम् - इदं न मम्

पिछला सप्ताह गूगल के नाम रहा। वैसे तो गूगल का मान कम न था हमारे जीवन में, कई रूपों में उपयोग करते हैं और आगे भी संभवतः करते ही रहेंगे। जीमेल, रीडर और ब्लॉगर, इन तीनों उत्पाद के सहारे इण्टरनेट के समाचार रखते हैं और जितनी संभव हो, उपस्थिति भी बनाये रखते हैं। सब सहज ही चल रहा था, जीवन अपनी लय में मगन था, पर पिछले सप्ताह के घटनाक्रम ने पहली बार इस बात का बलात अनुभव कराया है कि गूगल कितना प्रभाव रखता है, हम सबके जीवन में। यदि गूगल तनिक व्यवसायीमना हो जाये तो हम सबकी क्या दुर्गति हो सकती है, इसकी अनुभूति पहली बार ही हुयी।

एक दिन सुबह उठा तो देखा कि गूगल रीडर में एक सूचना थी कि १ जुलाई २०१३ से गूगल रीडर की सेवायें बन्द हो जायेंगी। मन धक से रह गया, दो विचार आये, पहला कि अब मेरा क्या होगा और दूसरा कि गूगल ने ऐसा क्यों किया? गूगल के बारे में तो बाद में भी सोचा जा सकता था, पर अपने लगभग ६०० से भी अधिक फीड्स की चिन्ता होने लगी कि अब कैसे पढ़ने को मिलेगा ब्लॉगजगत का लेखन। जितने भी ब्लॉगों पर टिप्पणियाँ करता हूँ और जिन पर नहीं कर पाता हूँ, सारे गूगल रीडर के द्वारा ही पढ़ता हूँ। सुविधानुसार पढने के लिये एक अलग स्थान रहता है। जब समय रहता है, मोबाइल में भी पढ़ कर टिप्पणी दे देता हूँ। साथ ही साथ ईमेल में सब्स्क्राइब न करने से ईमेल भी खाली रहता है। गूगल की इस घोषणा से लगा कि कहीं कुछ ढह रहा है और दोषी गूगलजी हैं। थोड़ा विचार और किया तो पाया कि तथ्य कुछ और ही थे। गूगल की कार्यपद्धति तनिक स्पष्ट रूप से समझनी होगी और वे तथ्य भी जानने होंगे जिसके कारण ये सेवायें बन्द हो रही हैं।

जब गूगल ने अक्टूबर १२ में फीडबर्नर की एपीआई बन्द कर दी तो उससे संबंधित गूगर रीडर में होने वाले प्रचार भी बन्द हो गये थे। उसके पहले गूगल रीडर की हर फीड के पहले या बाद में विषय से संबंधित कोई न कोई प्रचार रहता था। प्रचार से होने वाली आय ही गूगल रीडर को जीवित रखे थी। ५ माह पहले प्रचार बन्द हो गये तो संकेत मिल गया था कि अब गूगल रीडर भी बन्द होने वाला है। प्रचार का व्यवधान भले ही हमारा ध्यान बँटाता है पर वही रीडर का प्राण भी था। संभवतः गूगल रीडर के लिये वह मॉडल आर्थिक रूप से हानिप्रद हो, पर गूगल खोज, जीमेल, यूट्यूब और ब्लॉगर में होने वाले प्रचार ही गूगल की आय को साधन हैं। प्रचार उद्योग में माध्यम की पहुँच और उपभोक्ता से संबंधित जानकारी सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है और दोनों ही गूगल के पास अधिकतम मात्रा में है भी।

तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि जितनी भी निशुल्क सेवायें चल रही हैं, उनका भी अन्त गूगलरीडर की तरह हो सकता है। पाठक वर्ग के लिये ब्लॉगर और जीमेल ही मुख्य सेवायें हैं और उन पर विचार आवश्यक है। इस तथ्य को समझना होगा कि गूगल परमार्थ में तो कार्य कर नहीं रहा है, उसका पूरा आधार सीधे प्रचार के आर्थिक पक्ष पर टिका है या उन उपभोक्ता संबंधी सूचनाओं पर टिका है जो आपने निशुल्क सेवा लेते समय गूगल को बता दी है। अब उसे किसी सेवा में उतना प्रचार न मिलता हो या आपके बारे में और आपकी स्पष्ट अभिरुचियों के बारे में सारी सूचनायें उन्हें प्राप्त हो गयी हों तो संभव है कि भविष्य में कोई निशुल्क सेवा समाप्त भी हो जाये। एण्ड्रॉयड और गूगल ग्लास जैसे क्षेत्र, जहाँ पर अधिक धन है और अधिक बौद्धिक क्षमताओं की आवश्यकता है, गूगल के लिये अधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। ऐसे और कई क्षेत्रों का सशक्तीकरण निशुल्क सेवाओं को बन्द करके भी किया जा सकता है।

तो क्या भविष्य है, हम सबके लिये। हमें निशुल्क सेवाओं ने कभी सोचने के लिये बाध्य ही नहीं किया था अब तक। पहले गूगल रीडर के किये जाने वाले कार्यों और उपस्थित विकल्पों को समझ लें। हमें यदि कोई ऐसी साइट या ब्लॉग अच्छा लगता है तो हम चाहते हैं कि उसमें होने वाले बदलाव हमें सूचित किये जायें। यह सूचना या तो ईमेल के माध्यम से पायी जा सकती है या फीड रीडर के माध्यम से। फीडबर्नर जैसी सेवाओं के माध्यम से किसी भी साइट या ब्लॉग में होने वाले बदलाव को जाना जाता है और उन्हें एक जगह एकत्र किया जाता है। ऐसा ही संकलन का कार्य गूगल रीडर कर रहा था, अन्यथा अपने ६०० ब्लॉगों में होने वाले बदलावों के लिये ६०० साइट पर जाकर देखना पड़े तो वह किसी के लिये भी संभव नहीं है।

किसी भी ब्लॉग को इस विधि से पढ़ने के लिये हमें दो सेवाओं की आवश्यकता पड़ती है, फीड का पता लगाने के लिये फीडबर्नर जैसी सेवायें और संकलन कर पढ़ने के लिये गूगल रीडर जैसी सेवायें। याद रहे कि फीडबर्नर भी गूगल के अधिकार में है और बहुत संभव है कि भविष्य में उसकी भी सेवायें बन्द हो जायें। यदि विकल्प ढूढ़ना है तो अभी से ही दोनों का विकल्प ढूढ़ना चाहिये, न कि केवल गूगल रीडर का। जो लोग इस सुविधा में पड़े हैं कि हमारे पास तो ईमेल आ जाता है, उन्हें भी सोचना होगा। संभव है कि भविष्य में कुछ और पैसा बचाने के लिये हर ब्लॉग से संबंधित सैकड़ों निशुल्क ईमेल करने से भी गूगल मना कर दे। तब हम पूर्ण रूप से असहाय होंगे और हिन्दी के विकास के स्वप्न, जो हम बड़ी मात्रा में पाल चुके हैं, उन पर भी व्यवहारिक चिन्तन का समय आ जायेगा। अभी कई अलग प्रतीत होने वाली सेवायें गूगल रीडर के संकलन को ही नये रूप में प्रस्तुत करती आयीं हैं, गूगल रीडर बन्द होने के बाद क्या वे स्वतन्त्र रूप से कार्य कर पायेंगी यह तथ्य भी विकल्पों पर निर्णय लेने के समय उपयोगी होगा।

संभव है कि अभी कोई उपाय मिल जाये जो कुछ वर्ष हमें और खींच ले। प्रवाह रुक जाने का विचार भी पीड़ा में तिक्त होगा, उस पर सोचना भी नहीं है, उत्तर तो निकालने ही होंगे। यह भी हो सकता है कि आने वाली सेवायें सशुल्क भी हो जायें, फिर भी एक निर्भरता तो बनी ही रहेगी गूगल और अन्य तन्त्रों पर। क्यों न हिन्दी के लिये हम एक ऐसा स्थानीय आधार निर्माण करें जो हमारी आवश्यकताओं को निभाने में सक्षम हो, जिसके तले न केवल सारे ब्लॉग आ जायें वरन हिन्दी के और पक्ष भी पल्लवित हों। कविताकोष, गद्यकोष, शब्दकोष आदि के साथ एक विस्तृत आधार मिले। कठिनाईयों में ही संभावनाओं के बीज बसते हैं। प्रयास करें, भले ही उसकी सेवायें सशुल्क हो। भविष्य में धन उतना ही व्यय होगा पर हिन्दी के विकास के लिये हमें कभी औरों का मुँह न ताकना पड़ेगा। सोचिये आप भी, हम भी तीन माह के लिये सोचते हैं। विकल्पों पर प्रयोग कर रहे हैं, निष्कर्ष अवश्य बतायेंगे।

16.3.13

जीने का अधिकार मिला है

एकाकी कक्षों से निर्मित, भीड़ भरा संसार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।

सोचा, मन में प्यार समेटे, बाट जोहते जन होंगे,
मर्यादा में डूबे, समुचित, शिष्ट, शान्त उपक्रम होंगे,
यात्रा में विश्रांत देखकर, मन में संवेदन होगा,
दुविधा को विश्राम पूर्णत, नहीं कहीं कुछ भ्रम होगा,
नहीं हृदय-प्रत्याशा को पर सहज कोई आकार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।१।।

सम्बन्धों के व्यूह-जाल में, द्वार निरन्तर पाये हमने,
घर, समाज फिर देश, मनुजता, मिले सभी जीवन के पथ में,
पर पाया सबकी आँखों में, प्रश्न अधिक, उत्तर कम थे,
जीते आये रिक्त, अकेले, आशान्वित फिर भी हम थे,
प्रस्तुत पट पर प्रश्न प्रतीक्षित, प्रतिध्वनि का विस्तार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।२।।

जिसने जब भी जितना चाहा, पूर्ण कसौटी पर तौला है,
सबने अपनी राय प्रकट की, जो चाहा, जैसे बोला है,
संस्कारकृत सुहृद भाव का, जब चाहा, अनुदान लिया,
पृथक भाव को पर समाज ने, किञ्चित ही सम्मान दिया,
पहले निर्मम चोटें खायीं, फिर ममता-उपकार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।३।।

जीवन का आकार बिखरता, जीवन के गलियारों में,
सहजीवन की प्रखर-प्रेरणा, जकड़ गयी अधिकारों में,
परकर्मों की नींव, स्वयं को स्थापित करता हर जन,
लक्ष्यों की अनुप्राप्ति, जुटाते रहते हैं अनुचित साधन,
जाने-पहचाने गलियारे, किन्तु बन्द हर द्वार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।४।। 



13.3.13

नेटवर्क टैक्स

कई बार ऐसा हुआ है ट्रेन यात्रा के समय रात में सोया और सुबह उठने पर पाया कि मोबाइल में १५% बैटरी कम हो गयी। कोई फ़ोन नहीं, कोई इण्टरनेट नहीं, तब कौन सा टैक्स लग गया? थोड़ा शोध किया तो पता चला कि यह नेटवर्क टैक्स है, आपका बिल नहीं खाता है, बस बैटरी खाता है।

कुछ दिनों बाद सामान्य ज्ञान के प्रश्न कुछ इस तरह से हुआ करेंगे। माना कि १००० किमी की यात्रा में २०० किमी में नेटवर्क नहीं है। पहले मार्ग में २०० किमी की यह दूरी २० किमी के १० हिस्सों में बंटी है। दूसरे मार्ग में २०० किमी की यह दूरी एक साथ है। किस मार्ग में जाने से आपकी बैटरी अधिक कम होगी और क्यों? उत्तर कठिन नहीं है, पहले मार्ग में बैटरी का क्षय दूसरे मार्ग से कहीं अधिक होगा।

क्यों का उत्तर भी समझाया जा सकता है, पर उसके लिये मोबाइल की सामान्य कार्यप्रणाली समझनी होगी। मोबाइल के अन्दर एक चिप होती है, जिसका कार्य बैटरी की ऊर्जा को रेडियो सिग्नल में बदलना होता है, रेडियो सिग्नल के माध्यम से हम नेटवर्क से संपर्क साध पाते हैं। यही चिप जिसे हम पॉवर एम्पलीफायर भी कहते हैं, मोबाइल की ६५% तक ऊर्जा खा जाती है। यदि नेटवर्क से संपर्क बना रहता है तो थोड़ी कम ऊर्जा लगती है, यदि नेटवर्क ढूँढना हो तो यही ऊर्जा और अधिक व्यय हो जाती है। यही नहीं, नेटवर्क न मिलने की दशा में पुनः खोज प्रारम्भ हो जाती है और तब तक चलती है जब तक वह मिल न जाये। कई अच्छी तकनीक वाले फ़ोन इस नेटवर्क बाधा से परिचित होते हैं और लगभग ३० मिनट बाद प्रयास करना बन्द कर देते हैं और अगले प्रयास के पहले थोड़ा विश्राम ले लेते हैं। कम समझदार मोबाइल जूझे रहते हैं और बैटरी गँवा कर गर्म होते रहते हैं।

२०० किमी में जब १० बार यह नेटवर्क बाधा आयेगी तो अधिक ऊर्जा व्यय होगी, जबकि केवल एक बार बाधा आने से यही व्यय बहुत कम होगा। ऐसा नहीं है कि नेटवर्क का न होना ही ऊर्जा व्यय करता है। जब भी नेटवर्क की उपस्थिति कम होती है या कहें कि आपको अपने मोबाइल में कम डंडियाँ दिख रही हों, समझ लीजिये कि चिप महोदय बैटरी का ख़ून चूसने में लगे हैं, नेटवर्क से अपना संबंध स्थापित करने के लिये और आपको अधिक डंडियाँ दिखाने के लिये। अधिक सघनता या टॉवर से दूरी के कारण नेटवर्क की क्षमता में आये उतार चढ़ाव आपकी मोबाइल बैटरी को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। संभव है कि दो कम्पनियों के नेटवर्क एक ही तरह के मोबाइल पर भिन्न प्रभाव डालें। एक नगर में भी किसी कम्पनी के टॉवरों को इस तरह से लगाया जाता है कि कम से कम टॉवरों में सारा नगर ढक जाये और बाधित नेटवर्क के स्थान भी न्यूनतम रहें। यदि उसमें कोई कमी रही है तो उसका दण्ड आपकी मोबाइल बैटरी को देना होगा, नेटवर्क टैक्स के रूप में।

फोन का यह नियत टैक्स तो सबको ही देना पड़ेगा। अब जो लोग फ़ेसबुक, ट्विटर आदि के लिये इण्टरनेट का भी उपयोग करते हैं, उनकी बैटरी लगभग दुगनी गति से कम होती है। कुछ और लोग जो बड़े नगरों में हैं और साधारण जीएसएम के स्थान पर २जी या ३जी का उपयोग करते हैं, उनका कार्य और भी तीव्र गति से हो जाता है। उन्हें अधिक डाटा डाउनलोड करने की सुविधा रहती है पर उनकी बैटरी और भी अधिक मात्रा में कम हो जाती है। सिद्धान्त वही है कि जितना तेज भागना हो उतनी तेजी से ऊर्जा बहानी पड़ती है।

आप यदि अतिव्यस्त हैं तो चाहेंगे कि जैसे ही कोई ईमेल हो या फेसबुक स्टेटस आया हो, वह तुरन्त ही आपके मोबाइल पर उपस्थित हो जाये। इस दशा में आप अपना २जी या ३जी नेटवर्क हर समय चालू रखते हैं और आपका संबंधित एप्लीकेशन सदा ही यह पता करने में लगा रहता है कि कोई आगत संदेश तो नहीं है। इस स्थिति में बैटरी अत्यन्त दयनीय हो जाती है, पता नहीं कब समाप्त हो जाये, कभी कभी तो एक दिन भी नहीं। प्रारम्भिक फोनों में एक नोकिया का फोन ऐसा था जो डाटा केवल एप्लीकेशन खोलने पर ही जोड़ता था और शेष समय बन्द रखता था। सारे फोनों में यह सुविधा नहीं है और बहुधा डाटा बहता ही रहता है, न जाने कितने स्रोतों से। एक नये शोध में यह भी बताया गया है कि फ्री में मिलने वाले एप्लीकेशन सर्वाधिक डाटा खाते हैं क्योंकि उसमें आपके मोबाइल से संबंधित जानकारी अपलोड होने की और विविध प्रचार डाउनलोड होने की विवशता होती है। हो सके तो वह अनुप्रयोग खरीद ले, उसमें प्रचार नहीं होगा और वह डाटा और बैटरी पर होने वाले धन के व्यय को भी बचायेगा।

एक बड़ा सीधा सा प्रश्न आ सकता है कि जब इतने पैसे खर्च कर एक स्मार्टफोन लिया है तो क्यों न उसका उपयोग अधिकतम करें। और यदि संसार से हर समय जुड़े रहना है तो इण्टरनेट को सदा ही चालू रखना होगा, थोड़ी बहुत बैटरी जाती है तो जाये। प्रश्न अच्छा है पर यह एक और बड़ा प्रश्न खड़ा करता है, क्या आप चाहते हैं कि आपका मोबाइल हर समय आपकी दिनचर्या या कार्यचर्या में व्यवधान डालता रहे, या आपके अनुसार चले? यदि आप हर समय व्यवधान नहीं चाहते हैं तो दोनों ही ध्येय साधे जा सकते हैं, पहला सदा ही सूचित बने रहने का, दूसरा लम्बी बैटरी समय का। पर उसके लिये एक नियम बनाना पड़ेगा।

अपना डाटा 'पुस' के स्थान पर 'फेच' पर कर लें, कहने का आशय है कि जब भी आप अपना एप्लीकेशन खोलेंगे तभी डाटा बहना प्रारम्भ होगा। हो सकता है यह करने के पश्चात आप दिन में कई बार देखें, पर बीच का जो समय बचेगा उस समय आपका मोबाइल व्यर्थ श्रम करने से बच जायेगा और बैटरी अधिक चलेगी। ऐसा करने भर से बैटरी में २०% तक ही वृद्धि हो जायेगी, न कुछ छूटेगा और व्यवधान भी कम होगा। यदि बैटरी और बचानी हो तो डाटा को पूरी तरह से बन्द कर दें और जब भी एप्लीकेशन देखना हो उसके पहले ही डाटा भी जोड़ें। जब एप्लीकेशन नहीं भी चल रहा होता है तब भी २जी या ३जी को स्थापित किये रहने में बहुत बैटरी खर्च होती है। साथ ही साथ ३जी नेटवर्क पर किया फोन और एसएमएस भी सामान्य की तुलना में कहीं अधिक ऊर्जा खाते हैं। डाटा भी बन्द कर देने से बैटरी का समय लगभग दुगना हो गया। ऐसा नहीं कि कोई कार्य छूट गया हो, बस थोड़ा सा व्यवस्थित भर हो गया। दो या तीन घंटे में समय पाकर एक बार डाटा चालू कर सारे स्टेटस और ईमेल देख लेते थे और फिर अपने कार्य में। थोड़ा धैर्य भर बढ़ गया, सूचना पूरी मिलती रही।

एक बात और, मोबाइल में वाईफाई के माध्यम से इण्टरनेट देखने में नेटवर्क की तुलना में बहुत कम ऊर्जा व्यय होती है और गति अधिक मिलती है सो अलग। यदि आपके पास घर या कार्यालय में वाईफाई की सुविधा है तो उसका उपयोग अवश्य करें। वाईफाई होने पर उसी को नेटवर्क के ऊपर प्राथमिकता मिलती है। यह प्रयोग आईफोन पर किया और पहले की तुलना में लगभग दुगनी बैटरी चलने लगी। पहले एक दिन चलती थी, अब दो दिन से भी अधिक खिंच गयी। हमने नेटवर्क से यथासंभव कम संपर्क रखा हुआ है, केवल कार्यानुसार ३जी चलता है, बैटरी के रूप में हमारा नेटवर्क टैक्स भी कम हो गया है। आप भी प्रयोग कर डालिये।

9.3.13

हम जिये है पूर्ण, छवि व्यापी रहे

मौन क्यों रहता नियन्ता,
क्या जगत का दाह दिखता नहीं उसको?
मूर्ति बन रहती प्रकृति क्यों,
क्या नहीं उत्साह, पालित हो रहे जो?
काल क्यों हतभाग बैठा,
क्या सुखद निष्कर्ष सूझे नहीं जग को?

प्राण का निष्प्राण बहना,
आस का असहाय ढहना,
हार बैठे मध्य में सब,
है नहीं कुछ शेष कहना,

वधिक बनती है अधोगति,
आत्महन्ता, सो गयी मति,
साँस फूला, राह भूला,
क्षुब्ध जीवन ढो रहा क्षति,

बस सशंकित सा श्रवण है
रुक गया अनुनाद क्रम है,
शब्द हो निष्तेज गिरता,
डस रहा जो, अन्ध तम है,

हाथ धर बैठे रहें क्यों,
आज जीवन, नहीं बरसों,
पूर्णता का अर्ध्य अर्पित,
जी सके प्रत्येक दिन यों,

तो नियन्ता को,  प्रकृति को, काल को,
भूत के गौरव, समुन्नत-भाल को,
कहो जाकर, सुनें सब, विधिवत सुनें,
शेष अब भी हैं हृदय में धड़कनें,
है उसी में शक्ति क्षण की, दंश है,
कहो उसमें जूझने का अंश है,

साँस साधे आज आगत साँस को,
दिन सधे दिन विगत से और मास को,
मास साधे और क्रम चलता रहे,
साधने का नियम नित फलता रहे,
व्यक्ति से हो व्यक्ति पूरित, श्रंखला,
भाव के शत-चन्द्र चमके चंचला,

कहो जाकर, मंच अब तैयार हों,
अब चरित्रों में भरे अधिकार हों,
कहो कब तक, पढ़ें हम अनुवाद को,
छद्म सारे अभिनयों का त्याग हो,
सूत्रधारों में छिपे मन के कुटिल,
पारदर्शी हो दिखें संभ्रम जटिल,

दृष्टि में करुणा जगे, आशा जगे,
जहाँ वंचित, धन वहीं बहने लगे,
पूर्ण निश्चित, आंशिक क्यों क्रम रहे,
सूर्य चमके, क्यों तिमिर का भ्रम रहे,
रात आये, किन्तु यह विश्वास हो,
दिन मिलेगा, स्वप्न में भी आस हो,

आ रहा है समय, शत स्वागत उठें,
विगत अनुभव और सब आगत जुटें,
सुखों का संधान क्यों एकल रहे,
कर्मनद प्रत्येक सुख सागर मिले,
रहे अंकित, काल भी साखी रहे,
हम जिये है पूर्ण, छवि व्यापी रहे।



6.3.13

अलग अलग कीबोर्ड

मेरी प्रतीक्षा को निराशा मिली। यद्यपि मैं लगभग डेढ़ वर्ष पहले से ही आईफ़ोन में हिन्दी कीबोर्ड का उपयोग कर रहा हूँ पर विण्डो व एण्ड्रायड फ़ोनों में हिन्दी के कीबोर्डों का स्वरूप कैसा होगा, यह उत्सुकता मन में  लिये डेढ़ वर्ष से प्रतीक्षा कर रहा था। यदि इन दोनों फ़ोनों में हिन्दी कीबोर्ड पहले आ गये होते तो संभव था कि कुछ पैसे बचाने के लिये मैं आईफ़ोन का उपयोग न कर के इनमें से किसी एक के अच्छे मॉडल का उपयोग कर रहा होता। मेरे लिये आईफ़ोन ख़रीदने का प्राथमिक कारण उस पर हिन्दी कीबोर्ड का आना था, यदि उसने भी देर की होती तो एप्पल से जान पहचान ही न हुयी होती। आज एक नहीं, चार और एप्पल उत्पाद ले चुका हूँ और बहुत संतुष्ट भी हूँ। सीधा सा हिसाब था, एप्पल ने हिन्दी का सम्मान किया, इस कारण मेरा परिचय बढ़ा और अब प्यार हो गया है, इसकी गुणवत्ता से। संभवत एप्पल को ज्ञात था कि मुझ तक पहुँचने का मार्ग हिन्दी से होकर जाता है।

ऐसा नहीं है कि विण्डो व एण्ड्रायड फ़ोनों ने हिन्दी के महत्व को समझा नहीं। समुचित समझा पर बड़े देर से समझा। बस कुछ सप्ताह पहले ही दोनों के हिन्दी कीबोर्ड आ गये। पर अब दोनों के हिन्दी कीबोर्डों को देख कर लग रहा है कि दोनों ने ही अपनी सुविधानुसार कीबोर्ड बना दिया, बिना अधिक विश्लेषण किये हुये। इस निर्णय से न हिन्दी टाइप करने वालों का कोई लाभ होने वाला है और न ही इन दोनों कम्पनियों को हिन्दी के इस बाज़ार में कोई सफलता मिलने वाली है। मेरा आशय किसी पर कटाक्ष करने का नहीं है या आलोचना में उद्धत होने का नहीं है, पर हिन्दी कीबोर्ड के उद्भव में भिन्न भिन्न राग सुना रहे लोगों को यह बताने का है कि बिना मानकीकरण न आपका भला होगा और न ही हिन्दी का। और साथ ही साथ मेरे लिये भी भविष्य में आईफ़ोन छोड़ पाने की संभावना पूरी तरह समाप्त हो जायेगी।

विज्ञ कह सकते हैं कि भले ही विण्डो में हिन्दी कीबोर्ड अभी आया हो पर एण्ड्रायड में तो लगभग एक वर्ष से हिन्दी कीबोर्ड है। निश्चय ही हिन्दी कीबोर्ड था, पर वह वाह्य एप्स के रूप में था, तनिक छोटे आकार का था और उपयोग में बहुत ही कष्टकर। जब कभी भी उससे टाइप करने का प्रयास किया, प्रवाह बाधित रहा, कारण निश्चय ही उनका वाह्य आरोपित होना होगा, हर बार ओएस की दीवार भेद कर जाने और वापस आने में समय तो लगता ही है। न ही उससे प्रभावित हुआ जा सकता था और न ही उससे लम्बे समय तक टाइप किया जा सकता है। यद्यपि अभी भी गूगल हिन्दी इनपुट के नाम से जो एप्स आया है, वह भी वाह्य एप्स के रूप में ही आया है, पर गूगल के द्वारा तैयार होने पर उसका समन्वय ओएस से कहीं गहरा होगा, तनिक तीव्र होगी उसकी गति औरों की तुलना में। प्रसन्नता तब और अधिक होती जब ओएस के अगले संस्करण में हिन्दी के कीबोर्ड को सम्मिलित किया गया होता।

जब नोकिया का सी३ फ़ोन उपयोग में लाता था तो उसमें एक वाह्य हिन्दी कीबोर्ड था। लगा था कि नोकिया के पास यह तकनीक होने के कारण विण्डो के नये फ़ोनों में पहले दिन से ही हिन्दी आयेगी। ऐसा नहीं हुआ, कई बार जाकर उसमें हिन्दी खोजी तो नहीं मिली। बड़ा दुख भी हुआ और आश्चर्य भी। जब विण्डो ५ के फ़ोन से आईरॉन का हिन्दी कीबोर्ड उपस्थित था, नोकिया सी३ में हिन्दी की बोर्ड उपस्थित था तो विण्डो के नये फ़ोनों में उनका होना स्वाभाविक ही था। अच्छा हुआ विण्डो फ़ोनों में ओएस स्तर हिन्दी कीबोर्ड आ गया है पर उसका भी अवतरण प्रभावित नहीं कर पाया।

जब भी मैं कहता हूँ कि हिन्दी का कीबोर्ड ओएस के स्तर पर होना चाहिये तो मेरा संकेत दो लाभों की ओर है। पहला तो इससे कीबोर्ड की गति बढ़ जाती है, उसका अन्य एप्स से समन्वय गाढ़ा हो जाता है, टाइपिंग निर्बाध गति से होती है और किसी समस्या की संभावना भी नहीं होती है। दूसरा, ओएस के अपग्रेड होने पर कीबोर्ड भी स्वतः ही अपग्रेड हो जाता है और एप्स के अलग से अपग्रेड होने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती है। यही कारण है कि ओएस में ही कीबोर्ड का होना अधिक लाभदायक है और साथ ही साथ अधिक प्रभावी भी।

कहने को तो गूगल हिन्दी इनपुट में फ़ोनेटिक व्यवस्था भी है, यही कि आप अंग्रेज़ी में टाइप करें और वह स्वतः ही बदल कर हिन्दी में बदल जायेगा। पहले भी बारहा के उपयोग से लैपटॉप पर हिन्दी बहुत दिनों तक टाइप भी की है, पर गति धीमी होने के कारण और हिन्दी शब्दों को अंग्रेज़ी की बैसाखी पहनाने के कारण उसका त्याग कर दिया। उसके स्थान पर हर लैपटॉप में उपस्थित देवनागरी इन्स्क्रिप्ट में टाइप करना सीखना प्रारम्भ में तनिक कठिन लगा पर एक सप्ताह में ही गति आ गयी। कहने का आशय यह कि फ़ोनेटिक टाइपिंग का उपयोग तब तक नहीं करना चाहिये जब तक कोई सीधा साधन उपस्थित हो।

आइये तीन प्रमुख मोबाइल उत्पादकों का हिन्दी कीबोर्ड से संबंधित असंबद्धता देखें। एक तथ्य तो स्पष्ट दिख रहा है कि कोई एक उत्पाद आपने ले लिया और उस पर हिन्दी टाइपिंग करते हुये रम गये तो भविष्य में कोई अन्य मोबाइल ख़रीदने का साहस नहीं कर पायेंगे, एक में ही अटक कर रह जायेंगे। तीनों में हिन्दी कीबोर्ड के भिन्न भिन्न प्रकार आपके लिये बाधा बनकर खड़े रहेंगे। दूसरा, यदि आप लैपटॉप पर देवनागरी इन्स्क्रिप्ट में टाइप करते हैं तो आपको विण्डो या एण्ड्रायड में टाइप करने के लिये एक अतिरिक्त और सर्वथा भिन्न प्रारूप समझना पड़ेगा। दों भिन्न प्रारूपों में भ्रम की संभावना सदा ही बनी रहेगी। आपको बताते चलें कि देवनागरी इन्स्क्रिप्ट प्रारूप ही भारतीय मानक है और हर लैपटॉप में उपस्थित भी।

जब मैंने कहा था कि प्रतीक्षा ने निराश किया है, तब मेरा आशय प्रमुख मोबाइल उत्पादकों के द्वारा भिन्न दिशाओं में भागा जाना था। अभी ब्लैकबेरी १० का पदार्पण होना है पर उसके इतिहास को देख कर यह लगता नहीं है कि वह भी हिन्दी कीबोर्ड के क्षेत्र में अपना राग नहीं अलापेगी।

पिछले ७ वर्षों से मेरा मार्ग अब तक देवनागरी इन्स्क्रिप्ट प्रारूप से होकर आया है, आईफ़ोन के अतिरिक्त अन्य सबने लगभग यह सिद्ध कर दिया है कि चाहे मानक कीबोर्ड जायें भाड़ में पर वे अपने तरीक़े से भारतीयों से हिन्दी टाइप करवायेंगे। यदि ऐसा है तो बड़ा ही कठिन हो जायेगा, तीन चार भिन्न प्रकार के कीबोर्डों से तो हिन्दी में भी नये वर्ग खड़े हो जायेंगे। इतने वर्षों के प्रयास के बाद कम से कम हिन्दी के कीबोर्ड आ रहे हैं, पर उनका भी क्या लाभ जो मानक न हों और उपयोगकर्ता को नये प्रकार से सीखने को विवश करें।

पता नहीं कि नये प्रारूप के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार है या सुविधा है वर्णमाला को एक क्रम में सजा देने की। सबको यह तो लगता है कि बिना हिन्दी कीबोर्ड उनका विकास और फैलाव बाधित रहेगा पर किस प्रकार से उसे प्रस्तुत करना है, इस पर कोई समुचित विचार नहीं हुआ है। मेरा केवल एक ही विनम्र अनुरोध है कि कृपा कर मानक देवनागरी इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड को ही साथ लेकर चले।

2.3.13

टा डा डा डिग्डिगा

जब टीवी पर किसी कार्यक्रम की भड़भड़ से मन भागता है, प्रचारों की विचाररहित, भावनात्मक और बहुधा ललचाने वाली अभिव्यक्तियों से मन खीझता है तो इच्छा होती है कि तुरन्त ही चैनल बदल कर उस कार्यक्रम को दण्ड दिया जाये। जब अगला कार्यक्रम भी बिना किसी कार्य और क्रम के हो तो बस यही लगता है कि कहीं तो एक ढंग का चैनल तो हो जिस पर बैठ कर एक आधा घंटा बिताया जा सकता सके। जब पीड़ा ऐसे घनीभूत होती है तो ईश्वर भी सुन लेता है। डीडी भारती के रूप में एक चैनल है जिसमें संगीत और संस्कृति को प्राथमिकता दी जाती है और बिना अधिक लाग लपेट के कार्यक्रमों का निर्माण और प्रस्तुतीकरण होता है। अधिकांश कार्यक्रम बहुत पहले से रिकॉर्डेड होते हैं पर देखने में पर्याप्त संतुष्टि मिलती है। प्रचारों के कोलाहल की अनुपस्थिति इस चैनल को और भी आकर्षक बना देती है।

ऐसे ही एक दिन डीडी भारती में उस्ताद आमिर खान की गायकी के बारे में एक कार्यक्रम आ रहा था। इन्दौर घराने से प्रारम्भ उनकी गायकी में ध्रुपद, खयाल, तराना, विलम्बित ताल, मेरुखंड, तान, राग आदि विषयों के बारे में बताया जा रहा था। कई बिन्दु समझ में न आने पर भी एक आनन्द आ रहा था, एक क्षण के लिये भी सामने से हट नहीं पाया। ऐसा लग रहा था कि कोई मेरुदण्ड सीधा कर बैठा योगी ध्यानस्थ हो, अध्यात्म में डुबकी लगा अपने ईश से संवाद स्थापित कर रहा हो। संगीत का ऐसा उद्दात्त और गहन स्वरूप देख कर रोमांचित होने के अतिरिक्त मन को कुछ सूझता ही नहीं था। अभी जब यह आलेख लिख रहा हूँ, पार्श्व में राग बसन्त बहार चल रही है, लगता है कोई आपके हृदय के गहन तलों से सीधा संबंध सजा रहा हो।

अध्यात्म आधारित संगीत वही प्रभाव उत्पन्न कर रहा था जहाँ से उसके मूल जुड़े हुये थे। स्वर शब्दों से बँधे नहीं थे या कहें कि शब्द थे ही नहीं, मात्र ध्वनियाँ, अक्षरों के आस पास, लहराती हुयी। ईश्वर से संवाद की भाषा में कोई शब्द मिला ही नहीं। शब्द रहते तो कोई आकार उभरता, वह आकार हमें भौतिक जगत की किसी वस्तु से जोड़ देता, हमें तब अध्यात्म के स्वर समझने के लिये निम्नतर आधार लेना होता, संवाद अपना मान खो बैठता। शब्दों से कोई बैर नहीं है संगीत का, पर शब्दों की सीमायें हैं। सीमायें शब्द भी नहीं वरन उसके अर्थ हैं जो हम सबके मन में भिन्न प्रभाव उपजाते हैं। अर्थ हमें सीमित कर देते हैं। संगीत यदि ईश्वर से जुड़ने का मार्ग है तो शब्दों की बाध्यता वह मार्ग बाधित नहीं कर सकती।

संगीत और अध्यात्म का विषय तो बहुत पहुँचे लोगों का विषय हो जाता है, पर ध्वनियाँ से हमारा संबंध जन्म से ही है। प्रथम स्वर शब्द नहीं होते हैं, वह तो मूल ध्वनियाँ होती हैं जो दो जगत को जोड़ती हैं। धीरे धीरे हम शब्द सीखते जाते हैं, जगत से जुड़ते जाते हैं, सीमित होते जाते हैं और स्वयं से बहुत दूर भी। शब्द विज्ञानी कहते हैं कि शब्दों का उद्भव भी ध्वनियों से ही हुआ है। धातु का जुड़ाव ध्वनियों से ही है। मूल धातु से और शब्द निकले और भाषा बनकर पसर गये, पर जड़ों में वहीं ध्वनियाँ हैं जो वह भाव आने पर पहली बार प्रकट हुयी होंगी। यदि भाषा और शब्दों का मूल हमारे अन्दर है तो मन के अनजाने भावों को व्यक्त करने में स्थापित शब्दों का सहारा क्यों? अपने जीवन में ऐसी ही दसियों ध्वनियाँ याद आ जायेंगी जिनका कोई शाब्दिक अर्थ नहीं पर वे भावों के अध्याय व्यक्त करने में सक्षम होती हैं।

ऐसा ही एक ध्वनि स्वरूप याद आता है, बचपन का। हम सब लोग मिलकर खेलते थे, जीतने के बाद गाते थे, टा डा डा डिग्डिगा। बचपन की यादें जुड़ी हैं इससे। कोई पूछे कि इसका शाब्दिक अर्थ क्या होता है तो बताना कठिन होगा पर इसका क्रियात्मक अर्थ है, हर्ष, उल्लास और मदमस्त होकर किया गया विजय नृत्य। ये शब्द विजय नृत्य के समय तब तक गाये जाते हैं, जब तक आप थक न जायें और हारने वाले आपसे पक न जायें।

पता नहीं कब और कैसे यह प्रारम्भ हुआ था पर मोहल्ले के लड़के इसी तरह से विजयोत्सव मनाते थे। गिल्ली डंडा हो, कंचा हो, गोल दौड़ हो, लूडो हो, शतरंज हो, ताश हो, हर प्रकार के छोटे बड़े खेलों में जीता हुआ दल इन शब्दों का उद्घोष करता था। आदत ऐसी उतर गयी है मन में कि अभी भी जब बच्चों को किसी खेल में हराते हैं, हम उसी तरह से गाने और नाचने लगते हैं। बच्चों को अटपटा लगता है क्योंकि इस तरह का कभी देखा नहीं, बच्चों को रोचक भी लगता है क्योंकि इसमें भाव पूरी तरह से उतर भी आते हैं। शब्दों का कोई अर्थ नहीं पर प्रभाव पूर्ण।

कहते हैं कि खेल में हार जीत तो होती रहती है, उसे खेल की तरह से लेना चाहिये, उसे सुख दुख से नहीं जोड़ना चाहिये। हम भी सहमत हैं, हार के समय सुखी नहीं होते हैं और जीत के समय दुखी नहीं होते हैं। पर ऐसी जीत का क्या लाभ जिसमें जीतने वाला उत्सव न मनाये और हारने वाला झेंपे नहीं। विजयनृत्य होता था हम लोगों का और दस पन्द्रह मिनट तक चलता था। पार्श में रहता था, टा डा डा डिग्डिगा। विजेता का हारने वाले से पूर्ण संवाद स्थापित हो जाता था, बिना एक भी सीखा हुआ शब्द उच्चारित करे हुये, बिना अर्थयुक्त शब्द उच्चारित किये हुये। आनन्द का इससे विशुद्ध, मूल और प्राकृतिक स्वरूप किसी और ध्वनि में नहीं मिला आज तक।

धीरे धीरे बड़े होते जा रहे हैं हम लोग और जीवन से टा डा डा डिग्डिगा लुप्त होता जा रहा है। हम शब्दों और उनके परिचित अर्थों में स्वयं को सीमित किये बैठे हैं। आज ऊब से बचने के प्रयास में संगीत और अध्यात्म के उस संवाद से परिचय और प्रगाढ़ हुआ जहाँ शब्दों का कोई कार्य नहीं। अम्मा शब्द से प्रारम्भ जीवन, टा डा डा डिग्डिगा में बीता लड़कपन और अब ख़याल के ध्वन्यात्मक संसार में डूब कर विश्वास हो चला है कि जीवन के न जाने कितने मौलिक स्वर अभी भी हृदय में बंद हैं, बाहर आने को आतुर हैं। आपका भी कोई टा डा डा डिग्डिगा है जीवन में?