29.5.13

मानसिक विलास

एक मित्र महोदय से कहा कि इस नगर में कोई ऐसा स्थान बतायें जहाँ चार पाँच घंटे शान्तिपूर्वक मिल सकें, पूर्ण निश्चिन्तता में। मित्र महोदय संशय से देखने लगते हैं, आँखों में एक विनोदपूर्ण मुस्कान छा जाती है उनके। इस नगर में एकान्त की खोज के अर्थ बहुत अच्छे नहीं माने जाते हैं, कई युगल बाग़ों, बगीचों, मॉलों और त्यक्त राहों में एकान्त की खोज करने में प्रयत्नशील दिख जाते हैं। भविष्य के रोमांचित और प्रेमपूर्ण स्वप्नों का सृजन भीड़भाड़ वाले स्थानों पर हो भी नहीं सकता है, उसके लिये एक दूसरे पर एकांगी ध्यान देना होता है, हावों भावों को पढ़ना पड़ता है, कुछ न कुछ बनाते हुये बताना पड़ता है।

उनका अर्थ समझ कर कुछ बता पाता, उसके पहले उन्होंने मेरे बारे में पूरी फ़िल्म तैयार कर डाली। जैसा हमारी फ़िल्मों में होता है कि सोच कर कुछ और जाओ, निकलता कुछ और है, वही उनके साथ भी हुआ। हमने कहा कि यह समय लिखने के लिये चाहिये, एक सप्ताह में चार पाँच घंटे ऐसे मिल जायें तो न केवल साहित्यिक प्रतिबद्धताएँ पूरी होती रहेंगी वरन भविष्य के मार्ग भी दिखने लगेंगे। एकान्त में चिन्तनशीलता गहरे निष्कर्ष लेकर आती है, विषय स्पष्ट हो जाते हैं। व्यवधान से न केवल समय का आभाव हो जाता है वरन लेखन का तारतम्य भी टूट जाता है।

अब मित्र महोदय के मुख पर चिन्ता की रेखायें थीं, उन्हें लगा कि क्या घर में लेखन को लेकर कोई विरोध है, लेखन में वांछित सहयोग मिल पा रहा है या नहीं? बताया कि लिखने से श्रीमतीजी कभी नहीं रोकती हैं, न कभी कोई कटाक्ष भी करती हैं, प्रार्थना करने से चाय आदि बना कर मेज़ पर ही दे जाती हैं। बच्चे भी लेखन निमग्न पिता को छोटी छोटी बात के लिये नहीं टोकते हैं, समस्या गम्भीर होने तक की प्रतीक्षा कर लेते हैं। पड़ोसी भी अच्छे हैं, कभी ऊँचे स्वर में संगीत आदि नहीं बजाते हैं। हाँ, घर से थोड़ी दूर पर एक व्यस्त नगरमार्ग अवश्य है, जिसमें वाहनों के चलने की ध्वनियाँ घर में घुस आती हैं, पर वे ध्वनियाँ भी पंखे आदि उपकरणों के पार्श्व में छिप जाती हैं।

तब क्या समस्या है श्रीमानजी, आप तो बड़े सौभाग्यशाली हैं। इतिहास साक्षी है कि लेखकों ने सारे विरोधों के होते हुये भी इतना उत्कृष्ट लेखन किया है, पारिवारिक और सामाजिक अपेक्षाएँ को निभाते हुये भी रत्न प्रस्तुत किये हैं। क्या कारण है कि आप लेखन को लेकर इतने सुविधाभोगी हुये जा रहे हैं? कल कहेंगे कि एकान्त भी आपकी लेखकीय क्षमता नहीं उभार पा रहा है, आपको पहाड़ चाहिये, नदी चाहिये, सागर चाहिये। बंगलोर में झील और बाग़ तो मिल जायेंगे, पहाड़, नदी, सागर आदि कहाँ से लायेंगे? लेखकीय एकान्त में कल्पनालोक की बातें तो बतिया लेंगे, पर जीवन के सच अपना आधार खोने लगेंगे वहाँ। व्यस्त समाज में रह कर स्वस्थ लेखन कीजिये। क्या साहित्यिक रोगी की तरह एकान्त में स्वास्थ्य लाभ करने जाना चाहते हैं?

कितने निर्मल भावों से एकान्त की अभिलाषा जतलाई थी, अपने लेखकीय उद्यम के लिये, पर न जाने हमारे ऊपर कितनी विकृतियों का दोषारोपण कर दिया गया। कहीं कोई ऐसी अनूठी बात तो हमने की नहीं, सारे गम्भीर लेखक विषय पर स्वयं को केन्द्रित करने में एकान्त का सहारा लेते हैं, प्रकृति के विस्तारित सौन्दर्य का सहारा लेते हैं। एक बड़े लेखक के बारे में कहीं पढ़ रहा था कि उनके सुबह के तीन चार घंटे विशुद्ध चिन्तन और लेखन में बीतते हैं, मन का ध्यान और घनीभूत हो, इसलिये वे तीरंदाज़ी का भी अभ्यास करते हैं। हमने भी अपने खेल सचिव को तीरंदाज़ी की किट लेने के लिये कहा है, आशा है उससे लेखकीय उद्यम तनिक और गुणवत्ता भरा हो जायेगा।

उत्तम विचार बड़ा मानमनौव्वल करवाते हैं, उन्हें एकांगी ध्यान देकर मनाना पड़ता है, भीड़ भाड़ देखकर तो वे आते ही नहीं हैं। उन्हें अवतरित होने के लिये उपयुक्त वातावरण चाहिये। यद्यपि स्रोत ज्ञात नहीं होता है विचारों का, पर यह अनुभव अवश्य है कि जब मन की स्थिति अच्छी होती है तो भावों को शब्द मिलने लगते हैं। प्राचीन काल में ऋषि मुनि भी प्रणायाम और ध्यान से सशक्त हुये मन में विचारों को आमन्त्रित करते थे और सूक्तों की रचना करते थे। उनके विचारों की उत्कृष्टता भले ही न हमें लब्ध हो पर एकान्त में बैठ कर विचारों के आवागमन को समझने का प्रयास तो कर ही सकते हैं।

सूत्रबीज कई स्थान से प्राप्त हो जाते हैं, सर्वाधिक उपयुक्त स्थान चर्चायें हैं, सुधीजनों के संग। बात कोई स्वरूप लिये प्रारम्भ नहीं होती है, किसी छोटी से बात से गहरे विचारों में उतर जाती है। उनमें से कुछ बीज सूत्र बन चिन्तन में बस जाते हैं और एकान्त पा धीरे से निकलते हैं, विस्तारित होते हैं, कई शाखायें, कई संबंध, कई निष्कर्ष और कई उद्घाटन, न जाने किन किन रूपों में वे सूत्रबीज बिखर जाते हैं। सूत्रबीज फिर भी नष्ट नहीं होते हैं, भविष्य के लिये सुरक्षित हो जाते हैं, आगामी सूत्रबीजों के साथ इन्द्रधनुष सा फैल जाते हैं, विचारों के विस्तृत वितानों में।

सूत्रबीज अनुभव से मिलते हैं, बच्चों के निर्मल व्यवहार से मिलते हैं, प्रकृति के विस्तार से मिलते हैं, और भी न जाने कितने स्रोत हैं उनके। उस समय हम बस ग्रहण करते हैं, कुछ भी अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं। उन सबको समाहित करने और संश्लेषित कर व्यक्त करने के लिये एकान्त चाहिये। विचारों को मथना पड़ता है, संभावनायें पाने तक थकना पड़ता है।

थोड़ी और बात करने पर मित्र महोदय ने बताया कि उनका पर्याप्त लेखन एक होटल की खुली छत पर हुआ है। सायं समय मिलने पर वहाँ चले जाते थे, अधिक लोग वहाँ नहीं आते थे, आसपास गमले में लगे पेड़ पौधे, शीतल मंद पवन, वाहनों का स्वर ६ तल नीचे छूटता हुआ और ऊपर खुला विस्तृत आकाश। एक पूरा वातावरण मिलता था वहाँ, एकान्त और प्रवाह प्रधान। एक चाय, वेटर भी आपको समय और स्वतन्त्रता देते हुये, तब दो घंटे के बाद सृजित साहित्य के सहस्र शब्द। मुझे कल्पना भर कर लेने से ही एक प्रतियोगितात्मक ईर्ष्या हो आयी, काश मुझे भी कोई ऐसा स्थान मिल गया होता। एक दो बार कॉफ़ी डे में ध्यानस्थ होने का निष्फल प्रयास कर चुका हूँ, युगलों की व्यस्तताओं और व्यग्रताओं ने हर बार ध्यान भंग कर दिया।

आप अपने मानसिक विलास के लिये कौन सा स्थान ढूंढ़ते हैं, अपने घर में क्या उतना फैल कर लेखन कर पाते हैं? यदि हाँ, तो ज्ञान की कुछ फुहारें हम पर भी बरसा दीजिये।

44 comments:

  1. मानसिक विलास के लिये शांत मन ही सबसे उत्तम स्थान है . जहां से उठती आप्तवाणी हमें स्पष्ट सुनाई देती है और लेखन सहजता से अपनी ऊँचाइयों को छूता है .

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    1. क्या बात है ---सत्य बचन...

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  2. शांत वातावरण एवं प्रफुल्लित मन आवश्यक है ...

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  3. हृदय अशांत न हो, मन व्यग्र न हो, मानस में कोई तनाव न हो, फिर वही स्थान उत्तम है जहाँ असम्भावित व्यवधान आने की सम्भावनएँ न्यूनत्तम हो....

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  4. लेखन के लिए हृदय में व्यग्रता होनी चाहिए और विचार अभिव्यक्त करने के लिए शब्द ..... शब्दों को उचित क्रम देने के लिए एकाग्रता .... एकाग्रता के लिए कोई भी स्थान उपयुक्त है जहां उस समय कोई व्यवधान न हो । फिर चाहे घर हो या कोई छत.....

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  5. एकान्त तो फिर भी नहीं मिलेगा क्योंकि स्वयं के साथ न जाने कितनी स्मृतियां हिलोरें मारती चलती हैं. एक अच्छे आलेख के लिये धन्यवाद.

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  6. Bilkul sahi kaha aapne...main bhi likhne ke liye ekant khojta hun..par ye milna aasaan nahi hai.

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  7. उन सबको समाहित करने और संश्लेषित कर व्यक्त करने के लिये एकान्त चाहिये। विचारों को मथना पड़ता है, संभावनायें पाने तक थकना पड़ता है।


    lekhan ishwariya hai ...!!jab aanaa hoga aakar hii rahega .haan uske liye anubhoot karne ki kshamata honi chahiye aur abhivyakti ke liye shabd ...
    sarthak alekh .

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  8. लेखन के लिए एकाग्रता और जूनून चाहिए,
    बहुत उम्दा,आलेख ,,
    Recent post: ओ प्यारी लली,

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  9. जब मन में उमड़े तो कहीं भी लिखा जा सकता है,पर उसका पल्लवन -पुष्पन अलग समय मिलने पर !हाँ, दिमाग से उड़ न जाय सो बीच-बीच में शब्दांकन ज़रूरी है -सँभालने और एडिट करने का काम तो बाद में चलता रहता है. और हम महिलाओं के पास कहाँ इतनी सुविधा और कहाँ अवकाश कि ये शौकीनियाँ पूरी कर सकें.शरीर के स्तर पर ऊपरी काम और मन के स्तर पर रचना-संसार .

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  10. बडा अहम सवाल पूछ लिया है आपने. विक्रम और बेताल जैसा, यदि आप बेताल पच्चीसी ध्यान पूर्वक पढेंगे तो आपके सवाल का जवाब मिल जायेगा. बेताल का प्रयत्न रहता है कि विक्रम का ध्यान भटकाया जाये जिससे वो अपने मार्ग से हटे पर विक्रम ध्यानस्थ होकर बेताल को सुन कर जवाब देता रहता है.

    मेरी समझ से ध्यान ही इसका एक मात्र उपाय है. भीड में रहते हुये भी शांत चित होकर, अपने कर्म मे ध्यानस्थ होकर लक्ष्य को पाया जा सकता है. संसार में ऐसी कोई जगह नही है जहां मन के मुताबिक वातावरण मिल सके, कितनी भी शांत जगह चले जायें, मन उससे भी ज्यादा शांत जगह की मांग करने लगेगा.

    हम तो ताई के लठ्ठ खाते हुये भी शांत चित रहते हुये सब काम करते रहते हैं.:)

    रामराम.

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  11. मन शान्त हो तो सभी जगह एकान्त ही एकान्त होता है.... उम्दा आलेख

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  12. मानसिक विलास के लिए लेखन क्या जरूरी है

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    1. .....काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम|

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  13. आलेख बढिया है मगर
    यहाँ तो लेखन कभी उद्गिनता में
    तो कभी एकान्त में
    तो कभी भीडभाड में भी पनप जाता है
    क्या कहें इसे कौन सा मौसम भाता है
    पतझड में भी श्रृंगार हो जाता है
    और कभी बसन्त में भी
    विरह का पंछी फ़डफ़डाता है
    ना जाने लेखन किस मौसम में
    सबसे ज्यादा उमड घुमड आता है

    अब देखिये इतने दिनो से कुछ लिखा नही गया मगर आपकी बात से बात चली और कुछ ये पंक्तियाँ बन गयीं बस ऐसे ही :)

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  14. प्रवीण जी आभार आज आपके आलेख की वजह से मेरे रुके हुये प्रवाह को आधार मिल गया ऊपर जो लिखा है उसे पूरा कर लिया :)

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  15. याद आया. अभी कुछ दिन पहले संक्षिप्त से वर्धा प्रवास में एक शाम आदरणीय दूध नाथ सिंह जी टकरा गए. दिविक रमेश जी साथ थे. पता चला कि दोनों कविवर ऋतुराज जी को खोज रहे हैं. दरअसल ऋतुराज जी कहीं पहाड़ी पर एकांत में कविताएँ रचने चले जाते हैं प्रायः शाम उतरते.

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  16. मेरी मई माह की एक पोस्‍ट (यह यात्रा) आपने पढ़ी, उस पर अपनी टिप्‍पणी(स्‍वर्णिम आभा सी चमकती गेंहूं की बालियां) करी। अन्‍य ब्‍लॉगर मित्रों की प्रेरक टिप्‍पणियां इस पोस्‍ट पर प्राप्‍त हुईं। मैं बताना चाहता हूँ कि इसको लिखने के समस्‍त प्रयास (विषय,भाव-भूमि,शब्‍द,वाक्‍य-विन्‍यास,पात्र,घटनाएं,दर्शन,आदि) मैंने बस में बैठे-बैठे और गन्‍तव्‍य तक पहुंचते-पहुंचते दिमाग में एकत्रित कर लिए थे। यब सब इसलिए हो सका कि क्‍योंकि मैंने विषयक अनुभव को विषय-सामग्री बन कर जिया। अनुभव होने, इन्‍हें स्‍मृतियों में संजाने तक तो मैं एक प्रकार से स्‍वर्ग-विचरण कर रहा था। परन्‍तु अनुभव समापन और गन्‍तव्‍य तक पहुंचने के बाद मेरा सिर दर्द से फटने लगा था। एक हजार शब्‍दों में लिखा हुआ मेरा यह यात्रा वृत्‍तांत एक प्रकार से मेरे दिमाग में स्थिर हो गया था। जरुरत थी घर जा कर उसे शब्‍दों में प्रकट करने की। कहने का मेरा तात्‍पर्य यह है कि किसी भी घटना,परिघटना, प्रकृति उपक्रम से प्रभावित होने की देर है, लेखन उसके बाद अपने लिए शान्ति नहीं मांगेगा। हां जबरन आप लिखेंगे तो आपको परिवेश से समस्‍या होने लगेगी, आप चाहेंगे कि एकान्‍त हो। पर जब जबरन लिखने की बात होगी तो एकान्‍त भी सहायक न हो सकेगा।
    आपने बहुत अच्‍छे विषय पर शब्‍द बिखेरे हैं। सुन्‍दर, इस हेतु बधाई आपको।

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  17. जहाँ मन एकाग्र हो सके बस...फिर वह कोई कमरा हो या कमरे का कोई कोना.या फिर घर से बाहर की कोई जगह.

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  18. यह प्रश्न नीरज जी से भी पूछ कर देखिएगा.. उनके प्रयोग कुछ ज्यादा ही खतरनाक हैं.. शायद कुछ नया हाथ लगे.. अपना पहला उपन्यास उन्होंने बंगलोर में ही पूरा किया है.. एकांत स्थान वही बातायेंगे..!!

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    1. नीरजजी से ही यह प्रश्न पूछा था।

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  19. "....आप अपने मानसिक विलास के लिये कौन सा स्थान ढूंढ़ते हैं, अपने घर में क्या उतना फैल कर लेखन कर पाते हैं? यदि हाँ, तो ज्ञान की कुछ फुहारें हम पर भी बरसा दीजिये।..."

    मेरे सामने तो एक अदद टर्मिनल (माने कंप्यूटर कुंजीपट) हो, बस. बाकी तो जन्नत हो या जहन्नुम - कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता :)

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  20. .. एक बार फिर बेहतरीन आलेख ....
    सादर

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  21. लेखन के लिए एकांत तो चाहिए।

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    1. एकांत का भी अपना संगीत होता है शोर होता है......एकांत तो सिर्फ शांत मन में होता है ...

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  22. मैं अब तक जितना जान पाया हूँ उसके आधार पर यही कहुँगा कि लेखन सम्बन्धी किसी सूत्र की तलाश व्यर्थ है.

    चेखव, मंटो, काफ्का एक तरफ हैं तो टाल्सटाय, टैगोर,सार्त्र दूसरी तरफ. अपने आसपास कृत्रिम परिस्थितियों का निर्माण करके बड़ा लेखन करने वाले लेखक विरले ही होंगे.

    ध्यान रहे कि मैं यहाँ लेखक या लेखन शब्द का प्रयोग उसके सर्वोत्तम अर्थों में कर रहा हूँ.

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  23. मन को जहाँ शांति मिले वाही स्थान लेखन के लिये उचित है. मन की व्यग्रता लेखन में ज्यादा बड़ी बाधा है.

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  24. कोई भी जगह शांत कब तक रहेगी... शांत मन को ही करना होगा। कहीं पढ़ा था - "You are not struck in traffic... you are traffic !" :)

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  25. मुझे तो घर से बढिया जगह और कोई अनुभव नहीं होती।

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  26. सरस्वती की आज्ञा हो जाये तो फिर मूड या स्पेस जैसी बातें गौण हो जाती हैं। 'उत्तम विचारों की मान-मनौव्वल' ....... अच्छा वाग्वैभव है :)

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  27. कहते हैं निर्जनता मनुष्य में मौलिकता को उत्प्रेरित करती है -ऐसी जगहें खाली दिमाग को निसर्ग के साक्षत्कार से भर देती हैं !

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    1. क्या दिमाग कभी खाली भी होता है ...अरविंद जी ...

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  28. तेरा मन दर्पण कहलाये.....
    गृहणियां तो चमचा-कलछा के साथ भी रचना कर लेती हैं ---देखिये श्रीमती सुषमा गुप्ता जी का एक गीत...
    चूल्हे चौके की खटपट में
    समय भला कब मिल पाता है|
    सब्जी कढी दाल अदहन में,
    गीत भला कब बन पाता है |

    पर मन में संगीत बसा हो,
    सब कुछ संभव हो जाता है |
    गुण गुण में मन मीत बसा हो
    तो मन गीत सजा जाता है |

    ---सन्दर्भ भारतीय नारी ब्लॉग ...चूल्हे चौके का संगीत....

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  29. गुण गुण = गुन गुन.....

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  30. जब लेखन को मन अग्रसर होता है तो ओने आप माहोल घने शोर के बाद भी शांत होने लगता है ...

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  31. हम भी घर में ही काम-धाम के बीच लेखन करते है। इसलिए ही हमारे लेखन में परिवार की गंध आती है।

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  32. आपका अपना मन शांत होना चाहिए बस फिर तो आप जहां चाहे वहाँ शांति मिल सकती है और लेखन किया जा सकता है फिर चाहे घर हो या बाहर...कोई खास फर्क नहीं पड़ता।

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  33. विचारों का कोई भरोसा नहीं पता नहीं कब आ जाएँ ! पर अब चलते चलते तो लिख नहीं सकते तो जहां थोड़ा रुकने और बैठने की जगह मिली और लेखन हो जाता है !!

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  34. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (31-05-2013) के "जिन्दादिली का प्रमाण दो" (चर्चा मंचःअंक-1261) पर भी होगी!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  35. ई- मेल चेक करते हुए, कॉल रिसीव करते हुए, बीच-बीच में बॉस के सवालों का जवाब देते हुए। शांति और एकांत के बिना ही अब लेखन की आदत पद गई है। ख़बरों का संपादन या किसी साथी की खबर को फिर से लिखना भी लेखन है।
    घर पर हल्का सा संगीत सुनते हुए भी लिखना अच्छा लगता है।

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  36. मै तो ह्रदय अशांत रहता है तभी लिख पति हूँ और जब घर के कामो में व्यस्त रहती हूँ तभी उत्क्रष्ट विचार आते है ये अलग बात है उन्हें कलम बद्ध नहीं कर पाती |
    बड़े बड़े लेखक घर के माहौल में ही अपना साहित्य रचते थे । सार्थक आलेख |

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  37. शांति की सबसे मुफीद जगह मन है।

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