9.5.12

हैं अशेष इच्छायें मन में

मैने मन की हर इच्छा को माना और स्वीकार किया,
जितना संभव हो पाया था, अनुभव से आकार दिया,
ऊर्जा के संचय संदोहित, प्यासे मन की ज्वाला में,
मानो जीवन नाच रहा हो, झूम समय की हाला में,
हर क्षण को आकण्ठ जिया है, नहीं कहीं कुछ छोड़ सका,
भर डाला जो भर सकता था, मन को मन से तृप्त रखा,
सारा हल्कापन जी डाला, नहीं ठोस उस व्यर्थ व्यसन में,
हैं अशेष इच्छायें मन में।१।

देखो तो चलचित्र जगत का तरह तरह के रंग दिखाता,
सबकी चाह एक जैसी ही, सबको सबके संग दिखाता,
सबको अर्थ वही पाने हैं, प्रश्न पृथक क्यों पूछें हम,
न चाहें, फिर भी भरते घट, कहाँ रह सके छूछे हम,
मीन बने हम विषय ताल में, कितना जल पी डाला है,
जीवन को उतराते पाया, जब से होश सम्हाला है,
हम, तुम, सब मदमस्त नशे में, किसने घोली चरस पवन में,
हैं अशेष इच्छायें मन में।२।

जब भी पीड़ाओं से भागा, राहों में कुछ और खड़ीं,
छोटी को झाँसा दे निकला, भाग्य लिखी थी और बड़ी,
आगत का भय, विगत वेदना, व्यर्थ अवधि क्यों खीचें हम,
दृश्य बदे जो, सब दिखने हैं, आँख रहे क्यों मींचे हम,
जैसा भी है, अपना ही है, उस अनुभव से क्यों च्युत हों,
जब आयेगीं, सह डालेंगे, दुगने मन से प्रस्तुत हों,
सह सह सब रहना सीखा है, दिखता अब सौन्दर्य तपन में,
हैं अशेष इच्छायें मन में।३।

52 comments:

  1. 'जैसा भी है, अपना ही है, उस अनुभव से क्यों च्युत हों,
    जब आयेगीं, सह डालेंगे, दुगने मन से प्रस्तुत हों,'
    -यह सकारात्मक-स्वीकारात्मक दृष्टिकोण जीवन को सदा उत्साहपूरित रखेगा- बहुत अच्छा लगा !

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  2. काव्य प्रस्तुति में आप निष्णात है ..भाव और शिल्प के गढ़न दोनों में
    एक अन्तर्विरोध कौंधा है -कवि कह गया है -जल बिच मीन पियासी किन्तु यहाँ तो
    "मीन बने हम विषय ताल में, कितना जल पी डाला है,"
    कोई व्याख्या ?

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  3. आगत का भय, विगत वेदना, व्यर्थ अवधि क्यों खीचें हम,
    दृश्य बदे जो, सब दिखने हैं, आँख रहे क्यों मींचे हम,
    जैसा भी है, अपना ही है, उस अनुभव से क्यों च्युत हों,
    जब आयेगीं, सह डालेंगे, दुगने मन से प्रस्तुत हों,
    सह सह सब रहना सीखा है, दिखता अब सौन्दर्य तपन में,
    हैं अशेष इच्छायें मन में।३।

    निर्लिप्त भाव से जीवन से लिप्त ...जी रही है कविता ...
    सुंदर भाव ....
    शुभकामनायें ...!

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  4. ऊर्जा के संचय संदोहित, प्यासे मन की ज्वाला में,
    मानो जीवन नाच रहा हो, झूम समय की हाला में,
    मानस का संत्रिप्तिकरण नहीं हो सकता और अतृप्त रहना श्रेयस्कर नहीं है सकारात्मक उद्दात भाव की अभिव्यक्ति आगत विगत के मध्य अपनी पूरी निष्ठां में दिखती है ,मनुष्य यही तो कर सकता है न ..... शब्द और शिल्प अछे हैं दोनों ही ...शुभकामनायें जी /

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  5. कविता ने सब कुछ कह दिया भाई साहेब .
    धन्यवाद.

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  6. आगत का भय, विगत वेदना, व्यर्थ अवधि क्यों खीचें हम,
    दृश्य बदे जो, सब दिखने हैं, आँख रहे क्यों मींचे हम,
    जैसा भी है, अपना ही है, उस अनुभव से क्यों च्युत हों,
    जब आयेगीं, सह डालेंगे, दुगने मन से प्रस्तुत हों!

    सहने की हिम्मत , कहने का साहस फिर डर कैसा आगत से !
    वाह !

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  7. जब भी पीड़ाओं से भागा, राहों में कुछ और खड़ीं,
    छोटी को झाँसा दे निकला, भाग्य लिखी थी और बड़ी

    सही है!

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  8. बहुत बढ़िया प्रस्तुति

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  9. सुंदर ||
    शुभकामनायें ||

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  10. सह सह सब रहना सीखा है, दिखता अब सौन्दर्य तपन में,
    हैं अशेष इच्छायें मन में

    शिल्प सौंदर्य को महसूस कर पा रहा हूँ !
    आभार एक खूबसूरत रचना के लिए प्रवीण भाई !

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  11. तपन में प्राप्य ... फिर क्या शेष , कैसा भय

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  12. दिखता अब सौन्दर्य तपन में,---- अति सुन्दर..

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  13. हर अनुभव को निष्ठा से जी लेने की अप्रतिम अभिव्यक्ति...!
    'जैसा भी है, अपना ही है, उस अनुभव से क्यों च्युत हों,
    जब आयेगीं, सह डालेंगे, दुगने मन से प्रस्तुत हों,'
    ये भाव रहे तो फिर आगत विगत सब विदा हो जाए और हम वर्तमान का आनंद ले पाएं!
    सुन्दर कविता!

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  14. आगत का भय, विगत वेदना, व्यर्थ अवधि क्यों खीचें हम,
    दृश्य बदे जो, सब दिखने हैं, आँख रहे क्यों मींचे हम,

    सारगर्भित विचार ...अति सुंदर रचना

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  15. जैसा भी है, अपना ही है, उस अनुभव से क्यों च्युत हों,
    जब आयेगीं, सह डालेंगे, दुगने मन से प्रस्तुत हों,
    सह सह सब रहना सीखा है, दिखता अब सौन्दर्य तपन में,
    हैं अशेष इच्छायें मन में।३।

    सच कहा है एक भदधा से भागते हैं तो दूसरी बड़े आकार में सामने खड़ी दिखाई दे जाती है .... बहुत सकारात्मक सोच और नयी ऊर्जा देती सुंदर रचना ॥

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  16. सच है तपन के बाद ही सोना निखरता है.......बहुत सुन्दर....

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  17. लयात्मकता, शब्द-विन्यास और भावों की अभिव्यक्ति में श्रेष्ठ!!

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  18. जब भी पीड़ाओं से भागा, राहों में कुछ और खड़ीं,
    छोटी को झाँसा दे निकला, भाग्य लिखी थी और बड़ी,
    आगत का भय, विगत वेदना, व्यर्थ अवधि क्यों खीचें हम,
    दृश्य बदे जो, सब दिखने हैं, आँख रहे क्यों मींचे हम,
    जैसा भी है, अपना ही है, उस अनुभव से क्यों च्युत हों,
    जब आयेगीं, सह डालेंगे, दुगने मन से प्रस्तुत हों,
    सह सह सब रहना सीखा है, दिखता अब सौन्दर्य तपन में,
    हैं अशेष इच्छायें मन में।३।

    वाह वाह प्रवीण जी बहुत ही सशक्त अप्रतिम काव्य रचा है आपने हर परिस्थिति और अनुभव को हंस कर गले लगाया यही तो है आगे बढ़ने का मिन्त्र ये अंतिम पद तो क्या कहने लाजबाब है

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  19. जब आयेगीं, सह डालेंगे, दुगने मन से प्रस्तुत हों,
    सह सह सब रहना सीखा है, दिखता अब सौन्दर्य तपन में,

    वाह..... बहुत सुंदर प्रस्तुति,..

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  20. इच्‍छाएं तो हमेशा ही रहेंगी। आप मीन बनें या मगर।

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  21. यही तो इच्छाओं का मायाजाल है जितना पूरी करो उतनी ही अशेष रह जाती हैं।

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  22. बहुत भावपूर्ण रचना .

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  23. जब भी पीड़ाओं से भागा, राहों में कुछ और खड़ीं,
    छोटी को झाँसा दे निकला, भाग्य लिखी थी और बड़ी,..

    प्रवाहमय रचना ... दुखों से भागना आसान नहीं ... इसे जी लेने ही ठीक है ...

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  24. सकारात्‍मक सोच के साथ उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ।

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  25. सबको अर्थ वही पाने हैं, प्रश्न पृथक क्यों पूछें हम,
    न चाहें, फिर भी भरते घट, कहाँ रह सके छूछे हम,

    ....बहुत सकारात्मक सोच...भावों और शब्दों का सुन्दर संयोजन...उत्कृष्ट प्रस्तुति...

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  26. सकारात्‍मक सोच के साथ उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ।

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  27. आगत का भय, विगत वेदना, व्यर्थ अवधि क्यों खीचें हम,
    दृश्य बदे जो, सब दिखने हैं, आँख रहे क्यों मींचे हम,

    वाह...वाह...कितनी अच्छी बात कही है आपने...लाजवाब...बहत अच्छी रचना...बधाई स्वीकारें..

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  28. जीवन तृष्णाओं को तृप्त करना सहज तो नहीं किन्तु संतुष्ट रहना ही अपने आप में कठिन कार्य है

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  29. 'किसने घोली चरस पवन में' - यह उपमा पहली बार जानने को मिली। यही मेरी प्राप्ति है आपकी इस पोस्‍ट से। धन्‍यवाद।

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  30. मुझे लगता है इच्छा किसी संतृप्त विलयन का हिस्सा नहीं हो सकती . सुँदर काव्य प्रगटन .

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  31. हम, तुम, सब मदमस्त नशे में, किसने घोली चरस पवन में,
    हैं अशेष इच्छायें मन में।२।
    सह सह सब रहना सीखा है, दिखता अब सौन्दर्य तपन में,
    हैं अशेष इच्छायें मन में।३।
    देखी है उनकी आँखें, अपलक कभी-कभी,
    सपने भी देखे हमने, दिन में कभी-कभी!

    व्यतीत के दरीचों से अच्छा बिम्ब है वर्तमान को चिढाता सा .
    लिखा आपने अनुभूत हमने भी किया कई जगह बस यूं ही .बढ़िया भाव जगत की काव्यात्मक प्रस्तुति जीवन को उसके स्वरूप में लेती देखती जीती .

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  32. क्या कहें,हम तो हतप्रभ हैं...आपका काव्य-शिल्प भी गद्य की तरह ठोस व टिकाऊ है.

    सुन्दर रचना,जीवन के अनुभवों की !

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  33. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 10 -05-2012 को यहाँ भी है

    .... आज की नयी पुरानी हलचल में ....इस नगर में और कोई परेशान नहीं है .

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  34. जब भी पीड़ाओं से भागा, राहों में कुछ और खड़ीं,
    छोटी को झाँसा दे निकला, भाग्य लिखी थी और बड़ी,
    मन भागता क्यों है.....
    सब के सब निरुत्तरित क्यों हैं
    पर है सोच का विषय.....
    शुक्रिया प्रवीण भाई..
    आपने व्यस्त कर दिया एक नई सोच के लिये

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  35. Gaiye ..Gaiye ise...........

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  36. छोड़ चुका जो दूर कहीं, जग के मोह- नश्वर को
    नमन हमारा दिव्य चेतना के उत्तुंग शिखर को.

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  37. Anonymous11/5/12 03:15

    सारा हल्कापन जी डाला,
    सबको अर्थ वही पाने हैं, प्रश्न पृथक क्यों पूछें हम
    मीन बने हम विषय ताल में, कितना जल पी डाला है,

    जब भी पीड़ाओं से भागा, राहों में कुछ और खड़ीं,
    छोटी को झाँसा दे निकला, भाग्य लिखी थी और बड़ी,
    आगत का भय, विगत वेदना, व्यर्थ अवधि क्यों खीचें हम,
    दृश्य बदे जो, सब दिखने हैं, आँख रहे क्यों मींचे हम,

    एक एक शब्द, एक एक पंक्ति.. गहन अर्थ समेटे हुये... .कहीं कहीं इस रचना में हरिवंश राय जी की लेखन शैली का प्रभाव दिखता है ...ख़ासतौर से इन कुछ पंक्तियों में.. ये तो बस पाठक के मानस पटल पर अंकित हो कर ही रह जायेंगी.. अत्यन्त प्रभावशाली रचना..
    सादर
    मंजु

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  38. आगत का भय, विगत वेदना, व्यर्थ अवधि क्यों खीचें हम

    बहुत खूब ... सशक्त शिल्प और काव्य

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  39. देखो तो चलचित्र जगत का तरह तरह के रंग दिखाता,
    सबकी चाह एक जैसी ही, सबको सबके संग दिखाता,
    जीवन को एक सहज स्वीकार्यअ पैकेज के रूप में निरूपित करती है यह रचना . .बधाई स्वीकार करें .
    कृपया यहाँ भी पधारें -
    बुधवार, 9 मई 2012
    शरीर की कैद में छटपटाता मनो -भौतिक शरीर

    http://veerubhai1947.blogspot.in/2012/05/blog-post_09.html#comments

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  40. रचना सृष्टि बहाए ले जा रही है...किन्तु....हैं अशेष इच्छायें मन में ?

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  41. देखो तो चलचित्र जगत का तरह तरह के रंग दिखाता,
    सबकी चाह एक जैसी ही, सबको सबके संग दिखाता,
    सबको अर्थ वही पाने हैं, प्रश्न पृथक क्यों पूछें हम,
    न चाहें, फिर भी भरते घट, कहाँ रह सके छूछे हम,
    मीन बने हम विषय ताल में, कितना जल पी डाला है,
    जीवन को उतराते पाया, जब से होश सम्हाला है,
    हम, तुम, सब मदमस्त नशे में, किसने घोली चरस पवन में,
    हैं अशेष इच्छायें मन में।२।
    गजब का लिखा है आपने बहुत बढ़िया भाव संयोजन से सजी उत्कृष्ट रचना.....

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  42. जब भी पीड़ाओं से भागा, राहों में कुछ और खड़ीं,
    छोटी को झाँसा दे निकला, भाग्य लिखी थी और बड़ी,
    आगत का भय, विगत वेदना, व्यर्थ अवधि क्यों खीचें हम,
    दृश्य बदे जो, सब दिखने हैं, आँख रहे क्यों मींचे हम,
    मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी की आसान हो गईं .---------
    पूछना है गर्दिशे ऐयाम से, अरे हम भी बैठेंगे कभी आराम से .......
    एक बिम्ब यह भी है -
    जाम को टकरा रहा हूँ जाम से ,
    खेलता हूँ गर्दिशे ऐयाम से ,
    उनका गम उनका तसव्वुर ,उनकी याद, अरे ,कट रही है ज़िन्दगी आराम से ,
    जीवन संकल्पों को छिपाए है आपकी गेय रचना जिसमे जीवन की गत्यात्मकत है .सजीवता है तपिश और आंच है ,कुंदन को सोना बनाने वाली .बीच भंवर से नौका को निकालने वाली -
    तुलसी भरोसे राम के रहियो खाट पे सोय ,
    अनहोनी होनी नहीं ,होनी होय सो होय .
    कृपया यहाँ भी पधारें -
    सावधान :पूर्व -किशोरावस्था में ही पड़ जाता है पोर्न का चस्का

    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/05/blog-post_6453.html

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  43. गहन अर्थ समेटे हुये... एक एक पंक्ति बहुत खूब कई दिनों व्यस्त होने के कारण  ब्लॉग पर नहीं आ सका

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  44. जीवन को उतराते पाया, जब से होश सम्हाला है,
    हम, तुम, सब मदमस्त नशे में, किसने घोली चरस पवन में,

    बहुत खूब प्रवीन भाई...ये नींद टूटे तो फिर दिखे वो जो अनश्वर हैं...इंसानियत इक गहरी नींद में हैं और कालिदास बन उसी शाखा को कर रही हैं जिसमे हम बैठे हैं..प्रार्थना यही हैं जागरण हो. शीघ्र हो. नहीं तो बहुत देर हो जाएगी.

    बहुत खूब..Loved it!:-)

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  45. बहुत उम्दा गीत...गहन अर्थ!!

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  46. छोटी को झाँसा दे निकला, भाग्य लिखी थी और बड़ी,
    आगत का भय, विगत वेदना, व्यर्थ अवधि क्यों खीचें हम,
    दृश्य बदे जो, सब दिखने हैं, आँख रहे क्यों मींचे हम,
    ............एकदम खरी बात

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  47. वाह, मन प्रसन्न हो गया प्रवीण भाई

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  48. अदभुत श्रेष्ठ रचना!!
    तृष्णाओं के भंवर-जाल का शानदार उपमित शब्द चित्र!!
    किस पंक्ति का निर्देश करूं, हर एक पंक्ति गहन ज्ञान गम्भीर!!

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