25.5.11

जीवन दिग्भ्रम

अंग्रेजी में एक शब्द है, मिड लाइफ क्राइसिस। शाब्दिक अर्थ तो "बीच जीवन का दिग्भ्रम" हुआ पर इसका सामान्य उपयोग मन की उस विचित्र स्थिति को बताने के लिये होता है जिसका निराकरण लगभग सभी को करना पडता है, देर सबेर। आप चाह लें तो यह दिग्भ्रम कभी भी हो सकता है पर 35 से 50 के बीच की अवस्था उन स्थितियों के लिये अधिक उपयुक्त है जिनकी चर्चा यहाँ की जा रही है।

जीवन में घटनाक्रम गतिमान रहता है और हम उसमें उलझे रहते हैं। जैसे जैसे स्थिरता आती है, हमारी उलझन कम होने लगती है और सुलझन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, जिसे सार्थक चिन्तन भी कहते हैं। पहले पढ़ाई, प्रतियोगी परीक्षायें, नौकरी, विवाह, बच्चों का लालन पालन, यह सब होते होते सहसा एक स्थिति पहुँच आती है, जब लगता है कि अब आगे क्या? कुछ लोगों का भौतिकता के प्रति अति उन्माद नौकरियाँ बदलने व अकूत सम्पदा एकत्र करने में व्यक्त होता है, उनके लिये थोड़ा देर से यह प्रश्न उठता है पर यह प्रश्न उठता अवश्य है, हर जीवन में। जब तक ऊँचाईयाँ दिखती रहती हैं, हम चढ़ते रहते हैं, जब जीवन का समतल सपाट आ जाता है, हमें दिग्भ्रम हो जाता है कि अब किस दिशा जायें?

जीवन में एकरूपता, उन्हीं चेहरों को नित्य देखना, रोचकता का लुप्त हो जाना, यह सब मन को रह रह कर विचलित करता है। मन का गुण है बदलाव, उसे संतुष्ट करने के लिये बदलाव होते रहना चाहिये। जब बदलाव की गति शून्यप्राय होने लगती है, मन व्यग्र होने लगता है। अब सामान्य जीवन में 35 वर्ष के बाद तेज गति से बदलाव लाने के लिये तो बहुत उछल कूद करनी होगी, नहीं तो भला कैसे आ पायेगा बदलाव?

अब कई लोग जिन्होने स्वयं के बारे में कभी कुछ सोचा ही नहीं, उन्हें यह स्थिति सोचने के लिये प्रेरित करती है और उनके लिये चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। वहीं कुछ लोग ऐसे भी रहते हैं जिन्हें यह स्थिरता नहीं सुहाती है और वह अपने जीवन में गति बनाये रखने के लिये कुछ नया ढूढ़ने लगते हैं। स्वयं की खोज करें या स्वयं को इतना व्यस्त रखें कि मन को कोई कष्ट न हो, इस दुविधा का नाम ही जीवन दिग्भ्रम है।

अपनी उपयोगिता पर सन्देह और सारे निकटस्थों पर उसका दोष, कि कोई उन्हें समझ नहीं पा रहा है। यह दो लक्षण हैं सम्भवतः इस दिग्भ्रम के। जो इसे पार कर ले जाता है, सफलतापूर्वक, उसे जीवन में कभी कोई मानसिक कष्ट नहीं आता है। जो इसे टालता रहता है, उसे इसकी और अधिक जटिलता झेलनी पड़ती है। यही एक अवस्था भी होती है जिसे जीवन में संक्रमणकाल भी कहते हैं। यही समय होता है जब आप अपने निर्णय लेते हुये जीवन को एक निश्चित दिशा दे जाते हैं, सारे दिग्भ्रमों से परे।
 
समस्या सबकी है, उपाय एक ही है। अपने जीवन पर एक बार नये सिरे से सोच अवश्य लें, हो सकता है कि एक नये व्यक्तित्व को पा जायें आप अपने अन्दर, हो सकता है कि आप स्वयं को पहचान जायें। कुछ इस प्रक्रिया को जीवन समेटना कहते हैं, कुछ इसे सार्थक जीवन की संज्ञा देते हैं, अन्ततः दिग्भ्रम कुछ न कुछ तो सिखा ही जाते हैं। वैसे भी जीवन से सम्बन्धित सारा ज्ञान हम अपने शैक्षणिक जीवन में ही नहीं सीख जाते हैं, हमारा अनुभव सतत हमें कुछ न कुछ सिखाता रहता है। कई परिस्थितियाँ जीवन के पथ पर ऐसे प्रश्न छोड़ देती हैं जिनको सम्हालने में पूरा अस्तित्व झंकृत हो जाता है। कोई भी झटका खाकर आहत हों तो चोट झाड़ने के पहले ही यह प्रश्न स्वयं से पूछ लें कि क्या सीखा इससे?

जो इसे पार कर चुके हैं, वे यह पढ़कर मुस्करा रहे होंगे। जो अभी यहाँ पर पहुँच रहे हैं, उन्हें यह व्यर्थ का आलाप लगेगा। जो इस दिग्भ्रम में मेरे साथ हैं, वे पुनः यह पढ़ेंगे।

88 comments:

  1. प्रवीण जी सबसे पहले तो इस विषय पर लिखने के लिए आभार. यह कइयों को रास्ता दिखा सकता है. 35-50 के बीच का जीवन ऐसा होता है कि व्यक्ति को अपना जीवन-परिवेश गले में पड़ा ढोल लगने लगता है. उसे तलाशना ही पड़ता कि इसे किस ढँग से बजाया जाए कि वह सार्थक लगे. इससे संबंधित समस्याओं का एक हल यह है कि व्यक्ति अपने पारिवारिक परिवेश को प्रेममय और आंतरिक जीवन को शांत रखने की कवायद करे और उसकी आदत डाले.
    वैसे प्रत्येक व्यक्ति इससे अपने तरीके से निपटता है जो मन को समझाने-बुझाने और लगाने का रास्ता है.

    ReplyDelete
  2. जीवन में घटनाक्रम गतिमान रहता है और हम उसमें उलझे रहते हैं। जैसे जैसे स्थिरता आती है, हमारी उलझन कम होने लगती है और सुलझन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है


    bahut satek vichaar...abhaar

    ReplyDelete
  3. पुनः पढ़ा, सह-मति सहित.

    ReplyDelete
  4. मिडलाइफ क्राइसिस शायद सामान्य भारतीय जीवन का अंश नहीं रहा है। यह आधुनिक युग का फिनॉमिना या अभिशाप है।
    अन्यथा, पहले भारतवासी अपनी संतति या पुनर्जन्म के माध्यम से अनंत तक जीने की क्षमता रखते थे। अब वह आस्था गुम हो गयी है। सबकी। मेरी भी! :(

    ReplyDelete
  5. संतुलित गति का नाम ही जीवन है ...ठहरा हुआ तो पानी भी कीचड हो जाता है !

    ReplyDelete
  6. 35-50 की अवस्था में क्या दिग्भ्रम ! यहां से तो स्थिरता आनी शुरू हो जाती है। समस्याओं के प्रति किंकर्तव्यविमूढ़ता ! वह तो किसी भी उम्र में हो सकती है। वैसे 35-50 के बीच 15 साल का अंतराल काफी लम्बा है। सभी में यह समान रूप से लागू होगा, इसमें भी संदेह है।

    ReplyDelete
  7. मै भी दिग्भ्रमित हो रहा हूं . जीवन का यह दौर मुझे कहता है यह सब किस लिये किसके लिये . आपाधापी सी है मेरा छोटा से परिवार मे जितने सदस्य है वह सब अलग अलग शहरो मे रह रहे है सोचता हूं यह किस लिये लेकिन ............ कभी तो शान्ति मिलेगी .
    आपका यह लेख सच मे राह दिखाता है

    ReplyDelete
  8. दिग्भ्रम तो जीवन के हर मोड़ पर होते हैं। इन से निकल कर अपने मार्ग का स्वयं चुनाव करना ही जीवन में सफलता प्राप्त करने का अचूक उपाय है।

    ReplyDelete
  9. अंगरेजी का एक शब्द -मिड लाईफ क्राईसिस -यह तो तीन हुआ !:)
    और सही अनुवाद =मध्य जीवन की त्रासदी हुयी न ?
    जहां तक जीवन में दिग्भ्रमित होने की बात है यह जीवन भर चलने वाली स्थिति है ...
    हाँ मिलती जुलती एक और भयावह स्थिति है -मेल मीनोपाज !
    वह अभी आपके लिए दूर है -मैं जरुर गुजर रहा हूँ उससे !
    इस पर डॉ .अमर कुमार विशेषग्य की हैसियत से लिख सकते हैं -पता नहीं आपके पाठक हैं भी या नहीं !

    ReplyDelete
  10. अंगरेजी का एक शब्द -मिड लाईफ क्राईसिस -यह तो तीन हुआ !:)
    और सही अनुवाद =मध्य जीवन की त्रासदी हुयी न ?
    जहां तक जीवन में दिग्भ्रमित होने की बात है यह जीवन भर चलने वाली स्थिति है ...
    हाँ मिलती जुलती एक और भयावह स्थिति है -मेल मीनोपाज !
    वह अभी आपके लिए दूर है -मैं जरुर गुजर रहा हूँ उससे !
    इस पर डॉ .अमर कुमार विशेषग्य की हैसियत से लिख सकते हैं -पता नहीं आपके पाठक हैं भी या नहीं !

    ReplyDelete
  11. जीवन में एकरूपता, उन्हीं चेहरों को नित्य देखना, रोचकता का लुप्त हो जाना, यह सब मन को रह रह कर विचलित करता है। मन का गुण है बदलाव, उसे संतुष्ट करने के लिये बदलाव होते रहना चाहिये। जब बदलाव की गति शून्यप्राय होने लगती है, मन व्यग्र होने लगता है।


    बदलाव तो हर पल हर घड़ी हो रहा है -बस आप उसे महसूस नहीं कर रहे हैं |हर सोच ,हर पल ,व्यक्ति मन से जुड़ा है |हर प्रक्रिया के दो पहलू हैं ...ये '' जीवन दिग्भ्रम" भी मन की ही तो सोच है .....
    इसलिए --''दुखी रहने का सामान
    मत एकत्रित करो -
    सुखी रहने के बहाने ढूंढो "

    बहाने ज़रूर ठोस होने चाहिए ...!!

    ReplyDelete
  12. wakai maine ise kai baar padha aur kai baaton per gaur kiya ... bahut hi suksh adhyayan

    ReplyDelete
  13. बाबा कुछ उपाय ?

    ReplyDelete
  14. यहाँ ज्ञानियों की महफ़िल सजी है !हम तो :) कर
    निकाल रहें हैं |
    खुश रहें !
    आशीर्वाद!
    अशोक सलूजा!

    ReplyDelete
  15. सर जी बहुत ही गहराई पूर्ण लेख ! जो जीता वही सिकंदर !

    ReplyDelete
  16. इस से तो सभी को दो-चार होना पड़ता है... कुछ हो चुके, कुछ हो रहे हैं और बाकी बचे हुए होने वाले हैं...

    ReplyDelete
  17. वैसे भी जीवन से सम्बन्धित सारा ज्ञान हम अपने शैक्षणिक जीवन में ही नहीं सीख जाते हैं, हमारा अनुभव सतत हमें कुछ न कुछ सिखाता रहता है

    और यह प्रक्रिया निरंतर चलती उम्र भर ... सार्थक लेख

    ReplyDelete
  18. प्रवीण जी,
    यहाँ अमेरिका में नया फ़िनामिना पनप रहा है, आप इसे थर्ड लाईफ़ क्राईसिस कह सकते हैं। इसके शिकार अधिकतर ३० के अन्दर वाले युवा हो रहे हैं जो सोच रहे हैं कि उन्होने जीवन में कालेज, रिलेशनशिप इत्यादि में जितना निवेश किया उसके अनुकूल परिणाम नहीं मिला। मिड लाईफ़ क्राइसिस वाले कम से कम अपने कैरियर में जमें होते हैं और आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं। इस नयी क्राईसिस के शिकार बडी परेशानी में हैं क्योंकि ये उनके पैर जमने से पहले ही आ खडी हो रही है।

    ReplyDelete
  19. Anonymous25/5/11 10:14

    अभी तो ज़ोर शोर से जीवन की चढाई चढ़ रहे हैं, मिड-लाइफ क्राइसिस अभी नहीं आया, समय है उसे|
    जब समतल जगह आएगी उसका तो तभी कुछ निराकरण किया जा सकेगा, तब तक तो हम चलते ही जा रहे है, कुछ बदल रहे हैं, कुछ पुराना ही साथ रख रहे हैं |
    .
    .
    .
    शिल्पा

    ReplyDelete
  20. जिन्‍दगी की उहापोह किसी भी आयु में हो सकती है और कभी भी ना हो, ऐसा भी हो सकता है। जो लोग सृजनात्‍मक कार्य करते हैं, वे इस दौर से कम गुजरते हैं। वर्तमान नवीन पीढ़ी जो अकस्‍मात ही बहुत कुछ पा जाती है, उसके लिए यह उहापोह अधिक होता है। लेकिन भारत में ऐसे लोग मुठ्ठी भर हैं। यदि ऐसे लोग परिवार या समाज से जुड़े रहें तो किसी भी दिग्‍भ्रम की स्थिति नहीं बनती है। परिवार उसे सतत कर्तव्‍य पालन की सीख देता है।

    ReplyDelete
  21. स्वयं की खोज करें या स्वयं को इतना व्यस्त रखें कि मन को कोई कष्ट न हो, इस दुविधा का नाम ही जीवन दिग्भ्रम है।

    स्वयं की खोज करना भी तो व्यस्तता ही है.
    सुन्दर सार्थक लेख के लिए आभार.

    ReplyDelete
  22. हम आपके साथ है , कई बार पढना पड़ेगा .. सु विचारित आलेख .

    ReplyDelete
  23. दो बार पढ़ा ...मैं भी सहमत हूँ ! शुभकामनायें !!

    ReplyDelete
  24. जीवन में होने वाले दिग्भ्रम पर महत्वपूर्ण आलेख...

    ReplyDelete
  25. सच में उम्र के उस मोड़ पर जब आप अपने तय किये सारे मार्क पा जाते है फिर आगे क्या ? की स्थिति आ जाती है ..

    ReplyDelete
  26. पाण्डेय जी, मैं न मुस्कुराया और न पुनः पढ़ा... शायद मैं दिग्भ्रमित नहीं हुआ )

    ReplyDelete
  27. ई परिस्थितियाँ जीवन के पथ पर ऐसे प्रश्न छोड़ देती हैं जिनको सम्हालने में पूरा अस्तित्व झंकृत हो जाता है। कोई भी झटका खाकर आहत हों तो चोट झाड़ने के पहले ही यह प्रश्न स्वयं से पूछ लें कि क्या सीखा इससे?

    जो इसे पार कर चुके हैं, वे यह पढ़कर मुस्करा रहे होंगे। जो अभी यहाँ पर पहुँच रहे हैं, उन्हें यह व्यर्थ का आलाप लगेगा। जो इस दिग्भ्रम में मेरे साथ हैं, वे पुनः यह पढ़ेंगे।

    यही ज़िन्दगी की सच्चाई है और ये दौर तो सबके जीवन मे आता ही है…………आपने अच्छा सुझाव दिया है।

    ReplyDelete
  28. ही ही ही..
    मैं मुस्कुरा ही नहीं, हँस भी रहा हूँ...

    हैट टिप - अनुभूत प्रयोग : हो सके तो काम धंधा बदल दें, शहर - दाना -पानी बदल दें या फिर कोई नई, सार्थक हॉबी पाल लें.

    ReplyDelete
  29. इस प्रक्रिया से मिड लाइफ में ही नहीं बल्कि किसी भी उम्र में गुजरा जा सकता है.अपनी अपनी जीवन शैली पर निर्भर करता है.
    बहुत बढ़िया आलेख.

    ReplyDelete
  30. गहन भावों के साथ्‍ा ...सार्थक चिंतन ..।

    ReplyDelete
  31. एक बार ठहरकर ,सुस्ताकर फिर से उर्जा अर्जित कर रुके कामो को ,या जो नहीं किये जा सके उनके लिए बहुमूल्य मौका |
    "चालीसवा साल धोका या मौका "

    ReplyDelete
  32. सही निर्णय न कर पाना इसका मूल कारण है !
    बहुर ही सुन्दर, सार्थक और हृदयग्राही लेख !

    ReplyDelete
  33. अभी तक दिग्भ्रमित ही है, इसलिए निसंदेह आपके साथ है पुनः श्च पढने के लिए .

    ReplyDelete
  34. बहुत सही कहा...कभी न कभी जीवन में यह संक्रमणकाल आता ही है...भौतिकता में सुख संधान वालों के जीवन में विलम्ब से आता है,पर आता है...और जब आता है, यदि जीवन को सकारात्मक दिशागमन न मिले, तो आदमी अवसाद के बवंडर में काफी लम्बा फंसा रह जाता है...

    विचारणीय, महत ,इस सुन्दर आलेख के लिए आपका साधुवाद...

    ReplyDelete
  35. क्या बात है, बहुत सुंदर

    ReplyDelete
  36. आप मानें या न मानें यह एक ऐसी स्तिथि है जिससे सभी को गुज़रना पडता है..बहुत ही सार्थक और गहन विश्लेषण..विचारणीय पोस्ट

    ReplyDelete
  37. कई बार मिडलाइफ क्राइसिस से इसलिए भी गुजरते हैं....समय कम दिखता है...कार्य ढेर सारे...और कितने शौक अपने पूरे होने की बाट जोहते नज़र आते हैं

    ReplyDelete
  38. जीवन जीने का अपना द्रष्टिकोण होता है . यह नजरिया समय-समय पर बदलता रहता है,पर एक बात साफ़ है कि किसी की बुनियादी प्राथमिकताओं में बदलाव बहुत मुश्किल होता है.
    कई लोग यह सब तब महसूसते हैं जब उनके हाथ से सब कुछ फिसल जाता है !

    दिग्भ्रमित होना गलत नहीं है पर उससे सबक न लेना नुकसानदेह है !

    ReplyDelete
  39. दिग्भ्रम ?आगे करने को इतना कुछ रहा कि ऐसा कुछ लगा नहीं .व्यस्त रहने की आदत है - खाली बिलकुल नहीं रह सकती .लिखने के साथ ,पढ़ाई ,कढ़ाई,बुनाई ,घुमाई या जो पढ़-पढ़ा चुकी हूँ ,देख-सुन चुकी हूँ उसकी जुगाली .
    ऐसा कुछ कभी लगा हो -याद नहीं आता .

    ReplyDelete
  40. na dainyam na palayanam

    yaad dilane ke liye dhanyawad

    ReplyDelete
  41. अभी समय नहीं आया है जब निर्णय लेना पडेगा तब देखा जाएगा | तब आपकी ये पोस्ट रास्ता दिखायेगी |

    ReplyDelete
  42. हम तो सदा के दिग्भ्रमित हैं:)

    ReplyDelete
  43. बिल्कुल सही विचार है दिग्भ्रमित ही क्यों ... जब जब सामान्य से अलग हट कर कुछ होता है ... नया विचार .. नयी दिशा दे जाता है ... इसलिए नये नये रास्ते ... नई सोच नये प्रयोग ज़रूर अपनाने चाहिएं ,,,

    ReplyDelete
  44. विषय क्लिष्ट है,परंतु आपके आलेख ने सरल कर दिया । बहुत खूब ।

    ReplyDelete
  45. jeevan matlab gati hai. gati jab sahee naa ho to tab kee isthiti ko bhi batati hai ye lekh, sunder.

    ReplyDelete
  46. --क्राइसिस का अर्थ दिग्भ्रम नही त्रासदी हुई....यह एमरजेन्सी स्थिति है और सब के साथ नहीं होती, होती है तो सबकी अलग अलग व अलग अलग कारणों से अत: कोई एक नियम/ रास्ता नहीं होसकता...
    -- यदि इसे दिग्भ्रम लिया जाय तो जैसा ग्यान्दत्त जी ने कहा यह भारतीय जीवन का अन्श नहीं जहां प्रत्येक कदम पर प्रौढता के साथ गुरु-गाम्भीर्य आना आवश्यक होता है....हां पाश्चात्य-आधुनिक-भोगवादी-संस्क्रिति में यह एक फ़ैशन के तौर पर हो सकता है जहां कम उम्र में ही सब कुछ मिल जाता है और कर्म ईश्वर आधारित नहीं होता तथा ईश्वर, धर्म,दर्शन, साहित्य, भजन-पूजन का कोई स्थान नहीं होता.. अत: मनुश्य को कुछ और पाने/ करने को नहीं होता ...

    ReplyDelete
  47. ....बहुत ही सार्थक और गहन विश्लेषण..विचारणीय पोस्ट

    ReplyDelete
  48. बहुर ही सुन्दर, सार्थक और हृदयग्राही लेख|धन्यवाद|

    ReplyDelete
  49. पंकज जी आपकी पोस्ट पढने के बाद मुझे भ्रम होने लगता है कि यह मेरी लेखनी से ,मेरी मस्तिष्क से जन्मा है .मेरे कथन का तात्पर्य कतई यह नहीं है कि मैं आपकी तरह या आप मेरी तरह लिखते हैं.आपकी लेखनी को नमन.बहुत उंचाई पर है. मैं कहीं पर नहीं लगता.फिर भी न जाने क्यूँ ? विचारों में काफी साम्यता लगती है.आप लिख लेते हैं ,मैं लिख नहीं पाता.आपकी की कलम ने मुझे गहराई तक प्रभावित किया है.

    ReplyDelete
  50. सच में, इस विषय पर लिखने के लिये बहुत बहुत बधाई!
    साभार-
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

    ReplyDelete
  51. अनुभवों से जुडा सत्य...

    ReplyDelete
  52. अपने जीवन पर एक बार नये सिरे से सोच अवश्य लें, हो सकता है कि एक नये व्यक्तित्व को पा जायें आप अपने अन्दर, हो सकता है कि आप स्वयं को पहचान जायें।

    सच ही कहा है ऐसी स्थिति कभी न कभी सबके जीवन में आती ही है और आप दिग्भ्रमित से सोचने को विवश हो जाते है.

    ReplyDelete
  53. अच्छी पोस्ट.

    अनुवाद में शब्द-भेद पर चर्चा न करके यह कहा जा सकता है कि निरर्थकता का बोध होना भी कभी मनुष्य के मोहभंग के लिए ज़रूरी हो जाता है.

    अनिर्णय तो दिग्भ्रम से जुदा है ही.

    खुद ही निकलना भी होता है हमें अपने रचे इन भँवरजालों से. तब थोड़ी सी अनासक्ति की ट्रेनिंग बड़े काम की चीज़ हो सकती है. हाँ, अनासक्ति का अर्थ वैराग्य नहीं.

    ReplyDelete
  54. उस पार परबतों के तनवीर दिख रही है|
    खुशहाल ज़िंदगी की तसवीर दिख रही है|
    हालाँकि, रास्तों में फ़िलहाल मुश्किलें हैं|
    पर, बाद मुश्किलों के - तक़दीर दिख रही है||

    प्रवीण भाई, समय निकाल कर पढ़ने का मज़ा और ही है, आप के ब्लॉग को| बधाई मित्र| बहुत ही उपयोगी जानकारी साझा की है आपने|

    ReplyDelete
  55. इस परिस्थिति से गुजरते तो सभी हैं ,पर स्वीकार कम ही लोग कर पाते हैं ।आपने लिखते समय संतुलन दिखाया है ,अच्छा लगा ।ये परिस्थिति किसी उम्र विषेश पर नहीं अपितु मन के खालीपन की अवस्था पर निर्भर करती है ।इसका समाधान भी अपनी रुचि के अनुसार ही निकालें तो बेहतर होता है ......आभार !

    ReplyDelete
  56. Anonymous26/5/11 15:02

    बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

    ReplyDelete
  57. हर उम्र में.. 'व्यस्त रहो ...मस्त रहो' :) यह आपका ही फार्मूला है..फिर जीवन दिग्भ्रम होगा ही नहीं...

    ReplyDelete
  58. आयु बढ़ने और परिवार / परिवेश / समाज में अपनी उपादेयता और आवश्यकता कम प्रतीत होती लगना/ होना मानवीय मन को नैराश्य देने के बड़े कारक हैं.

    व्यक्ति की सहभागिता को महत्त्व व नैरन्तर्य देकर उसकी इस मनःस्थिति से उबारने में परिवार/ समाज व परिवेश को सहयोग देना अनिवार्य चाहिए. सहभागिता के अवसर भी मुहैया कराने चाहिएँ, और तरीके भी बदलेंगे ही; यह दोनों पक्षों को खुले मन से स्वीकारना चाहिए.

    ReplyDelete
  59. यह केवल एक आधुनिक समस्या है।
    ज्यादातर, ये सोफ़्टवेयर वाले इस रोग से ग्रसित होते हैं

    डाक्टरों, वकीलों चार्टर्ड अकाउन्टन्टों को ऐसा कुछ नहीं होता।
    हर साल, उनका तज़ुर्बा बढता रहता है और वे अपने काम में और भी दक्ष बनते जाते है।
    समाज में उनका सम्मान बढता रहता है।
    सोफ़्टवेयर में ऐसा नहीं होता। चालीस की उम्र के बाद यह लोग घबरा जाते हैं।
    पारिवारिक परेशानियाँ, जिम्मेदारियाँ, स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के साथ, नयी पीढी के सहयोगियों का आधुनिक ज्ञान, नयी टेक्नोलोजी, वगैरह से परेशान होते हैं ।
    टेक्नोलोजी की तेजी से बढती प्रगती के साथ अपना दौड कायम नहीं रख पाते।
    Mid life crisis तो स्वाभाविक है।

    हमें ऐसा कुछ नहीं हुआ। हम इन्जिनियर जो ठहरे।
    पर आजकल मिड लाईफ़ क्राइसिस के बजाय End life crisis से डरने लगा हूँ।
    साल दो साल ही बाकी है अपना कैरियर समाप्त करने में।
    आगे क्या करूंगा, इसकी चिन्ता बनी रहती है

    शुभकामनाएं
    जी विश्वनाथ

    ReplyDelete
  60. 35-50 की अवस्था में क्या दिग्भ्रम पता नही वैसे हम भी सब पापड बेल चुके हे, ओर अब इस अबस्था को छोड चुके हे, मस्त हे पता हे आगे क्या करना हे, क्यो करना हे,बहुत ही अच्छी बात लिखी आप ने मुझे लगता हे जो ५०,५५ के बाद भी इस अवस्था को नही समझता वो हमेशा बेचेन ही रहता होगा...

    ReplyDelete
  61. इन्हीं राहों से गुजरे हैं मगर हर बार लगता है
    अभी कुछ और, अभी कुछ और, अभी कुछ और बाकी है....



    -बहुत उम्दा जीवन दर्शन!!!

    ReplyDelete
  62. The best solution to this is -- "take challenges" and enjoy the thrill.

    ReplyDelete
  63. जीवन तो गतिमान है और तब तक रहता है जब तक हम उसकी उपयोगिता अच्छी तरह समझ सकते है....बहुत अच्छा आलेख....

    ReplyDelete
  64. अभी तो बहुत दूर है ये पड़ाव हमारे लिए पर हाँ पढ़ कर अच्छा लगा आपका ये लेख......
    पहले से ही ध्यान रखेंगे........अच्छी पोस्ट!!

    ReplyDelete
  65. आपके विचार इतने खुबसूरत हैं की आप अपनी बात को बहुत खूबसूरती से हमारे आगे रखने में सक्षम होते हैं | मैं आपकी बात से पूरी तरह समत हूँ बचपन और युवावस्था में हमारे पास करने को इतने काम होते हैं की हमे किसी और तरफ देखने की फुर्सत ही नहीं मिलती पर जब जैसे -२ हम अपनी जिम्मेदारियों से निजात पते जाते हैं और सब अपनी जिम्मेदारी संभाल लेते हैं तो हरेक अपने आप में व्यस्त हो जाता है क्युकी यु समझो समय उनको वो समय दे देता है और हम उसी सम्मान की खोज में खुद को जानने के लिए फिर से तैयारी शुरू कर देते हैं | कहते हैं न समय खुद को दोहराता है | तो जहां कल हम थे आज हमारे बच्चे हैं और कल उनके बच्चे ? तो सफ़र है दोस्त चलता ही रहेगा :) |
    बहुत अच्छा विषय |

    ReplyDelete
  66. जीवन में दिग्भ्रमित होने के लिए भी किसी उम्र की ज़रूरत होती है (!)
    ... जब चाहा हो लिए :)

    ReplyDelete
  67. हाँ बिलकुल सही कहा आपने लेकिन ये दिग्भ्रम भी आपके छुपी हुयी प्रतिभा या आपके व्यक्तित्व से ही उपजता है और ये खासकर उन लोगों में ज्यादा पनपता है जो स्वाभिमानी हैं,कर्तव्य को ईमानदारी से करने का भरसक प्रयास करने वाले होते हैं,जो चिन्तनशील होते हैं ..भैंश किस्म के लोगों को ना ये दिग्भ्रम होता है और ना ही हो सकता है क्योकि ऐसे लोगों के पास कोई चिंतन नहीं होता ....और ये दिग्भ्रम किसी भी सच्चे इंसान को जीवन की सबसे परम सत्य से अवगत कराता है तथा सोच में और भी निखार लाता है ..ये दिग्भ्रम है तो बरी कमाल की और उपयोगी चीज ,इससे ही कोई व्यक्ति व्यवहारिक स्तर पर जीवन में कुछ गहराइयों तक सीख पाता है ....बहुत ही बढ़िया पोस्ट है ..शानदार....

    ReplyDelete
  68. अनुशासनपूर्ण और गतिशील जीवन में इस प्रकार के दिग्भ्रम की संभावना कम होनी चाहिए |

    ReplyDelete
  69. जब कुछ नया करना सीखना बंद कर देता है व्यक्ति तब यह समस्या आजाती है .बचाव का एक ही रास्ता है .रोज़ विवेचन -आज क्या सीखा मैंने नया .क्या दिया नया समाज को घर को .नकार (मोड़ ऑफ़ डिनायल में जीना )समस्या का हल नहीं है .उलझाव है .

    ReplyDelete
  70. समस्या सबकी है, उपाय एक ही है। अपने जीवन पर एक बार नये सिरे से सोच अवश्य लें, हो सकता है कि एक नये व्यक्तित्व को पा जायें आप अपने अन्दर, हो सकता है कि आप स्वयं को पहचान जायें। कुछ इस प्रक्रिया को जीवन समेटना कहते हैं, कुछ इसे सार्थक जीवन की संज्ञा देते हैं, अन्ततः दिग्भ्रम कुछ न कुछ तो सिखा ही जाते हैं।
    padhte huye ram gayi isme ,bahut hi badhiya ,aham aur naya likha hai ,shayad isse kai jindagi sambhal jaaye .ek baar aur padhoongi man nahi bhara .mahtavpoorn baate hai .aapki aabhari hoon

    ReplyDelete
  71. praveen ji
    nihsandeh is baar aapki post ek alag si par haqikat ko vyakhit karti hai .
    sach hai jo jeevan me kabhi kabhi asfal rah jaate hain vah vatav me digbhrmit hi hote hain kyon ki unka jeevan disha -heen hokar rah jaata hai aur vah apne laxhy prapti ke marg se hat kar uljhano me ghirte chale jaate hain aur ant tak ye bhatkav jivan me bana hi rahta hai
    is vishhy par likhne ke liye bahut hi saare raste dikh rahen hain par aapki jabar dast lekhni ke aage aur kuchh likhne ki jarurat nahi mahsus hoti.
    bahut hi prabhav purn v saath hi saath uljhano se niptne ka rasta bhi dikhata hai aapka behtreen aalekh
    bahut bahut
    hardik badhai
    poonam

    ReplyDelete
  72. लगता है अपना नंबर आने वाला है..

    ReplyDelete
  73. यह तो काफी हटकर आलेख है... बहुत अच्छा लगा इस दिग्भ्रम के बारे में जानकार..
    फिलहाल तो तय नहीं कर पा रहा हूँ कि इस रोग से ग्रसित हूँ कि नहीं पर भविष्य में हमेशा ध्यान में रहेगा..
    धन्यवाद इसके लिए...

    ReplyDelete
  74. मैं चौंसठवें में चल रहा हूँ और आपकी यह पोस्‍ट पढते-पढते बराबर लगता रहा कि इापने मुझ पर ही यह लिखी है।

    ReplyDelete
  75. मैं चौंसठवें में चल रहा हूँ और आपकी यह पोस्‍ट पढते-पढते बराबर लगता रहा कि इापने मुझ पर ही यह लिखी है।

    ReplyDelete
  76. ई जीवन बड़ी बेरहम चीज है ....जित्ता सोचो उत्ता फसों !......शायद यही अवस्था है जिससे आजकल हम गुजर रहें हैं ......मिडलाइफ क्राइसिस

    ReplyDelete
  77. Sir Aapki post hamesa aapke charo taraf ho rahe ghatanao se prerit rahati.......is baar swayam se prerit hai.

    Chalisaven basant ki shubh kamanayen....

    ReplyDelete
  78. Sir Aapki post hamesa aapke charo taraf ho rahe ghatanao se prerit rahati.......is baar swayam se prerit hai.

    Chalisaven basant ki shubh kamanayen....

    ReplyDelete
  79. Mid Life Crisis....ummed hai isse nahi gujrna padega....lakshya saaf hai....itna kuch karna hai ki shayad hii kabhi ye prashn utha paaun kii aage kya!!

    ReplyDelete
  80. यह सिर्फ 35-50 की समस्या नहीं है. मरते दम तक बनी रहती है. जीवन में खाली स्पेस न छोड़ें. लेख का विषय वस्तु अच्छा लगा. धन्यवाद.

    ReplyDelete
  81. Sab kuchh hone ke bavjud aadmi laga rahta hai.

    ReplyDelete
  82. Apne sahi kaha. Laksya bana kar admi chalta rahta hai. Pahunch jane per laksya gayab ho jata hai. Phir se kuchh nai laksya banayen aur chalna suru karen. Digbhram nahin ayega. Umra ko samne mat layen. Chalte rahen.

    ReplyDelete
  83. यह दिग्भ्रम ही दिशा बोध कराएगा। अज्ञान का बोध ही ज्ञान प्राप्ति की दिशा में पहला कदम होता है।

    ReplyDelete
  84. यह दिग्भ्रम ही दिशा बोध कराएगा। अज्ञान का बोध ही ज्ञान प्राप्ति की दिशा में पहला कदम होता है।

    ReplyDelete
  85. awesome information and its wonderful. I really enjoyed it

    ReplyDelete
  86. very nice article you write this article in the meaningful way thanks for sharing this.
    plz visit my website

    ReplyDelete