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9.3.21

मित्र -१५(श्रम और श्रेय)

अशोक व्यग्र थे। जिस कार्य को यत्न, परिश्रम और लगन से खड़ा करने में वर्षों लगे, सहसा कोई आ टपकता है और श्रेय लेकर चला जाता है। अशोक भावनात्मक जीव नहीं हैं और अपने प्लांट में उनकी छवि जीवट प्रबन्धक की है, कार्य निष्पादक के रूप में। हर परिस्थिति में प्रसन्न रह लेना उनके स्वभाव का अंग है पर मित्रों से बातचीत में मन के कुछ अव्यक्त और खटकते भाव शब्द पा जाते हैं। “रहिमन निज मन की व्यथा” वाला दोहा मित्रों में प्रयुक्त नहीं होता है और न ही होना चाहिये। कई बार अपना कोमल पक्ष घर में नहीं बताया जा सकता है क्योंकि वहाँ पर आपका रूप सबकी व्यथा सम्हालने का होता है, न कि अपनी व्यक्त करने का।

पूछा कि क्या ऐसा पहली बार हुआ है? बहुत बार लगभग यही हुआ है, थोड़ा बहुत भिन्न रूपों में। ऐसे कटु अनुभवों की प्रायः वह उपेक्षा कर देते हैं और कर्मयोगी के रूप में अपने प्लांट के प्रति सतत समर्पित रहते हैं। श्रेय पर अपना अधिकार जताने की या उसे बताने की प्रवृत्ति ईश्वर ने उनको नहीं दी है या यह करना उनको याचक सा कृत्य लगता हो। एक कार्य में जब कई लोगों ने हाथ लगाया हो या दृष्टि जमाई हो या चर्चा चलाई हो, तो सफलता का श्रेय बटने में अन्याय हो ही जाता है। श्रेय आर्थिक नहीं भी हो, पीठ थपथपा देना या कंधे पर हाथ रख देना ही पर्याप्त होता है। प्रशंसा इतनी मादक होती है कि उसके सम्मुख धनप्रदत्त सुख क्षीणवत हो जाते हैं। कार्यक्षमता कई गुना बढ़ जाती है। वहीं इसके विपरीत जब लगता है कि अन्याय बार बार और जानबूझ कर किया जा रहा है तो कार्य अतिसामान्य क्षमता में निष्पादित होता है। 

एक प्रबन्धक के रूप में और रेलवे में लगभग २५ वर्ष के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि अपने कनिष्ठों के कार्य का श्रेय ले जाना मुर्गी को काट कर सारे अण्डे एक साथ निकालने जैसा है। उसके बाद मुर्गी अण्डे देने की स्थिति में ही नहीं रहती है। कनिष्ठों का मनोबल टूट जाता है। कनिष्ठों को कार्य का श्रेय देने से आपको स्वयं ही उनके नेतृत्व का श्रेय मिल जाता है। समझदार अधिकारी जानता है कि जो कार्य कई लोगों ने मिलकर किया हो, उसमें एक का श्रेय लेकर उभरना कईयों के प्रति अन्याय करने के बाद हुआ होगा। 

कार्य यदि अपेक्षित कोटि का नहीं भी हुआ तो भी प्रयास का श्रेय दिया ही जा सकता है। एक दो बार यह प्रयोग भी किया है कि किसी कार्य के लिये एक ढीले कर्मचारी को भी आंशिक श्रेय दिया। आत्मग्लनि का भाव रहा हो या नव उत्साह हो, उस कर्मचारी ने अगला कार्य सर्वोत्तम कर के दिखाया और सच्चा श्रेय साधिकार अर्जित किया। 

मेरे अनुभव सुनाने से संभवतः अशोक का क्षोभ कम न हो पाता अतः यह सब उसको नहीं बताया। यहाँ प्रश्न कार्यक्षमता बढ़ाने का नहीं था, अन्याय का दंश झेले मित्र को समझने का था। बताया कि इस दलदल में वह एकाकी नहीं है, हम सबके साथ यह होता है, एक बार नहीं बार बार। हाँ, जब पहली बार हुआ था तो कष्ट बहुत हुआ था। इसके विपरीत भी हुआ है। एक स्थान पर पदस्थापना के तीसरे ही दिन किसी स्टेशन में यात्री सुविधाओं का उद्घाटन था। मंत्रीजी ने मंच से प्रशंसा कर दी। मन बिना प्रयास किये पूर्ण प्रफुल्लित हो गया। उस समय तो अपने पूर्ववर्ती को श्रेय देने की स्थिति ही नहीं थी। कई बार पूर्ववर्तियों के किये प्रयास से आपको कार्य पका पकाया मिलता है, बस श्रेय भर लेने का श्रम करना होता है। एक स्थान पर पूर्ववर्ती ने तन्त्र, व्यवस्थायें और सहयोगी इतने उत्कृष्ट कर दिये थे कि एक के बाद एक कार्य होते चले गये। 

इस आधार पर देखा जाये तो कई बार आपको उस कार्य का श्रेय मिल जाता है जो आपने नहीं किया है। कई बार आपको किसी और के कृत्यों का दण्ड भी मिलता है। वर्षों से चौपट तन्त्र में आप कार्य करने जाते हैं और सहसा सारे आँकड़े भरभरा कर गिरने लगते हैं। कई बार आँकड़ों को कृत्रिम रूप से इतना बढ़ा चढ़ा दिया जाता है कि आपके पहुँचते ही आपके प्रयास भरभरा कर गिर जाते हैं, यदि आपने स्थिति को यथारूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया। ऐसी स्थिति में तब कुछ नहीं किया जा सकता है। अपने वरिष्ठों को सत्य बताईये और फल की कामना से रहित हो कार्य में लग जाइये। आप कितना भी कार्य कर लेंगे, आँकड़े पिछले वर्ष की तुलना में उस अनुपात में सुधरने से रहे। 

श्रेय का आदान प्रदान तो होता ही रहता है, प्रकृति की व्यवस्था जो है। दुख अन्याय पर होता है, जब यही कार्य जानबूझ कर किया जाता है। कर्मफल का सिद्धान्त मानकर चलिये तो इस जटिलता की व्याख्या कर सकेंगे। मान लीजिये कि पिछले जन्म में श्रेय लेने वाले ने आपकी जान बचायी थी, उस सुकृत्य का फल वह पा रहा है। मान लीजिये कि वह अगले जन्म में आपके काम आयेगा। अन्याय की गाँठ फिर भी न सुलझे तो सब ईश्वर पर छोड़ दीजिये, उसका न्याय तन्त्र अद्भुत है। एक क्षेत्र में हुयी हानि की भरपायी वह दूसरे क्षेत्र में कर देता है। देवो अन्यत्र चिन्तयेत। 

इस चर्चा के बाद हम दोनों को विद्यालय की वह घटना याद आयी जब हम दोनों की कुटाई हुयी थी। किसी और के कृत्य का दण्ड मिला था।