उपेक्षित जड़ प्रस्तरों पर,
कल्पना-घट पूर्ण भरकर ।
मूर्तिकारों के करों से,
सकल ही सौन्दर्य छलका ।।१।।
बलवती किस प्रेरणा से,
सुघट अंगों को बनाया ।
मात्र प्राणों की कमी है,
मूर्तियाँ बस चल पड़ेंगी ।।२।।
दृष्टिगोचर भित्तियों पर,
मनुज का उत्कर्ष विस्तृत ।
अन्त्य का निष्काम चित्रण,
कला की संज्ञा रही है ।।३।।
मन विषय उद्विग्नता पर,
डालकर शीतल फुहारें ।
मूर्तिमय सौन्दर्य निर्मल,
मन व्यथा को तृप्त करता ।।४।।
है मधुर श्रृंगार तेरा,
दीप्त मन की सत्वता से ।
जगत में होवे प्रकीर्णित,
अर्थ जन जन में मधुर का ।।५।।
दुख यही, उद्देश्य जो था,
नहीं सफलीभूत होता ।
दृष्टियाँ सापेक्ष तुझपर,
तिक्त छिन्नित वासना से ।।६।।
चित्र साभार - https://www.thepublic.in/