28.9.21

राम का निर्णय (पुरुषार्थ)


लक्ष्मण भावों के द्वन्द्व में थे। राज्याभिषेक में विघ्न उपस्थित होने से उन्हें दुःख था पर भैया राम की धर्म के प्रति दृढ़ता देख कर उन्हें आत्मिक प्रसन्नता भी थी। राम के स्नेह और आश्वासनपूरित संस्पर्श से उनका मन शान्त हुआ था पर इस प्रकरण में दैव की सर्वकारणता की व्याख्या से उन्हें क्रोध भी आ रहा था।


दैव से लक्ष्मण को सदा ही विशेष आपत्ति रही है। दैव को स्वीकार करने और उसे ही ओढ़कर बैठे रहने वाले मनुष्य उन्हें आलसी और अकर्मठ लगते थे। जहाँ एक ओर भैया राम ने पिताकी अन्यायपूर्णता को दैव के आवरण में लपेट दिया था, वहीं दूसरी ओर अपने निर्णय को धर्म के निरूपण में व्याख्यायित किया था। दोनों के मापदण्ड समान क्यों नहीं?


उस समय राम के लिये लक्ष्मण के मनःस्थिति को यथारूप समझना कठिन नहीं था। मध्य भाल तक चढ़ी हुयी भौहें, लम्बी साँसें भरना, हाथी की सूँड की भाँति दायें हाथ को हिलाना, ग्रीवा को सब ओर डुलाना और भैया के प्रति तिर्यक नेत्र कर देखना। राम जानते थे कि दैव का जो जो शब्द उन्होंने बोला है, यह सब उसी की प्रतिक्रिया है, उसी के अनियन्त्रित स्फुरण हैं। अपनी सामर्थ्य पर अत्यधिक विश्वास करने वाले दैव को नहीं मानते हैं और न ही किञ्चित मान देते हैं। राम जानते थे कि लक्ष्मण दैववाद का प्रबलता से खण्डन करेंगे। आशानुरूप तनिक रोषपूर्ण स्वर में लक्ष्मण बोलना प्रारम्भ करते हैं।


भैया आपको लगता है कि यदि आप पिता की आज्ञा का उल्लंघन कर वन नहीं जायेंगे तो धर्म के विरोध का प्रसङ्ग होगा। इस प्रसङ्ग से संभवतः प्रजा के मन में यह धारणा बैठ जाये कि जो धर्मानुरूप पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता है वह राजा बनने पर धर्मानुसार राज्य का पालन कैसे करेगा? आपको यह भी लगता है कि यदि आप पिता की आज्ञा का उल्लंघन करेंगे तो अन्य भी आपका अनुकरण कर ऐसा ही करना प्रारम्भ कर देंगे और कालान्तर में धर्म की यह अवहेलना व्यवस्था के विनाश का कारण बनेगी। इसी कारण आपके मन में वन जाने के प्रति एक शीघ्रता और उतावलापन दिख रहा है। ये दोनों शंकायें सर्वथा अनुचित और भ्रममूूलक है। इसका तात्कालिक साक्ष्य और प्रमाण आपके दैव वाले कथन से पुष्ट हो रहा है। आप जैसा क्षत्रियवीरशिरोमणि यदि दैव जैसी असमर्थ और तुच्छ वस्तु को प्रबल बताने लगे तो वह भ्रम की पराकाष्ठा ही कही जायेगी।


भैया, यह तथ्य मेरी समझ से परे है कि असमर्थ पुरुषों द्वारा अपनाये जाने योग्य और पौरुष के समक्ष निष्प्रभ खड़े “दैव” की आप साधारण मनुष्य के समान स्तुति और प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? भैया, मुझे समझ नहीं आता कि आपको उन दोनों पापियों पर संदेह क्यों नहीं होता है? संसार में कितने ही ऐसे पापासक्त मनुष्य हैं जो दूसरों को ठगने के लिये धर्म का सहारा लेते हैं। क्या यह व्यवहारिक तथ्य आप से छिपा है? वे दोनों शठ धर्म के आवरण में ही आप जैसे सच्चरित्र पुरुष का परित्याग करना चाहते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो भरत के राज्याभिषेक का निर्णय बहुत पहले ही दोनों ने ले लिया होता। षड्यन्त्रवश यह निर्णय आपको राजपाट से दूर रखने के लिये उन दोनों ने सामूहिक रूप से लिया है।


भैया, आप मुझे क्षमा करें पर अग्रज के रहते अनुज का राज्याभिषेक घोर लोकविरुद्ध कार्य है और मुझे सहन नहीं है। साथ ही पिता के जिस वचन के कारण आप मोह और दुविधा में पड़े हैं, उस धर्म का मैं पक्षपाती नहीं हूँ और उसका घोर विरोध करता हूँ। आप कैकेयी के वश में रहने वाले पिता के अधर्मपूर्ण और निन्दित वचन का पालन कैसे करेंगे? ऐसे कपट और पाखण्डपूर्ण धर्म के प्रति आपकी जो प्रवृत्ति और आसक्ति है, वह मेरे और प्रजा की दृष्टि में हेय है, त्याज्य है। आप कैसे कामानुरक्त और पुत्र का अहित करने वाले के वचनों को महत्व दे सकते हैं? 


यदि आप माता पिता के इस विचार को दैव की प्रेरणा का फल मानते हैं तो आपको उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिये। कायर ही दैव की उपासना करता है। सारा विश्व जिनके पराक्रम से प्रेरित होता है और इस कारण समुचित आदर देता है, वे दैव को तनिक भी महत्व नहीं देते हैं। दैव को जीतने में समर्थ पुरुष कार्य में बाधा आने पर शिथिल नहीं बैठ जाता है। 


आज सब देखेंगे कि दैव और पुरुषार्थ में कौन बलवान है। जिन्होंने दैव से आपके राज्याभिषेक को नष्ट होते देखा है, वे आज मेरे पुरुषार्थ द्वारा उसी दैव का विनाश देखेंगे। वीर अपना दैव स्वयं ही लिखते हैं। मदत्त गजराज की तरह सब पर अपना आतंक स्थापित करने वाले दैव को मैं वापस जाने पर विवश कर दूँगा और जो भी मेरे मार्ग में आयेगा उसे मेरा असह्य ताप सहना होगा।


भैया, आपको वन तो जाना है, पर अभी नहीं। सहस्रों वर्षों के शासन के बाद और वृद्ध होने पर। वन तो पिता को जाना था। वन जाने की बात तो दूर, वह तो वानप्रस्थ में भी एकाग्र नहीं हैं। मेरी दो भुजायें केवल शोभा के लिये या चन्दन का लेप लगाने के लिये नहीं हैं। आपके अभिषेक की जो सामग्री आयी है, आप उससे अपना राज्याभिषेक होने दीजिये, शेष को सम्हालने का दायित्व आप मुझ पर छोड़ दीजिये।


लक्ष्मण का क्रोध शब्दों में अनवरत बह रहा था। राम के हित सबका संहार कर देने का भाव प्रचण्ड हो बह रहा था। सामने किसी अन्य के ठहर पाने की स्थिति नहीं थी। माँ कौशल्या हतप्रभ हो लक्ष्मण को देखे जा रही थी। राम धीरे से पुनः एक हाथ लक्ष्मण के कन्धे पर रखते हैं। लक्ष्मण का क्रोध पिघलने लगता है, शब्दाग्नि के साथ ऊष्ण अश्रु झरने लगते हैं। राम लक्ष्मण की खींचकर वक्ष से लगा लेते हैं। राम क्या उत्तर देंगे? सारा संवाद तो लक्ष्मण के अश्रु ही कहे जा रहे थे। राम जानते थे कि लक्ष्मण का क्रोध इस प्रकार बह जाना आवश्यक है।


राम का संस्पर्श पा लक्ष्मण स्थिर हो जाते हैं। शब्द रुक जाते हैं। बायीं बाँह से लक्ष्मण को भींच कर राम अपने दायें हाथ से लक्ष्मण के अश्रु पोंछते हैं। तर्क के काल का पूर्णतः अवसान हो चला था। अब निर्णय को स्वीकार करने का समय था। राम अत्यन्त शान्त स्वर में कहते हैं।


हे सौम्य, हे प्रिय, मुझे तुम माता-पिता के आज्ञा पालन में दृढ़तापूर्वक स्थित समझो। यही सत्पुरुषों का मार्ग है। राम के इसी निर्णय वाक्य में लक्ष्मण के सारे संवाद विश्राम पा जाते हैं।

2 comments:

  1. राम वनवास पर आपके द्वारा चरित्र चित्रण सच में पढ़ने योग्य है। माता कौशल्या हो या भ्राता लक्ष्मण के मन मे चल रहे द्वंद को आपनके कुशलता से उकेरा है।

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    1. लक्ष्मण का क्रोध बस राम के बस की बात थी।

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