21.9.21

राम का निर्णय(धर्म अर्थ काम)


लक्ष्मण के तर्कों और राज्य अधिग्रहण करने के उत्साहपूर्ण वचनों से माँ कौशल्या के शोक में कुछ कमी आयी थी। राम को कुछ न बोलते देख माँ की आशा बढ़ी कि संभवतः राम इन तर्कों का संज्ञान लेंगे। उस संवाद की दिशा को अपनी सहमति सी प्रदान करती हुयी माँ कौशल्या बोली।


पुत्र राम, लक्ष्मण के वचनों में जो भी करणीय हो, आप करें। यह कह कर माँ कौशल्या ने लक्ष्मण की संवाददिशा को अपनी समर्थन दे दिया था। माँ का मन पुत्र से तर्क में जीतना नहीं चाहता था पर पुत्र अयोध्या में रह जाये, इसके लिये कोई भी प्रयास छोड़ना भी नहीं चाहता था। माँ का मन भावनाओं के सहस्रों ज्वारों में अपने तटों के पाने की अदम्य इच्छाशक्ति लिये टिका था, जूझ रहा था। माँ कौशल्या व्यक्तिगत स्तर पर लक्ष्मण के प्रश्नों से तो सहमत थी। धर्म, कुल और पिता के तथाकथित कर्तव्य, इन तीनों को असिद्ध कर लक्ष्मण ने कौशल्या का मन तनिक स्फुरित अवश्य कर दिया था पर राज्य के बलात अधिग्रहण और हिंसा के उपायों के प्रति माँ की अनुकूलता नहीं थी। लक्ष्मण संवाद के प्रथम भाग को ग्रहण कर अब राम कोई निर्णय लें या अपना निर्णय संशोधित करें, जो भी करें पर वन न जायें।


“जो भी करणीय हो, आप करें” बोलकर माँ के नेत्र अश्रुपूरित हो गये। जहाँ माँ कौशल्या के शब्द राम को विकल्प दे रहे थे, माँ कौशल्या के अश्रु उन विकल्पों को संकुचित कर रहे थे, एक स्पष्ट सा संदेश दे रहे थे कि राम वन न जायें।


भैया राम पर निर्णय छोड़ने वाले, बड़ी माँ कौशल्या के वचनों ने लक्ष्मण के क्रोध से ज्वलित हृदय को तनिक सान्त्वना दी थी। मन के उद्गार तो व्यवस्थित होकर निकलना प्रारम्भ हुये थे पर संवाद समाप्त होते होते पूर्णतया अव्यवस्थित और आग्नेय हो चुके थे। लक्ष्मण के क्रोध की परिधि बहुधा लक्ष्मण को ही लाँघ जाती थी पर आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह राम को आहत कर पायी हो। राम की उदारता और दीर्घमना सहजता लक्ष्मण के क्रोध को हर बार सोख लेती थी। लक्ष्मण के क्रोध को शान्त करना और समझाना राम के लिये नया नहीं था। लक्ष्मण का क्रोध व्यक्तिगत न होकर अपने प्रिय अग्रज राम के प्रति हुये अन्याय पर लक्षित था। व्यक्तिगत लाभ या कष्ट के लिये लक्ष्मण ने कभी क्रोध किया ही नहीं। कष्ट सहने में लक्ष्मण को कोई बाधा नहीं थी पर अन्याय और अधर्म के प्रति वह ज्वलन्त उल्कापिण्ड के भाँति व्यक्त होते थे।


राम के मन में स्पष्ट था कि कहाँ से उत्तर प्रारम्भ करना है। सबसे पहले लक्ष्मण को यह संकेत देना है कि वह अन्ततः माँ कौशल्या का दुख बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। माँ एक बार राम के उत्तर से शोकमना ही सही पर संतुष्ट हो बैठ गयी थी। उस पर एक आशा जगाना जो कि निर्णयों के प्रवाह में और काल के करालता में जी नहीं पायेगी। एक ऐसी आशा जगाना जो फलित न होकर माँ को अधिक दुख दे जायेगी, अधिक शोकसंतप्त कर जायेगी। राम लक्ष्मण को बताना चाह रहे थे कि आशायें वही जगाना चाहिये जिनमें तनिक संभावना हो। पुनर्जागृत अतृप्त आशायें दुख को और भी बढ़ा जाती हैं। दूसरा कार्य था, लक्ष्मण के क्रोध को शान्त करना। तीसरा कार्य था माँ को पुनः पूर्व अवस्था में वापस लाना जिसमें वह राम के वनगमन को मानसिक रूप से स्वीकार कर चुकी थी। चौथा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य था धर्म की समुचित व्याख्या कर उठ रहे तर्कों को समुचित विश्राम देना था।


एक कार्य और था जिस पर राम अनिश्चित थे और उत्तर नहीं देना चाह रहे थे। वह था पिता पर लक्ष्मण के द्वारा लगाये आक्षेपों पर कोई चर्चा। पिता जैसे भी थे, राम के पिता थे। यद्यपि उन्होंने कोई स्पष्ट आज्ञा नहीं दी थी पर पिता की प्रतिज्ञा राम के लिये आज्ञापत्रक थी। राम के लिये कारणों में जाने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। उनकी विवशता भी वहन करने में राम को लेशमात्र का संकोच नहीं था। वह आज पिता के कर्तव्यों की न तो विवेचना करेंगे और उनके द्वारा लिये निर्णय का चारित्रिक विश्लेषण। आज यदि कोई पक्ष स्पष्ट करना आवश्यक है, तो वह है एक पुत्र के कर्तव्यों की विवेचना।


राम पहले लक्ष्मण को लक्ष्य कर कहते हैं। लक्ष्मण, मेरे प्रति जो तुम्हारा उत्तम स्नेह है, मैं वह जानता हूँ। साथ ही तुम्हारे अदम्य पराक्रम, धैर्य और दुर्धर्ष तेज का भी मुझे ज्ञान है। मेरी माँ के हृदय में जो अतुल दुख हो रहा है, वह सत्य और शम के बारे में मेरे अभिप्राय को न समझने के कारण से है। यद्यपि राम माँ कौशल्या के दुख के कारणों पर संवाद अवलम्बित कर रहे थे पर परोक्ष से उनका उद्देश्य लक्ष्मण के तर्कों को धर्म के आधार पर सुव्यवस्थित करने का था। साथ ही आशा की एक किरण जो लक्ष्मण ने दिखायी थी उसको यथाशीघ्र रुद्ध करने के लिये धर्म की पुनर्व्याख्या राम के लिये आवश्यक थी।


लक्ष्मण, संसार में धर्म ही श्रेष्ठ है। उसमें सबको धारण करने की शक्ति है। सत्य उस धारणा की प्रतिष्ठा है। यदि सत्य नहीं रहेगा तो अविश्वास बढ़ेगा। अविश्वास सहजीवन के मूल को नष्ट कर देगा। इस कारण से मुझे पिता के वचनों का सत्य स्वीकार करना है। पिता के वचनों को सत्य करना मेरे लिये धर्म का सर्वोत्कृष्ट कृत्य है। पिता की निर्णय प्रक्रिया और प्रस्तुत चारित्रिक दुर्बलताओं को तनिक भी स्पर्श न करते हुये राम धर्म आधारित अपने कर्तव्यों पर संवाद केन्द्रित कर रहे थे।


अतः लक्ष्मण, केवल क्षात्र धर्म पर आश्रित मति छोड़ो और वृहद धर्म के पालन में मेरा अनुसरण करो। मेरा अभिप्राय समझने के स्थान पर तुम माँ के साथ मुझे भी पीड़ा दे रहे हो। पराक्रमी अनुज, मुझे इस दुःख में मत डालो।


फल रूप में हमारे सम्मुख जो भी कर्म उपस्थित होते हैं, उसमें धर्म, अर्थ और काम तीनों का ही समावेश रहता है। उसमें धर्म के फल को प्रमुख मानकर शेष दो को भी साथ लेना चाहिये। जिस कर्म में धर्म, अर्थ और काम तीनों का समावेश न हो, उसे नहीं करना चाहिये। जिससे धर्म की सिद्धि हो, उसी का आरम्भ करना चाहिये। धर्मरहित हो केवल अर्थपरायण करने वाला सबके द्वेष का पात्र और केवल काम में अत्यन्त आसक्त होने वाला सबकी निन्दा का पात्र बनता है। पिता माननीय हैं। उन्होंने क्रोध से, हर्ष से या काम से भी प्रेरित होकर भी यदि किसी कार्य को करने की आज्ञा दें तो हमें धर्म समझ कर उसका पालन करना चाहिये।


राम अपना अभिप्राय स्पष्ट कर चुके थे। आशा क्षीण हो रही थी, माँ कौशल्या का विलाप बढ़ रहा था पर लक्ष्मण सहमत नहीं दिख रहे थे। उनके पूरे प्रश्नों का उत्तर राम ने नहीं दिया था। पिता व उनकी निर्णय प्रक्रिया पर उठे प्रश्नों पर राम मौन थे।

4 comments:

  1. मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम के चरित्र का बहुत सुंदर शोधपरक गहन अध्ययन तथा गूढ़ चिंतन किया है आपने प्रवीण जी,बिलकुल आलेखों में जैसे रामचरितमानस उतर आया हो।

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    1. जी आभार आपका। यह प्रकरण मन को सदैव सालता रहा है।

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  2. संग्रहणीय आलेख !!

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