9.9.21

राम का निर्णय (लक्ष्मण)

 

माँ कौशल्या आगे कुछ न कह सकी। पुत्र और पति, दोनों ही अपने निर्णयों के प्रति सदा ही दृढ़ रहे हैं। रघुकुल की परम्परा सामान्य मानवीय भावों से बढ़कर एक विशाल दुर्ग का रूप ले चुकी थी, उसके पार जाना अब रघुकुलमणियों के लिये भी असंभव है। सब अपने व्यक्तिगत उदाहरणों से उसकी ऊँचाई बढ़ाने में लगे हैं। राम के वन जाने का दुख अत्यन्त असह्य था। माँ राम को भी जानती थी। कठिन निर्णय ले चुके राम को आज मानसिक समर्थन की आवश्यकता थी। पुत्र से विरह का दुख सह लेगी पर माँ राम में दैन्यता के भाव नहीं आने देगी। माँ कौशल्या समाज के सम्मुख राम को दृढ़ देखना चाहती थी, किसी भी दीनता से परे। तदन्तर राम की उपेक्षा न करते हुये माँ कौशल्या कक्ष में ही एक शून्य ढूढ़कर शोकमना तकने लगती हैं।


लक्ष्मण के मन में विचारों का बवंडर हिलोरें ले रहा था। मर्यादा के अनुपालन में लक्ष्मण ने कभी कोई शिथिलता नहीं दिखायी है पर जब समय आया है और अनुमति दी गयी है तो मन के भाव स्पष्टता और समुचित प्रबलता से प्रकट किये हैं। आज प्रातः से लक्ष्मण शान्त थे, बस राम को रघुकुल पर आया संकट सम्हालते देख रहे थे। राम ने वन जाने का निर्णय ले लिया, माँ कैकेयी को सुना दिया, माँ कौशल्या को भी आश्वस्त कर दिया, पर अपने अनुज लक्ष्मण का पक्ष तो सुना ही नहीं। पहले भी किसी विशेष निर्णय को लेने से पूर्व राम लक्ष्मण के विचार अवश्य जान लेते थे, कभी कोई छूटा हुआ व्यवहारिक पक्ष जानने के लिये या कभी लक्ष्मण को उस विषय में शिक्षित करने के लिये या कभी  लक्ष्मण को समझाने के क्रम में अपनी निर्णय प्रक्रिया पुनर्वलोकित करने के लिये। आज का निर्णय भैया ने बिना कुछ कहे ले लिया, संभवतः वह इस निर्णय के अथाह भार से अपने अनुज को मुक्त रखना चाह रहे हों।


लक्ष्मण के पास कहने के लिये बहुत कुछ था। लक्ष्मण बचपन से ही राम के निकट रहे हैं, उन्हें भैया का स्नेहिल भाव खींच ले जाता है। राम के निर्णयों को उन्होंने निकटता से देखा है। देखा ही नहीं वरन लक्ष्मण ने उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। राम के निर्णय सदा ही जन सामान्य से भिन्न रहे हैं। राम को कभी तात्कालिकता से बिद्ध नहीं देखा था, एक संयत दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य राम के निर्णयों का वैशिष्ट्य रहा है। न्याय, दर्शन, धर्म, नीति और सामाजिकता का अद्भुत संमिश्रण रही है, राम की निर्णय प्रक्रिया। बचपन में भी जीतती हुयी क्रीड़ा में सहज भाव से जानबूझ कर हार जाने की भैया राम की प्रवृत्ति लक्ष्मण को अचंभित कर जाती थी। खेल होता ही इसीलिये है कि उसमें जीता जाये और उस प्रसन्नता का उत्सव मनाया जाये। पर राम के उत्सव उस जीत हार की सीमित व्याख्या से बहुत बड़े रहे हैं। राम के लिये खेल के उत्साह से भी अधिक सम्बन्धों की ऊष्मा महत्वपूर्ण रही है, अपने अनुजों के प्रति स्नेह का भाव प्रखर रहा है। 


आज के निर्णय में भी लक्ष्मण को बचपन के ही राम दिख रहे हैं, भरत से राज्य को हार कर सम्बन्धों को बचाते हुये। आज के निर्णय में लक्ष्मण को न न्याय दिख रहा है, न धर्म दिख रहा है, न नीति दिख रही है और न ही सामाजिकता। लक्ष्मण का मन था कि माँ कैकेयी के सामने ही उनकी कुटिलता को अपने तर्कों से तार तार कर दें। लक्ष्मण वहीं पर ही अपने पिता को भी धिक्कारना चाहते थे। राम ने एक क्षण भी संवाद को अपने नियन्त्रण से बाहर जाने ही नहीं दिया, किसी और को, विशेषकर लक्ष्मण को अवसर ही नहीं दिया कि वह कुछ कह सकें।


अपने निर्णय को इतने स्पष्ट रूप से दोनों माताओं से सम्मुख घोषित कर राम ने लक्ष्मण के कार्य को अत्यन्त कठिन कर दिया था। लक्ष्मण मन में सतत सोच रहे थे कि किस प्रकार से वह अपने तर्कों को संयोजित करे जिससे वे भैया राम को निर्णय वापस लेने के लिये प्रभावित कर सके। राम के जो तर्क लक्ष्मण सुन चुके थे उनसे भिन्न और गहरे तर्क लक्ष्मण को प्रस्तुत करने थे। इस बात की संभावना कम थी कि राम अपना निर्णय बदलेंगे पर लक्ष्मण अपनी बात कहने से स्वयं को आज रोकेंगे नहीं।


माँ कौशल्या के शोक में गहरी श्वास लेकर निश्चेष्ट शान्त बैठ जाने के पश्चात कक्ष में स्तब्धता छा गयी। संभवतः यही अवसर था लक्ष्मण के पास राम से अपनी बात कहने का। लक्ष्मण राम को ओर अनुमति हेतु निहारते हैं, राम समझ जाते हैं कि अब लक्ष्मण को अधिक रोक पाना संभव नहीं होगा। राम को इस बात का अनुमान अवश्य था कि लक्ष्मण के तर्क प्रबल होंगे, उनमें व्यवहारिकता और मनोविज्ञान भरा होगा, आवेश के भी अंश होंगे, पर सब कह लेने के पश्चात लक्ष्मण करेंगे वही जो राम समझायेंगे। राम यह मानते थे कि निर्णय लेते समय मन की बात कहना उचित है, सभी पक्ष उजागर करना आवश्यक है। किन्तु जब एक बार सारे विकल्पों को तौल कर निर्णय ले दिया जाता है तो सभी को अपने सुझाये विकल्प के प्रति अनुराग तज कर उसे स्वीकार करना चाहिये, भयवश नहीं, नीतिवश। लक्षमण के संशय आधारभूत रहते हैं। लक्ष्मण के दृष्टिकोण तनिक भिन्न अवश्य रहते हैं पर एक बार धर्म की दिशा पा जाने के बाद स्वयं को परिवर्धित कर सकने की सामर्थ्य भी रखते हैं।


सदा ही राम को लगता था कि लक्ष्मण के प्रश्न, लघु संशय और व्यवहारिक दृष्टिकोण उनके निर्णय की गुणवत्ता बढ़ा जाते हैं। आज क्या संवाद होगा और उसका निर्णय पर कितना प्रभाव पड़ सकेगा, इस बात का पूर्वानुमान होने के बाद भी लक्ष्मण को अपनी बात दृढ़ता से रखने का अवसर देना चाहते थे राम। अपने निर्णयों में लक्ष्मण का आधार राम को सदा ही आवश्यक लगा है और उसकी आवश्यकता कहीं अधिक थी।


राम संकेत देते हैं, लक्ष्मण आगे बढ़कर राम के चरण पकड़ लेते हैं। इस प्रकार चरण गहना स्पर्शमात्र के भाव से कहीं अधिक संघनित संप्रेषण था। दो भाव स्पष्ट थे। पहला, राम के कठिन निर्णय के प्रति भाई की संवेदना। दूसरा, इस निर्णय के संदर्भ में कठोर और स्पष्ट वचन बोलने की अनुमति। लक्ष्मण राम के निर्णय को उचित नहीं मान रहे थे पर लिये गये निर्णय की महानता के प्रति भीतर से द्रवित भी थे।


राम लक्ष्मण को उठाकर गले से लगा लेते हैं। लक्ष्मण गाम्भीर्य में पूर्णतया डूबे थे और नहीं चाहते थे कि अश्रु उनकी तर्क श्रृंखला को अव्यवस्थित कर दें। राम के स्पंद लक्ष्मण को आश्वासन दे रहे थे, अपनी बात स्पष्ट रखने के लिये। राम के स्पंद यह विश्वास दे रहे थे कि आज कठोरतम बातें भी सहर्ष सुनी जायेंगी। राम के स्पंद लक्ष्मण की ऊर्जा बढ़ा रहे थे।

5 comments:

  1. 🙏
    सभी लेखों को संकलित कर एक पुस्तक की आवश्यकता है। उस रामवनवास से पहले सभी के ह्रदय की पीड़ा को आपने जो शब्द दिए है वह अतुलनीय है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अभी तो सृजन हो रहा है, संकलन का समय भी आयेगा धीरूजी। धन्यवाद आपका।

      Delete
  2. मनीष कृष्णजी की प्राप्त टिप्पणी
    प्रवीण , पारा 2 में भईया लक्ष्मण के संदर्भ में " कभी कोई छूटा हुआ व्यवहारिक पक्ष जानने के लिए " , से अपने समाज में दो परस्पर छोटे व बड़े भाईयों के मध्य के प्रेम व सम्मान के मूल स्त्रोतों ( राम व लक्ष्मण ) का पूरे विश्व में अतुलनीय चरित्रों को प्रकट किया , अपनी लेखनी से 👌👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻

    "और अपने इस निर्णय के भार से अपने अनुज को मुक्त रखना चाह रहें हों ।"
    हम मे से बहुतों ने अपने जीवन काल मे , ऐसा भ्राता प्रेम देखा है ।

    पारा ३ में , प्रवीण , राम की क्या सुन्दर परिभाषा रखी है " एक संयत दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य , राम के निर्णयों का वैशिष्ट्य रहा है " 🌞
    बहुत बेहतरीन 👌

    पारा ३ में , राम द्वारा भाईयों से खेल मे हार जानें वाला उदाहरण , मेरा सबसे प्रिय व रोमांचक भाव है , अपने राम जी के प्रति ।
    क्या मोहक वर्णन किया हैं प्रवीण आपने " राम के लिए खेल के उत्साह से भी अधिक , संबंधों की ऊष्मा महत्वपूर्ण रही है " ।
    धन्य व्याख्या 👌

    पारा ४ मे , मेरे लिए , प्रवीण आप ने नया भाव व कोण दिया " राम ने एक क्षण भी संवाद को , अपने नियंत्रण से बाहर , जानें ही नहीं दिया ।" 🔥

    पारा ६ मे , प्रवीण , आपने तो आज के समाज में परिवारों के खालीपन / विवादों को कितना सुन्दर ढंग से , इन पंक्तियों से चित्रित किया है , कि मैं अचंभित हूं , आप के भाव मिश्रित शब्द संयोजन से " किंतु जब एक बार सारे विकल्पों को तौल कर निर्णय ले दिया जाता है , तो सभी को अपने सुझाए विकल्प के प्रति अनुराग तज कर , उसे स्वीकार करना चाहिए , भय वश नहीं , नीतिवश "
    👌🙌🙌🙌🙌🙌👌🏼

    पारा ८ में , " चरण गहना " ने कई भाव उत्पन्न किए हैं ।

    यह प्रस्तुति , मेरे हृदय मे गहरी उतरी है 🙏👌💎🌞

    ReplyDelete