2.9.21

राम का निर्णय (मनःस्थिति)

 

राम ने जैसे ही कहा कि “पिता दीन्ह मोहि कानन राजू”, माँ कौशल्या शोक से मूर्छित हो गयीं। राम को इसका भान था पर माँ को शीघ्र सूचित कर आज्ञा लेना आवश्यक था, आज दिन में ही वन के लिये प्रयाण जो करना था।


पिता दशरथ के महल से निकलने के बाद राम मन में दिन के शेष समय में सम्पन्न करने वाले कार्यों की एक सूची बना रहे थे। उसमें कौशल्या और सीता को समझाना प्रमुख था। लक्ष्मण साथ चल रहे थे। लक्ष्मण सदा ही अपने भाई राम के प्रति समर्पित रहे हैं। राम के प्रति लक्ष्मण का अनुराग एक बड़े भाई से बढ़कर था। राम के सबसे किये व्यवहारों को, वार्तालापों को और स्पष्ट विचारों को लक्ष्मण मन्त्रमुग्ध हो अनुसरित करते थे। विश्वामित्र के कार्य हेतु राम के साथ जाने का जो अवसर लक्ष्मण को प्राप्त हुआ था, उसने दोनों ही भ्राताओं को दुर्धर्ष योद्धाओं के रूप में प्रस्थापित कर दिया था। राज्याभिषेक की सूचना के बाद राम ने लक्ष्मण को प्रमुख कार्य संचालक के रूप में अपना दायित्व निभाने के लिये प्रेरित भी किया था और उसे लक्ष्मण ने स्वीकार भी कर लिया था।


महल से निकलने के बाद राम का मुख शान्त था। लक्ष्मण रथ में साथ पर पीछे खड़े थे, कुछ कहना चाह रहे थे पर राम ने बोलने का संकेत नहीं दिया, बस कंधे पर एक बार हाथ रख कर आगे देखने लगे। राम लक्ष्मण का स्वभाव जानते थे। राम जानते थे कि लक्ष्मण के हृदय में एक ज्वालामुखी फट रहा होगा। राम जिस क्षण को सहन करने की सीमा में थे, लक्ष्मण को उसे सहन करने में कितना प्रयत्न करना पड़ रहा होगा?


अपने वनगमन की स्थिति में राम लक्ष्मण के कारण अयोध्या की व्यवस्थाओं से निश्चिन्त थे। यद्यपि भरत पर राम का विश्वास अटूट था पर राजा की मर्यादाओं और कैकेयी माँ के आदेशों की विवशताओं में कौशल्या और सीता का अहित न हो पाये, इसके लिये लक्ष्मण का यहाँ रहना आवश्यक था। दो मुहूर्त पहले तक राम राज्य में जिन व्यवस्थाओं को सुदृढ़ करना था, जिन योजनाओं को क्रियान्वित करना था, नगरवासियों की जिस समस्या को प्रथमिकता से हल करना था, जिस आधारभूत ढाँचे का निर्माण करना था, उन सब पर विचार कर रहे थे। राम ने राज्य के लिये कई बड़े स्वप्न देख रखे थे। शासन की व्यवस्था को जिस उत्कर्ष तक राम को पहुँचाने की महत्वाकांक्षा राम हृदय में लिये थे, उसके लिये एक भी क्षण व्यर्थ करना उचित नहीं था।


सहसा मानसिक परिदृश्य बदल जाता है। अब राम को अपने जीवन के आगामी चौदह वर्ष ज्ञानार्जन, सन्त कल्याण, गुरुकुल व्यवस्थायें और वनवासियों के साथ बिताने में दिख रहे थे। राज्य के उत्थान के बारे में देखे स्वप्नों को संभवतः चौदह वर्ष और प्रतीक्षा करनी होगी।


बाहर नगरवासी प्रसन्न थे और राम को देख कर जयकार कर रहे थे। सामान्य परिस्थितियों में अभिवादन स्वीकार करने के समय राम के मुखमंडल पर स्मित सी मुस्कान आ जाती थी। आज राम के चेहरे पर गाढ़ा गाम्भीर्य चढ़ा था। नगरवासी फिर भी उत्साहित थे, स्त्रियाँ अपने भवनों से राम को निहार रही थीं। सहसा माँ कौशल्या का महल आ जाता है। बाहर नगरवासियों, प्रबु्द्धजनों, शुभचिन्तकों और राजकीय पदाधिकारियों की उपस्थिति में भी राम नहीं रुके और न ही उनका कुशलक्षेम पूछा। यद्यपि सबको राम का व्यवहार चकित कर रहा था पर अतिव्यस्तता के कारण राजाओं का यह व्यवहार कई बार जनसाधारण को स्वीकार्य होता था।


माता कौशल्या व्यस्त थीं और अपनी ही बात बताये जा रही थीं। इतना समय राम को संयत होने के लिये पर्याप्त था। शान्तमना हो इतना बड़ा निर्णय ले चुके राम को माँ का मूर्छित होना व्याकुल कर गया। माँ के दुखी होने का या विलाप करने का भान राम को था। बचपन में दौड़ते दौड़ते राम जब गिरते भर थे माँ का हृदय कण्ठ में आ जाता था, आज पता नहीं क्या होगा माँ का?


कब शब्द निकले, कब माँ मूर्छित हुयी, समय निर्द्वन्द्व हो निर्बाध भाग रहा था। राम दौड़ते हैं, माँ को उठाते हैं, सहारा देकर शैय्या पर बैठाते हैं। परिचारिकायें पीछे हट जाती हैं और शीघ्र ही पात्र में जल लाती है। राम माँ को जल पिलाते हैं। माँ की दशा देखकर रोना चाहते हैं राम पर समय आज अवसर नहीं दे रहा है। उनकी आँखों में झलका एक भी अश्रुबिन्दु उनके दृढ़ और गम्भीर निर्णय को क्षति पहुँचा जायेगा। आज न वह स्वयं विह्वल होंगे और न ही माँ को होने देंगे।


माँ सामान्य होने में समय लेती है। आज राम के पास समय नहीं था, उन्हें वनगमन के पूर्व कितने कार्य सम्पन्न करने थे। यह क्या, राम स्वयं को उमड़ रहे विचारों के जाल से बाहर निकालते हैं और झिड़कते हैं। माँ के लिये समय देने में इतनी व्यग्रता क्यों है आज। एक प्रतिज्ञा के त्वरित पालन का बोध क्या माँ के स्नेह और ममता से भी बढ़कर है? राम तात्कालिक शेष सब विस्मृत कर माँ का मुख निहारते हैं। हृदय की पीड़ा कितनी स्पष्ट छलक रही थी माँ की आँखों से। अश्रुपूरित माँ की आँखे। यदि कोई और इन अश्रुओं का कारण होता तो संभवतः राम उससे इस लोक में जीवन का अधिकार छीन लेते। आज तो कारण भी राम है, निदान भी राम। पीड़ा भी राम ने दी है, शब्दों की सान्त्वना भी राम को ही देनी है।


राम संयत होते हैं, लक्ष्मण को देखते हैं। लक्ष्मण तनिक निकट आ गये थे पर सर झुकाये खड़े थे, वह नहीं चाहते थे कि राम उनका तमतमाता मुख देख पायें। लक्ष्मण राम की अवहेलना कभी नहीं करते थे, पर राम समझ गये थे कि कौशल्या से भी अधिक लक्ष्मण को समझाना पड़ेगा। माँ तो शोक में है पर लक्ष्मण में क्रोध भरा हुआ है। माँ तो सारा दोष अपने ही भाग्य को ही देगी पर लक्ष्मण भाग्य या दैवयोग पर विश्वास ही नहीं करता है। माँ को मना लेगें राम पर से अपने अनुचर, सहचर और प्रिय लक्ष्मण की उद्वेलित मनःस्थिति कैसे सम्हालेंगे राम?

8 comments:

  1. राम की वनगमन के वक्त की स्थिति को बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया है आपने, प्रवीण भाई।

    ReplyDelete
  2. अनुकरणीय मनः स्थिति

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी धन्यवाद, आभार आपका।

      Delete
  3. बहुत बढियां सृजन, सुंदर अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  4. अति सुंदर व्याख्या।

    ReplyDelete