17.8.21

रामो द्विर्नाभिभाषते


“राम दो प्रकार से बात नहीं करता है” तनिक व्यथित और खिन्न स्वर में राम माँ कैकेयी से बोले।


शब्द कठोर अवश्य थे पर आवश्यक भी। स्थिति को निष्कर्ष तक लाने के लिये और व्यग्रता के क्षणों को विराम देने के लिये। सुमन्त्र को कुछ ज्ञात नहीं, पिता कुछ बोलते नहीं और माँ कैकेयी हैं, वह जानबूझ कर नीति की बातें लेकर बैठी है कि पुत्र को पिता की बात माननी चाहिये। पर यह नहीं बता रही हैं कि क्या बात है जो माननी है। वह वचन लेना चाह रही हैं, कुछ भी बताने के पहले।


कक्ष में ५ लोग थे। शोकनिमग्न और मौन धरे पिता राजा दशरथ, विजय के प्रति अभी भी अर्धशंकित खड़ी माँ कैकेयी, अनर्थ की आशंका से उद्वेलित और आवेशित लक्ष्मण, अनभिज्ञ पर राजा के लिये दुखी सुमन्त्र और कक्ष के मध्य में राम। दशरथ और कैकेयी के अतिरिक्त किसी को कुछ भी ज्ञात नहीं था कि विगत रात्रि किस प्रकार के क्रूर वचन इस कक्ष में बोले गये थे। किसी को भी यह ज्ञात नहीं था कि किस प्रकार राजा ने कैकेयी को समझाने का प्रयास किया था। राजा द्वारा कितनी अनुनय विनय उस कक्ष में की जा चुकी थी, बस एक वर को वापस लेने के लिये। भरत को राज्य देने में राजा दशरथ मानसिक रूप से तैयार थे पर अकारण ही आज्ञाकारी और सबके प्यारे पुुत्र राम को वनवास जाने से रोकने के लिये दशरथ ने करुणा के न जाने कितने आँसू बहाये थे।


जब प्रातः सुमन्त्र राम को लेने आये थे, लक्ष्मण राम के महल में पहुँच चुके थे और उन्हें नगर में व्याप्त उत्साह के बारे में बता रहे थे। सुमन्त्र ने राम को सूचित किया कि राजा दशरथ ने उन्हें स्मरण किया है। कल से दो बार राजा दशरथ ने और एक बार वशिष्ठ उनसे मन्त्रणा की थी। राज्याभिषेक के निर्णय के बारे में सूचना, उत्तरदायित्व के बारे में दिशा निर्देश, कर्तव्य के प्रति उपदेश और सपत्नीक विशेष व्रत के पालन के आदेश उन्हें प्राप्त हो चुके थे। सुमन्त्र ने कोई कारण विशेष नहीं बताया क्योंकि यदि उनसे पूछा जाता तो संभवतः वह असत्य न कह पाते।  राजकीय कार्यों में प्रयुक्त “आवश्यक सम्भाषण” के सूत्र को सदा ही निभाते थे सुमन्त्र। अनावश्यक सम्भाषण और तज्जनित मर्यादा के अतिक्रमण की किसी भी संभावना से दूर ही रहने का व्यक्तित्व विकसित किया था सुमन्त्र ने। तभी संभवतः वह राजा के अत्यन्त प्रिय और विश्वासप्राप्त भी थे।


राजा दशरथ नियम से सूर्योदय के दो मुहूर्त पहले ही उठ जाते थे और सुमन्त्र से प्राप्त सूचना और दिये निर्देशों से उनके शेष दिन का प्रारम्भ होता था। तब महल के सारे तन्त्र तदानुसार चल पड़ते थे। यही कारण था कि सुमन्त्र को कभी भी और कहीं भी राजा दशरथ तक पहुँचने के अधिकार प्राप्त थे। आज जब प्रातः कोई सूचना नहीं आयी, वन्दीजनों की स्तुतियाँ अनुत्तरित रहीं और राजा ने दर्शन नहीं दिये, तब सुमन्त्र को कर्तव्यवश स्वयं ही जाना पड़ा। जाने पर पता चला कि राजा कैकेयी के महल में हैं। अन्तःपुर तक उनको किसी ने रोका नहीं अपितु द्वारपालों और परिचारिकाओं ने उन्हें उस कक्ष की ओर इंगित किया जहाँ पर राजा दशरथ कल रात्रि गये थे और अभी तक निकले नहीं थे।


कुल की महिमा कहकर, राजा के अभिवादन और अपने आगमन का संकेत देने की परम्परा थी राजवंश में। स्वस्थ परम्परा थी, जो सदा ही राजकीय कार्यों में आवश्यक गाम्भीर्य और गुरुता का वातावरण उत्पन्न कर देती थी। कुल की परम्परायें पथ प्रदर्शित करने वाले दीपों की भाँति होती हैं जो भटकने से रोकती हैं। कभी कभी राजा दशरथ को व्यक्तिगत संवादों में यह अतिरिक्त और अनावश्यक लगता था पर सुुमन्त्र ने कभी इसका अनियमन नहीं किया था। जब राजा दशरथ ने कोई उत्तर नहीं दिया तब सुमन्त्र ने कक्ष में प्रवेश किया और परिस्थिति समझने का प्रयत्न किया। राजा को उन्होंने इतना शोकनिमग्न कभी नहीं देखा था। राजा के कुछ न कहने पर कैकेयी ने स्वतः ही सुमन्त्र को राम को बुला लाने के लिये कहा। राजा की उपस्थिति में किसी और के आदेश स्वीकार करना सुमन्त्र को तभी स्वीकार होता था तब राजा अपने नेत्रों से उसका अनुमोदन करते। सुमन्त्र राजा की ओर देखते रहे, न राजा ने कुछ कहा, न सुमन्त्र कक्ष से बाहर गये।


अपने माँगे वरों को राजकीय आदेश के रूप में थोपने को आतुर कैकेयी ने राजा को पुनः कठोर वचन कहे।  सुमन्त्र को अनुमोदन देने में विलम्ब का अर्थ जब कैकेयी ने उनकी प्रतिज्ञा से जोड़ कर कहा तब राजा दशरथ क्षोभ से व्याकुल हो उठे और अपना मस्तक हिला सुमन्त्र को जाने को कहा।


शीघ्र ही राम लक्ष्मण और सुमन्त्र के साथ कक्ष में उपस्थित थे। पिता शोकमग्न सर झुकाये बैठे थे, न राम को देखकर कुछ कहा, न कोई प्रतिक्रिया की। राम को अनर्थ का पूर्वाभास हो चुका था। पीछे लक्ष्मण सशंकित खड़े थे। पिता से राम ने सीधे पूछा कि आप मुझे देखकर सदा की भाँति प्रसन्न क्यों नहीं हैं, आप कुछ कहते क्यों नहीं? क्या मेरा कोई अपराध है? भरत, शत्रुघ्न, मातायें आदि तो सब सकुशल हैं? किसी ने आपको कुछ कहा है? तब माता कैकेयी को ओर मुख कर राम ने पूछा कि माँ क्या आपने पिता को कोई कठोर वचन कहे हैं?


तुरन्त उत्तर न पाकर राम समझ गये थे कि माँ कैकेयी ही पिता के शोक का कारण है। राम को इस प्रकार अपनी ओर आक्रोशित देखकर कैकेयी असहज हो गयी और बोली कि शोक का कारण तो तुम हो राम। राजा तुमसे कुछ कहने का साहस नहीं कर पा रहे हैं। मुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा करते समय तो शूरवीर बन रहे थे पर तुम्हारे कारण शिथिल पड़ गये हैं। वैसे तो पुत्र को पिता की प्रतिज्ञा को आज्ञा के रूप में पालन करना चाहिये पर पता नहीं कि तुम उनकी प्रतिज्ञा पालन में सहायता करोगे कि नहीं? इसी संशय में राजा शोकनिमग्न हैं।


पिता दशरथ के हृदय को दुख से जीर्णशीर्ण कर देने के बाद माँ कैकेयी राम की पितृभक्ति पर भी आक्षेप लगा रही थी। राम यह स्वीकार नहीं कर पाये क्योंकि वह जानते थे कि वह अपने पिता के लिये कुछ भी कर सकते हैं। राम पिता के इस प्रकार किये गये अपमान को सहन नहीं कर पाये और बोले।


“देवी आपको धिक्कार है। मेरे प्रति ऐसी बात आपको नहीं कहनी चाहिये। राम पिता के लिये प्राण भी दे सकता है। जो राजा को अभीष्ट हो, स्पष्ट कहो। राम दो प्रकार से बात नहीं करता। रामो द्विर्नाभिभाषते।”

9 comments:

  1. बहुत सुंदर अति सुंदर ढंग से लिखा गया ये प्रसंग , ऐसा आभास हुआ कि हम भी उस कक्ष में श्री राम जी के चरणों में हों जैसे, अश्रु धारा बहाती ईस सुंदर प्रस्तुति के लिए आपका आभार, जय श्री राम 🙏

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    1. वाल्मीकि रामायण में राम बोलें हैं और स्पष्ट बोले हैं। आभार आपका।

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  2. सुन्दरता से किया वर्णन। चलचित्र की भांति पूरा दृश्य आंखों के सामने हो रहा हो जैसे। बहुत सुन्दर आलेख।

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    1. सब पात्रों के मन में क्या चल रहा होगा, समझना कठिन हो जाता है। एक प्रयास भर है, समझ पाने का। आभार आपका।

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  3. बहुत सुंदर वर्णन, प्रसंग तो भावुक कर गया । सच बिलकुल चलचित्र जैसा ।

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    1. आभार आपका जिज्ञासाजी।

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    2. कठिन एवं विषम परिस्थिति को शब्दों में प्रकट करना आपका, निःसंदेह बहुत सुंदर
      मन को छू गया। प्रणाम भैया

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    3. राम उस समय किस मानसिक भार से उबर रहे होंगे, सोचना कठिन है। आभार आपका परितोषजी।

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  4. सर बहुत ही सुंदर बात कही मानो सामने ही हो रहा हो बहुत बहुत धन्यवाद आपका
    जय हिंद

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