6.7.21

सात चक्र - स्थिति

 

सात चक्रों की अवधारणा संभवतः भारतीय सिद्धान्त पक्ष का सर्वाधिक चर्चित तत्व है। शरीर में स्थित ऊर्जा के ये चक्र न केवल शरीर को अध्यात्म से जोड़ते हैं वरन भूत, भविष्य और वर्तमान से होते हुये कालातीत अवस्था तक पहुँच जाते हैं। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की भिन्न अवस्थाओं को भी ये चक्र विश्लेषित करते हैं। योग हो, तन्त्र साधना हो, बौद्धपंथ हो, आधुनिक मनोविज्ञान हो, प्राच्य और पाश्चात्य के सभी मत मानसिक संरचना को इसी सिद्धान्त से समझने का प्रयत्न करते हैं। समझ में थोड़ा बहुत अन्तर काल और विकास के कारण है। साथ ही अपने पंथ के अन्य सिद्धान्तों से संयोजन के प्रयास में इसके मूलभूत स्वरूप में न्यूनतम छेड़छाड़ दृष्टव्य है।


संलग्न चित्र में चक्र, उनके स्थान, सम्बद्ध काल, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक लक्षण दिखाये गये हैं। इन्हें पूरा समझ पाना किसी योगी के लिये ही संभव है पर कुछ आधारभूत तथ्य इसे क्रमशः खोलने में सहायक होंगे।


प्रथम दो चक्र समझ आते हैं, वे क्रमशः भूत और भविष्य से सम्बद्ध हैं। अन्तिम दो भी स्पष्ट हैं, वे वर्तमान और कालातीत अवस्था को व्यक्त करते हैं। मध्य में स्थित शेष तीन काल की व्यापित अवस्थाओं के परिचायक हैं। व्यापित काल अवस्थायें बन्धनकारी लग सकती है। प्रारम्भिक स्थितियों में ऐसा होता भी है, ऊर्जा बट जाती है। कालान्तर में इनमें साम्य आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं होगा तो हमारा विकास नहीं होगा, हम उसी चक्र में अटके रहेंगे। विकास से हम ऊपरी चक्रों में क्रमशः बढ़ते जाते हैं और पहले अपने अन्दर, फिर परिवार में, फिर समाज में और अन्ततः सकल विश्व में एक संतुलित स्वरूप देख पाते हैं। ऊर्जा, साम्य, विकास और संतुलन को यह क्रम लगभग हर विषय में प्रयुक्त होता है।


मध्य के ये तीन चक्र बद्धता और उन्मुक्तता के बीच के संक्रमण की स्थिति है, बद्धता भूत और भविष्य की, उन्मुक्तता वर्तमान की। बद्धता सब कुछ अपने में समेट लेने की, उन्मुक्तता सब में व्याप्त हो जाने की। स्वाभाविक है कि इस यात्रा में परिश्रम अधिक करना पड़ता है, समय अधिक लगता है। जहाँ होड़ लगी थी, प्रतियोगी मानसिकता थी, वहाँ साम्य बिठाना पड़ता है। बन्धन से बाहर आने के क्रम में चित्र में इंगित गुण विकसित होते हैं। बन्धन से बाहर आने का प्रयास ही उन गुणों को जीवन में परिवर्धित करते हैं जो विस्तारमना होते हैं। यह तब तक संभव नहीं है जब तक हम भूत और भविष्य को संतुलित रूप में वर्तमान के साथ नहीं रखते हैं। एकता, समग्रता में विस्तार की आवश्यकता है। विस्तार तीनों कालों का, विस्तार तीनों कालों के परस्पर प्रभाव का।


अन्ततः वर्तमान ही सब कुछ है। यदि वर्तमान को जी लिया और बिना कुछ बोझ लिये आगे बढ़ गये तो काल की बन्धनकारी प्रवृत्ति भी कम रहेगी। यदि वर्तमान को पूर्णता से नहीं जिया, निष्कर्ष तक नहीं पहुँचाया तो वह अतृप्त रहेगा और आगत काल में अपना भाग माँगेगा। यही संभवतः कर्मफल का सिद्धान्त है। बिना क्लेष के जी पाना, बिना अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश के जी पाना।


आपका जीवन ऊर्जा के इन सात चक्रों में कहीं न कहीं रहेगा ही। मन में उत्पन्न विचार किसी न किसी चक्र का भाग रहेगा ही। निम्न चक्र प्रारम्भ में जागृत रहते हैं पर बिना उनको पार किये, बिना उन पर ध्यान दिये, बिना उनको निष्कर्ष पर पहुँचाये विकास संभव भी नहीं है। विकास के प्रारम्भिक चरणों में प्राथमिकता वही है। बिना उन आवश्यकताओं को पूर्ण किये हुये संतुलन और एकाग्रता की बात करना हास्यास्पद है। पर उन आवश्कताओं में कितना समय दें, यह प्रश्न सदा ही बना रहता है। उनको यथोचित समय और ऊर्जा देकर ही आगे बढ़ा जा सकता है, नहीं तो अवसर पाकर वे पुनः भड़केंगी। इन आवश्यकताओं का एक मूलभूत नियत स्तर बनाकर रखना ही होता है। शरीर और परिवेश की सुरक्षा, खाने को भोजन, रहने को घर, जीवकोपार्जन, भविष्य का चिन्तन, सन्तति का क्रम, आधार का निर्माण करना ही पड़ता है।


यदि प्रथम चक्र में ही अटक गये, उसी में सारा समय व्यतीत कर दिया, उसी में निमग्न हो गये, उसी में सुख ढूढ़ने लगे तो मान लीजिये कि आपने सारी संभावनाओं को नकार दिया है। एक दिन मन भर जायेगा, काल में सबका अवरोह आता है, सुख के अनुभव का भी। बार बार एक ही विषय सुख देना बन्द कर देता है। तब कहाँ जायेंगे, तब ऊपर के चक्रों में जाने का मन तो करेगा पर आपके पास न ऊर्जा रहेगी और न ही समय। निःशब्द, निर्व्यक्त, निरुपाय आप जीवन से प्रयाण कर जायेंगे। काल की कला से बाहर आना है तो कालातीत तो होना ही पड़ेगा।


धर्म रक्षित अर्थ और काम के प्रयास मोक्ष तक ले जाने की सामर्थ्य रखते हैं। धर्मविहित अर्थ समाज के द्वेष का कारण बनता है और धर्मविहित काम समाज की निन्दा का। वाल्मीकि रामायण में राम के मुख से निकले ये शब्द असमञ्जस की किसी भी स्थिति से बाहर निकाल लाते हैं और एक सहज सा साम्य प्रकट कर देते हैं। वैशेषिक भी जीवन के दो ध्येय कहता है, एक अभ्युदय औऱ दूसरा निःश्रेयस। एक भौतिक श्रेष्ठता तो दूसरा सर्वोत्तम तक की यात्रा, एक के बाद एक चक्रों से होते हुये, ऊर्ध्वमना हो।


सात जन्म, मन की सात अवस्थायें, काल की सात कलायें, सात चक्र, ये सब अन्ततः एक बिन्दु पर अपनी निष्पत्ति पा जाते हैं। इन सात चरणों की यात्रा के व्यवहारिक पक्ष अगले ब्लाग में।

4 comments:

  1. लाजवाब !!ऊर्जा चक्र को समझने का सुंदर प्रयास किया आपने !!

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  2. आभार आपका। जिन विमाओं से संभव हो सका है, समझने का प्रयत्न भर किया है।

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  3. वाह,बहुत ही सारगर्भित आलेख।

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