1.7.21

सात जन्म - क्रम


ऊर्जा, साम्य, विकास और एकता की विमाओं में भूत, भविष्य और वर्तमान को कैसे साधा जाये, यह जीवन का मूल प्रश्न हो जाता है। साथ ही ढेर सारे और भी अनुप्रश्न उठते हैं, जिनका निवारण आवश्यक हो जाता है। जो प्रश्न हमारे हैं वही प्रश्न हमारे पूर्वजों के भी थे। जब जीवन की आपाधापी से कुछ समय निकाल कर अपने पूर्वजों के साथ बैठता हूँ तो दो भाव उमड़ते हैं। एक भाव होता है अगाध आदर का। अद्भुत मेधा, अद्भुत चिन्तन, अद्भुत उहा और विचारों का एक व्यवस्थित क्रम। दूसरा भाव होता है, आनन्द के अतिरेक में उनसे लिपट जाने का। गर्व होता है, मन करता है कि साँस रोके रहूँ और उस गर्वानुभूति को जाने ही न दूँ। प्रश्न घुमड़ते हैं, जब तक उत्तर नहीं पा जाता मन, अतृप्ति बनी रहती है। उत्तर पाते ही आनन्द की रेख पूरे अस्तित्व में तड़ित तरंगा सी समा जाती है।


उनके लिखे हुये में और हमारे समझे हुये में बस प्रत्यक्ष का अन्तर होता है। उन्होंने समस्त ज्ञान का प्रत्यक्ष किया होता है, एक प्रक्रिया में उतर कर। योग के सम्यक अनुपालन से और ध्यान, धारणा और समाधि से होते हुये जब तथ्य उद्भाषित होते हैं तब व्यक्त शब्द आप्त द्वारा प्रत्यक्ष किये गये ज्ञान की सामर्थ्य पा जाते हैं। हमें वही ज्ञान अनुमान से प्राप्त होता है और शब्द रूप में सहज उपलब्ध है। यही कारण है कि शाब्दिक ज्ञान जानने के बाद भी उसका मर्म समझने में हमें वर्षों लग जाते हैं। अनुभव बहुत कुछ सिखाता है, शब्दों में पड़ा ज्ञान, श्लोकों में निहित शिक्षा, सूत्रों में क्रमबद्ध पिरोया ज्ञान अपने आप को धीरे धीरे व्यक्त करने लगता है।


जीवन को जानने और समुचित निभाने के लिये ऊर्जा, साम्य, विकास और एकता की विमाओं को समझना आवश्यक है। किस प्राथमिकता और क्रम में ऊर्जा लगायी जाये, किस प्रकार विपरीतता में साम्य स्थापित किया जाये, किस प्रकार आवश्यक विकास लब्ध हो और अन्ततः किस प्रकार समग्रता से आन्तरिक और वाह्य विश्व में एकत्व संस्थापित किया जाये? पिछले ब्लाग में देखा कि भूत, भविष्य और वर्तमान में भटकता मन ऊर्जा खींचता है, पहले क्या कर्म निष्पादित हों? क्या धरें और क्या तजें? धरना भविष्य का द्योतक है, तजना भूत का, यथास्थिति वर्तमान की। किसको कितना महत्व दिया जाये कि सब संतुलित चले? तब संतुलन की स्थिति में किस प्रकार गति हो? तब किस प्रकार गतिमय जीवन के सम्बन्धों में तदात्म्य स्थापित हो, अन्य जीवों के साथ, प्रकृति के साथ, स्वयं की इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्मा के साथ।


जब क्रिया का एक मात्र अवसर वर्तमान ही है, जो भी करना होगा वर्तमान में ही करना होगा। स्मृति भी वर्तमान के क्षण में आयेगी, कल्पना भी वर्तमान के क्षण ही आयेगी, ज्ञान भी वर्तमान में प्राप्त होगा और कर्म भी वर्तमान में ही सम्पादित होंगे। स्मृति और कल्पना के साथ न्याय करने के लिये ज्ञान आवश्यक है, आगे बढ़ने के लिये कर्म आवश्यक है। वर्तमान को सही प्रकार से निभाना जिसे आ गया, उसे जीवन जीने की कला का मर्म भी आ गया।


विकास क्रमिक है। समग्र में क्रमशः शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास। हर अंग का अपना क्रमिक विकास। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ें, नीचे से ऊपर बढ़ें, वाह्य से अन्दर बढ़ें तो शारीरिक स्तर पर ही, सुरक्षा, प्रजनन, पाचन, संचालन, संप्रेषण, संतुलन से होते हुये स्थैर्य आता है। मानसिक स्तर पर इन्द्रिय सुख, प्रसन्नता, व्यापकता, समर्पित प्रेम, स्वतन्त्रता, शुद्धता होते हुये अस्तित्व की अनुभूति होती है। बौद्धिक स्तर पर स्थायित्व, रचनात्मकता, मौलिकता, सहृदयता, उन्मुक्त विचार, दृश्य चेतना से होते हुये एकता स्थापित होती है। इसी प्रकार आध्यात्मिक स्तर पर अस्मिता, उत्सुकता, विकास, समर्पण, विशिष्टता, प्रज्ञा के मार्ग से ऋतम्भरा प्रतिष्ठित होती है।


आपको यह तथ्य निश्चय ही रोचक लगेगा कि प्रत्येक अंगों के विकासक्रम में सात ही चरण दिये गये हैं। सात की यह अवधारणा जिसे मैंने सात जन्मों के प्रश्न से ढूढ़ने का प्रयास किया था और क्रमशः काल और मन की गति से सम्बद्ध करने का प्रयास किया था, वह अवधारणा सात ऊर्जा चक्रों में अपनी निष्पत्ति पा जाती है।


शरीर में सात ऊर्जा चक्र माने गये हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार। नाड़ियों की संरचना में तन्त्रिका तन्तुओं के संगमस्थल ऊर्जा के केन्द्र माने गये हैं। समग्रता और निर्बाध रूप से जीने के लिये आवश्यक है कि इनमें ऊर्जा प्रवाहित होनी चाहिये। जहाँ पर यह प्रवाह बाधित हो जाता है, हम अस्तित्व के उसी बिन्दु पर अटक जाते हैं, ऊपर नहीं बढ़ पाते हैं। न केवल ये चक्र हमारी मानसिक गति से सम्बद्ध हैं वरन काल से भी जुड़े हैं। किस समय किसको प्राथमिकता देनी है, साम्य का स्तर क्या हो, ऊपर कैसे बढ़े और अन्ततः एकत्व कैसे आये, इसका एक अद्भुत विवरण इस प्रकरण में मिलता है।


ऊर्जा, साम्य, विकास और एकता की यात्रा है, इन चक्रों में क्रमशः ऊपर बढ़ना। जानेंगे इसके विश्लेषित रहस्य अगले ब्लाग में।

7 comments:

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  2. वर्तमान को सही प्रकार से निभाना जिसे आ गया, उसे जीवन जीने की कला का मर्म भी आ गया ।

    जीवन मे संतुलन किस प्रकार हो इसे भी सुन्दरता से समझाया है!!सुन्दर लेख है!

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    1. संतुलन ला पाना कठिन कार्य है। यदि वह संभव हो सके तो वर्तमान में जीना आ जाता है। बहुत आभार आपका।

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  3. सात ऊर्जा चक्र और जीवन की ऊर्जा साम्य विकास और एकता का भाव ... सभी तो संतुलन है जो जरूरी है ...
    गहरे संवाद का सार्थक चिंतन ....

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    1. जी आभार। संतुलन ही हर स्थान पर सब साधे है।

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  4. अदभुत और गूढ़ लेखन।

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