13.2.21

मित्र - ८(भोजन एक दृष्टिकोण)

कहते हैं कि यदि ठीक से उगाया न हो, ठीक से पकाया न हो, ठीक से चबाया न हो, ठीक से खाया न हो और ठीक से पचाया न हो तो भोजन अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाता है। यहाँ तक तो ठीक है पर यदि हम छात्रावासियों के द्वारा भोजन के बारे में ठीक से बताया न जाये तो वह व्यतिक्रम कर दुष्प्रभाव छोड़ जाता है। ठीक वैसी ही स्थिति जैसे किसी कवि सम्मेलन में बड़े कवि को बोलने का अवसर न मिलने पर हो जाती है। यदि भोजन की बात चलती है तो उसमें छात्रावासियों का अनुभव के आधार पर चर्चा करने का प्रथम अधिकार है। कारण यह कि हमारे लिये भोजन एक अत्यन्त भावनात्मक विषय है। दो घटनाओं से इस तत्व को समझना और भी सरल हो जायेगा। 


पहली घटना पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय अब्दुल कलाम की है और दूसरी मेरे एक मित्र की। अपनी आत्मकथा में कलाम बताते हैं कि एक बार दिन भर की थकान के कारण उनकी माँ से रात के खाने में जो रोटी सिकीं, वो थोड़ा जल गयी थीं। उनके पिता ने बिना किसी प्रतिक्रिया के भोजन किया और माँ के द्वारा अपनी भूल इंगित करने पर भी कहा कि भोजन स्वादिष्ट था। जब कलाम ने अपने पिताजी से पूछा कि आपने जली रोटी पर माँ को कुछ क्यों नहीं कहा? पिता का उत्तर था कि जली रोटी उतना कष्ट नहीं देती जितना कठोर शब्द देते। 


दूसरी घटना आईआईटी के भोजनालय की है। वहाँ जब भी कुछ विशेष बनता था तो सीमित मात्रा में मिलता था। भरे हुये शिमलामिर्च बने थे जो मेरे एक मित्र को अत्यन्त प्रिय थे। जब उसने एक अतिरिक्त के लिये आग्रह किया तो कर्मचारी ने मनाकर दिया। क्रोध और आवेश के अतिरेक में मेरे मित्र ने मिला हुआ शिमलामिर्च भी क्रिकेट की बाल की तरह सामने वाली दीवार पर फेंक कर मारा। पूरे भोजनालय को पार करता हुआ शिमलामिर्च का हरा आवरण और भरे हुये पीले आलू दीवार पर छप गये थे। 


दोनों ही घटनायें अपवाद की श्रेणी में आती हैं। मेरा मन्तव्य इन घटनाओं का विश्लेषण करना या उनसे शिक्षा ग्रहण करना नहीं है वरन एक छात्रावासी के लिये इन दोनों घटनाओं के साधर्म्य और वैधर्म्य को दिखाना है। इन्हीं परिस्थितियों में छात्रावासी की क्या भिन्न प्रतिक्रिया होती है या इन्हीं प्रतिक्रियाओं में छात्रावासी के लिये क्या भिन्न कारण होते हैं। कारण और प्रतिक्रिया से साधर्म्य और वैधर्म्य। 


वैवाहिक जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में श्रीमतीजी हमसे इस बात को लेकर खिन्न रहती थीं कि भोजन करने के बाद हम उसके बारे में कुछ कहते नहीं थे। कोई प्रतिक्रिया नहीं, या कुछ पूछा जाये तो अच्छा है, बस इतना ही। कालान्तर में उन्होंने भी समझ लिया कि यदि दो रोटी अधिक खा गये तो भोजन बहुत स्वादिष्ट बना है। भोजन जब स्तरीय नहीं बन पाता था या कुछ भूल हो जाती थी तब भी पहली बार में लिया हुआ पूरा भोजन ग्रहण कर ही उठना होता था। थाली में कुछ भी शेष छोड़ना भारतीय संस्कृति में असभ्यता की श्रेणी में आता है अतः श्रीमतीजी को कभी यह पता ही नहीं चला कि हम उनको कष्ट नहीं पहुँचाना चाहते हैं या संस्कृति की अवहेलना नहीं करना चाहते हैं। यह तथ्य बहुत वर्षों बाद, बहुत भूलों पर बार बार तटस्थ रहने के बाद और भावनात्मक रूप से बहुत कुरदेने के बाद ही उद्घाटित हो पाया कि भोजन न छोड़ने में या कुछ कटु न बोलने में उपरोक्त ये दोनों ही कारण नहीं थे। 


माँ के हाथ का नियमित रूप से भोजन दस वर्ष में ही छूट गया था। उसके १७ वर्ष बाद श्रीमतीजी का जीवन में पदार्पण हुआ। बीच का कालखण्ड भोजन की दृष्टि से ईश्वरीय कृपा पर आश्रित रहा। भिन्न भिन्न भोजनालयों में जैसा मिला, जितना मिला, जब मिला, स्वीकार किया, निर्विकल्प हो। महेन्द्र बता रहे थे कि भोजन का स्तर ठीक नहीं होने के कारण कई बार वह आधा पेट ही खा पाते थे। उनका छात्रावास में आगमन हम लोगों के कुछ वर्षों बाद हुआ, संभवतः तब तक उन्हें क्षुधा साधने का तनिक अभ्यास हो गया होगा। मेरा पूरा विश्वास है कि यदि प्रारम्भ से हमारे साथ रहते तो उनके पेट को कभी अर्धतृप्त नहीं रहना पड़ता। हाँ यदि सौभाग्यवश पिछला भोजन स्वादिष्ट रहा और उदरस्थ हो हमने खाया तो वर्तमान में कम खाकर भी कार्य चलाया जा सका। पर इस तरह के अवसर महीने में एक या दो बार से अधिक कभी नहीं रहे। 


इतने वर्षों तक बाहर का भोजन करते रहने से जीवन में तीन अन्तर आये। पहला घर के भोजन से स्नेह बढ़ गया और होटल आदि के भोजन से वितृष्णा। जब श्रीमतीजी उलाहना देती थीं कि आप कृपण हैं और पैसे बचाने के लिये बाहर खाने नहीं जाते हैं, तो वह आंशिक रूप से असत्य होती थीं। दूसरा अन्तर यह आया कि जब भी जितना भोजन प्राप्त हुआ ईश्वर का प्रसाद मान कर ग्रहण किया। यदि पता नहीं हो कि अगला भोजन कब मिलेगा और वह खाने योग्य होगा कि नहीं, स्वादिष्ट होगा कि नहीं, तब कुछ भी अग्राह्य नहीं रह जाता है। भोजन ही नहीं वरन चाय तक को मना न करने का स्वभाव सा बन गया। तीसरा अन्तर यह कि स्वाद के ऊपर नियन्त्रण सा हो गया। देखा जाये तो भोजन का कालखण्ड जीभ में कुछ क्षणों के लिये ही होता है। दार्शनिक रूप से इस तथ्य को समझ लेने से कम या अधिक नमक, मसाला या तेल जीवन में क्या अर्थ रखता है? 


इस परिप्रेक्ष्य में देखने से पहली घटना के प्रतिक्रियाहीन पति होने के बाद भी मेरा किसी को मानसिक कष्ट न पहुँचाने का मन्तव्य नहीं रहा। प्रतिक्रिया इसलिये नहीं हुयी कि भोजन कभी अप्रिय लगा ही नहीं, या तो सामान्य लगा या स्वादिष्ट। दूसरी घटना के नायक की भाँति दूसरी शिमलामिर्च की इच्छा तो सदा रही पर आवेश इतना कभी नहीं आया कि पहली वाली शिमलामिर्च भी फेंक दें। 


जब भोजन का विषय इतना भावनात्मक हो तो उससे जुड़े और भी प्रकरण आगे के ब्लागों में प्रकट होंगे।

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