2.2.21

मित्र - ५(छात्रावास और बालपन)

दस वर्ष की अवस्था में परिवार से बाहर आकर छात्रावास में रहने लगना मेरे मन में एक उपेक्षित और त्यक्त भाव उत्पन्न कर सकता था। एकान्त की आर्द्रता में मन बहुधा रपटीला हो जाता है। आशाओं के कितने ही सिंहासनों पर बैठाकर आपको छात्रावास भेजा गया हो पर जब वर्तमान क्षुब्ध होता है भविष्य का आकर्षण धुँधला जाता है। तब क्षोभ उठता है परिवेश पर, परिवार पर और हर उस वस्तु पर जिससे आपकी स्मृतियों के तन्तु जुड़े हैं। बस एक दिन पहले तक तो सब अच्छा था, पिता का आश्रय था, माँ का ममत्व था और स्नेहिल भाई बहन। स्वादिष्ट भोजन की छौंक, विशेष बनाने का हठ, बनने पर रूठने के कारण, समझाने और मनाने में लगी माँ, कल बनाने के आश्वासन, तब बैठाकर भोजन कराने और कहानी सुनाते हुये सुलाने का उपक्रम। सब सुखमय भाव सहसा वाष्पित हो चले और कहाँ विधाता ने निर्मम विश्व में ला पटका। जब क्षोभ पीड़ा से परे हो जाता है तो आँखों से टपकने लगता है।


हम सबकी स्थिति लगभग एक सी ही थी, सबके अपने आत्मीय छूटे थे। दिखाये हुये स्वप्नों को अपनी नन्हीं पलकों पर ढोने का प्रयास करते हुये हम सब किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे, उपेक्षित और त्यक्तमना। धीरे धीरे दिनचर्या के घूर्ण में समय भागता गया, एक परिवार के स्थान पर मित्रों का एक बड़ा परिवार मिल गया था। साथ उठना, खाना, पढ़ना, खेलना, आत्मीयता बढ़ने लगी। फिर भी प्रथम माहों में कदाचित कुछ कालखण्ड ऐसे निकल ही आते थे जब आप एकान्त में होते थे और परिवार की स्मृतियाँ घुमड़ने लगती थीं। उस समय तो अपने ही विचारों की समझ नहीं थी, घर में माँ और पिता किस मानसिक स्थिति में होंगे, इसकी कल्पना बालमनों को नहीं थी। मुझे उस भाव की अनुभूति तब हुयी जब मेरा पुत्र १२वीं के बाद १८ वर्ष की अवस्था में छात्रावास में रहने गया। अनुमान लगाना हो तो माँ के भावों की सान्ध्रता मुझसे कहीं अधिक और दस वर्ष के पुत्र के लिये चिन्ता के भाव कहीं अधिक गहरे।


कैसे रहता होगा, कुछ खाया होगा कि नहीं, कपड़े कैसे धोता होगा, आदि जाने क्या क्या? जब से सुना होगा कि वहाँ अपने कमरे में झाड़ू भी लगानी पड़ती है, भोजनालय में भोजन का वितरण भी करना पड़ता है, बिस्तर पर चद्दर और रजाई भी समेटनी और तहानी पड़ती है, तब माँ का हृदय असहज हो गया होगा। इन आशंकाओं में जाने कितने दिन बीते होंगे। उस समय हर हाथ में मोबाइल या हर घर में टेलीफोन नहीं था, कुशलक्षेम पत्रों के माध्यम से ही प्रेषित की जाती थी। पोस्टकार्ड या अन्तर्देशीय में इतना स्थान नहीं रहता था कि उनसे मिलने की व्यग्रता के अतिरिक्त कुछ और लिखा जा सके। यदि स्थान बचे भी तो कौन संवेदनशील पुत्र अपनी समस्याओं और न्यूनताओं को लिख कर अपने अभिभावकों की चिंता बढ़ा देगा।


कुछ ही विशेष अवसरों पर हमें मिलने की अनुमति थी और अभिभावकों के लिये बार बार समय और संसाधन निकाल पाना कठिन था। कई बार तो पिता के साथ माँ का आना नहीं हो पाता था। आप कल्पना कीजिये कि उस समय की जब माँ अपने बेटे से मिलने पाती होंगीं, तब मन में स्नेह का सागर उछाल लेता होगा। क्या बना कर ले जाऊँ? जिसकी भी माँ आती थी या यदि नहीं भी पाती थी तो इतना कुछ भेजती थी कि हम सबके लिये उत्सव सा हो जाता था। सबकी माँ सबके लिये भेजती थी। उसका ममत्व अपने बेटे और उसके साथ उसी की भाँति अपनी माँ से वंचित रह रहे सभी मित्रों के लिये अनुनादित होने लगता था, नित नित बढ़ने लगता था। कनस्तर भर के लड्डू, बालमिठाई, ठेकुआ, गजक, क्या क्या नहीं रहता था हम सबके पास।


जैसे वंचितों के पास आया धन अधिक दिन संचित नहीं रह पाता है, हमारा भी ऐश्वर्य एक दो दिन में ही समाप्त हो जाता था। कुछ अन्तराल के बाद किसी और मित्र की माँ, हमारे रिक्त उदरों के लिये थोड़ा और ईंधन और हृदय के लिये माताओं का स्नेह। बीच का कालखण्ड उनकी स्मृतियों में कट जाता था। अवकाश से वापस आने के बाद तो उत्सव दो तीन सप्ताह तक चल जाता था।


हम मित्रों पर हमारी माताओं का विशेष स्नेह रहा है। २०१६ में जब हम सब मिल रहे थे तो हम सबसे अधिक आह्लादित मेरी माँ थी। अभी जब हम सब बैठकर गूगल पर बतिया रहे थे, रंजन की माँ ने सबसे बात की, सबका कुशलक्षेम पूछा। यद्यपि हम सब जीवन के ५०वें सोपान पर पैर रखने जा रहे हैं पर हमारी माताओं के लिये हम अभी भी दस साल के बच्चे हैं। संदीप की माँ तो पूरी गूगल बैठक में रही और सबकी बातें सुनती रहीं, इससे तनिक अंकुश हम सबकी उत्श्रृंखलता पर भी लग गया। उनके रहने से एक घटना की चर्चा हुयी जब प्रदीप और रवीन्द्र संदीप के घर पहुँचे थे, संदीप उस समय आईआईटी में थे। माँ ने दोनों को खाना परोसा और खिलाने लगी। हम छात्रावासियों को मुक्तक्षुधा का वर मिला है, यथानुसार दोनों तृप्त होकर भोजन किये और पूरे परिवार के लिये बनी मात्रा उदरस्थ कर गये।


माताओं का स्नेह केवल भोजन तक ही सीमित नहीं था। मुझे स्पष्ट याद है कि एक बार मैं ज्वर में था। उस समय मेरे कक्ष में रहने वाले मेरे कनिष्ठ विक्रम की माँ आयी थीं। मेरी स्थिति देखकर वह रुकी रहीं और मेरे माथे पर तब तक गीली पट्टी करती रहीं, जब तक ज्वर का ताप कम नहीं हो गया। यह घटना मेरी स्मृति में स्थायी रूप से बस गयी है और मेरी कृतज्ञता का स्थायी अंग बन गयी है। हम छात्रावासियों को एक और विशेष स्नेह अपने विद्यालय के मित्रों की माताओं से भी मिलता था। यदाकदा जब उनके घरों में जाने का अवसर मिलता था तो सदा ही ममत्वपूर्ण स्नेहिल वातावरण मिलता था। ममता का यह संवाद तब वृहद और व्यापक हो जाता था, परिवार की सीमाओं से परे।


इस परिप्रेक्ष्य में हम छात्रावासियों का सौभाग्य रहा कि हमें एक नहीं जाने कितनी माताओं के स्नेह ने सिंचित किया है।

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