6.8.16

चीन यात्रा - ३

यदि बौद्धधर्म को कर्मकाण्डों और प्रतीकों के परे देखें तो निष्कर्ष रूप में टाओ और जेन विशुद्ध दर्शन हैं। कोई भी शासन व्यवस्था हो, टाओ और जेन को व्यवहार में लाया जा सकता है। परिवेश की स्थिरता में दर्शन पनपता है। कौन सी स्थिर शासन व्यवस्था अधिक अनुकूल हो सकती है, पूँजीवाद या साम्यवाद, यह बड़ा ही रोचक विषय है। एक ओर जापान,  दूसरी ओर चीन है। बौद्धधर्म चीन के रास्ते ही जापान पहुँचा है। जापान में लोकतन्त्र और पूँजीवाद की स्थिरता विकास को  प्रेरणा देती है, वहीं चीन में कठोर अनुशासन और साम्यवाद समाज को सरलता की ओर ले जाते से दिखते हैं। भौतिकता और आध्यात्मिकता की विमायें भी ले आयेंगे तो विषय और जटिल हो जायेगा। सारांश में यह मानकर चलें कि जब भौतिक विमा बाधित हो जाती है, अध्यात्म सरलता की राह पकड़ लेता है।

लगता है, चीन में भी यही हुआ। १९११ की क्रान्ति के बाद वहाँ साम्यवाद का उदय हुआ, राजनैतिक परिवर्तन के द्वारा शासन व्यवस्था बदली। धार्मिक अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगे, राज्य का कोई धर्म नहीं रहा। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकारक्षेत्र अत्यन्त सीमित कर दिया गया। सामाजिक और आर्थिक जीवन के सारे पक्ष साम्यवाद में समतल होने लगे। प्रतिभा की प्रतिष्ठा का आधार पूँजी नहीं रह गया। जन को जीवनशैली चुनने का कोई विकल्प नहीं। जब जन से उसका धर्म छीन लिया होगा, उसके कर्मकाण्डों और प्रतीकों से वंचित कर दिया होगा तो सांस्कृतिक विरह के उस कालखण्ड में धर्म से संबद्ध दर्शन, मान्यतायें और गाढ़ी और स्थायी हो गयी होंगी। कहते हैं कि जब इस्लाम पूर्व की ओर बढ़ा, बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया गया, बुत(बुद्ध) तोड़े गये, व्यापक नरसंहार हुआ। कई बौद्धों ने अपने प्राण बचाने हेतु इस्लाम अपना तो लिया, पर बौद्ध धर्म की मान्यताओं से स्वयं को विलग न कर पाये। वही सूफी हो गये। यह आश्चर्य नहीं कि अपने स्थान पर गोल गोल घूमते हुये ध्यानस्थ हो जाने की पद्धति सूफी और तिब्बत के बौद्धों में किसी पुराने संपर्क को दर्शाती है। ऐसे ही न जाने कितने अनसुलझे तथ्य सांस्कृतिक विरह के प्रतीक हों।

साम्यवाद का नाम आते ही हमारे मन में दो चित्र उभरते हैं, एक विघटित होता रूस, दूसरा हड़ताल, अव्यवस्था और उत्पात में डूबता समृद्ध पश्चिम बंगाल। ये दोनों ही तथ्य साम्यवाद के सत्य हैं, एक उसके अवरोह का सत्य है एक उसके आरोह के तथाकथित प्रयासों का। चीन का साम्यवाद इन दोनों ही लक्षणों से पृथक है। चीन का साम्यवाद १९११ में ही अपने आरोह पर पहुँच गया था तथा अवरोह के क्रम में रूस के विघटन और थियानमान चौक की घटनाओं से सीख लेते हुये अपनी दिशा बदल चुका है। चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को सीमित रूप से खोलना प्रारम्भ कर दिया, पूँजीवादियों की तरह। अपने जनबल और अनुशासन का भरपूर लाभ लेते हुये औद्योगिक निर्माण के विश्वव्यापी केन्द्र के रूप में स्वयं को स्थापित कर लिया। जुटायी हुयी उस पूँजी का उपयोग देश की आधारभूत संरचना खड़ा करने में किया। शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि जैसे मानवीय आवश्कताओं के अतिरिक्त नगरीय योजना, सड़क, रेल, मेट्रो, पोर्ट, एयरपोर्ट आदि सभी क्षेत्रों में विश्वस्तरीय संरचना का निर्माण किया। इस परिवर्धित प्रक्रिया को यदि पूँजीवाद पोषित साम्यवाद कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। नागरिकों को यह सब जितना ही शीघ्र मिल जाये, उनका जीवन अतना ही सुविधाजनक और सरल हो चलेगा। यदि सामान्य जन का जीवन अपने अस्तित्व के लिये जूझने में ही बीते तो जीवन में सरलता की कल्पना करना भी अन्याय  है।

चीन के समाज और जीवनशैली में सरलता की चार विमायें हैं, भाषायी,  बौद्धजनित, सांस्कृतिक विरह तत्व और शासन प्रदत्त। उसका प्रभाव हर ओर दिखायी पड़ा। टीवी पर टुनिऊ नामक चीन की पर्यटन की कम्पनी के बारे में देख रहा था। ३१०० करोड़ रुपये की कम्पनी के ४० वर्षीय मालिक से जब उनकी सामान्य सी दिखने वाली व्यक्तिगत जीवनशैली के बारे में पूछा गया तो वह मुस्करा कर टाल गये। सरल मानव मन अपने धन का दम्भ नहीं भरता है। चीन के नगरीय जीवन में एक व्यवस्था और अनुशासन दिखायी पड़ा। कहीं कोई किसी से झगड़ता नहीं दिखा, बस, ट्रेन और सेवाओं के लिये पंक्तिबद्ध प्रतीक्षा, टैक्सी आदि के किरायों में कोई छल नहीं, सब के सब अपने कार्यों में रत।

प्रत्यक्ष देखने से धारणाओं का भ्रम टूटता है। चीन आने के पहले चीन के बारे में निर्मित धारणायें उतनी सकारात्मक नहीं थीं। सोचता था कि देश के नेतृत्व की उग्रता और विस्तारवादी सोच की झलक वहाँ के सामान्य जन में दिखेगी, जो कि नहीं दिखी। सोचता था कि भारतीयों के प्रति वहाँ के जनमानस में एक तटस्थ या शत्रुभाव होगा, जो कि नहीं दिखा। सोचता था कि अपनी संस्कृति के प्रति क्षोभ और नवविकास का दम्भ उनके व्यवहार में परिलक्षित होगा, जो कि नहीं हुआ। इन सब धारणाओं के परे वहाँ का समाज अत्यन्त जीवन्त है। भारतीयों को वे इन्डू के नाम से पुकारते हैं। वहाँ के प्रौढ़ों और वृद्धों में भारत के प्रति सम्मान का भाव है।  नव वैश्विक परिवेश के कारण वहाँ का युवा वर्ग पश्चिम से अधिक प्रभावित है। जिस बस में हम लोगों के आने जाने की व्यवस्था थी, उस बस का ड्राइवर राजकपूर का दीवाना था। उसने हम लोगों को 'आवारा हूँ' गा कर सुनाया।


अगले ब्लॉग में वहाँ के अन्य पक्ष।

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-08-2016) को "धरा ने अपना रूप सँवारा" (चर्चा अंक-2427) पर भी होगी।
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    हरियाली तीज और नाग पञ्चमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. चीन को जानने की जिज्ञासा बहुत था और अभी भी है ।पर आजकल मिडिया वाले इसके बारे जब भी बताता है तो वहां की सरकार की तनाशाह रवईया और बाॅर्डर पर झड़प की । वहां के समान्य जन मानस को जानने की इच्छा तड़पती रह जाती थी । आपका यह लेख बहुत ही तृप्ती देता है हमे ।सादर धन्यवाद ।

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  3. साम्यवाद अराजकता का घोषित हिमायती है, इसके परिणाम स्वरुप रुस का विघटन हुआ और यही विस्फ़ोट किसी दिन चीन में भी होगा। जनाक्रोश को अधिक समय तक दबाया नहीं जा सकता। थ्येन आन मन चौक के नरसंहार ने इसे और बल दे दिया है। बढिया वृत्तांत।

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