24.8.16

चीन यात्रा - ८

पिछले एक ब्लॉग में धीरू सिंह जी ने टिप्पणी की थी “चीन को कभी अफीमचियों का देश कहा जाता था, आज कमाल है।”  सच है क्योंकि अफीम ने वहाँ के युवा को एक शताब्दी से भी अधिक समय के लिये निष्क्रिय रखा और यह भी सच है कि विकास के लिये जितना प्रयास चीन ने किया उससे कहीं अधिक प्रयास अफीम के अन्धतम से बाहर आने के लिये किया गया।

कितने ही गौरव से पूरित रहे हों, पर इतिहास के पन्ने एक टीस छोड़ जाते हैं। संभवतः यह कालखण्ड चीन के इतिहास में निम्नतम बिन्दुओं में से एक होगा, भुलाने योग्य और पुनरावृत्ति न होने देने योग्य। इस कथा की व्यथा के कुछ अध्याय भारत में भी आकर ठहरते हैं, कथा के खलनायक के रूप में नहीं वरन सहभुक्तभोगियों के रूप में, सहयात्री के रूप में।

प्रारम्भ दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से होता है। चीन से रेशम, कागज, चाय आदि का व्यापार “रेशम मार्ग” से होता हुआ यूरोप के पश्चिमी क्षेत्र तक पहुँचता है। मध्य एशिया और भारत भी लगभग ७००० किमी लम्बे इस मार्ग से जुड़ते हैं। मंगोलिया और मंचूरिया की ओर से होने वाले आक्रमणों से राज्य को बचाने के लिये कई चरणों में व कई परतों में चीन की दीवार का निर्माण भी होने लगता है। इस दीवार ने रेशम मार्ग को भी आक्रमणों से बचाये रखा। रेशम मार्ग में वस्तुओं के व्यापार के साथ साथ संस्कृतियों और विचारों का भी वृहद आदान प्रदान हुआ।

भारत और चीन सम्मिलित रूप से विश्व व्यापार का साठ प्रतिशत नियन्त्रित करते थे। भारत से मसालों, चाय, रेशम, सूती, हस्तकारी आदि की माँग विश्व के अन्य भागों में व्यापक थी। रेशम मार्ग का समुद्री भाग हिन्द महासागर से होकर निकलता था। उस समय किसी मुद्रा का चलन नहीं था और इन वस्तुओं के स्थान पर पश्चिमी देश सोना, चाँदी और रत्नादि दे जाते थे। क्या आपको आश्चर्य नहीं होता कि जिस भारत में सोने की केवल एक खान कोलार में है वहाँ के मंदिरों और घरों में कुन्तलों सोना कहाँ से पड़ा रहता था। भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, देश ऐश्वर्य में परिपोषित था। ज्ञान और शक्ति के उपासक जब अपना सारा सामर्थ्य धनक्रम में लगा देते हैं तब समाज असंतुलित हो जाता है, विघटन के बीज पनपने लगते हैं, समाज की व्यवस्था चरमराने लगती है। सदियों से भारत के वैभव पर आँख गड़ाये लुटेरों को मौका मिल जाता है, आक्रमण, लूटमार और ध्वंस का सतत क्रम सदियों की पराधीनता ले आता है।

तब प्रादुर्भाव होता है, विशुद्ध व्यापारिक लुटेरों का, कुटिल, निर्मम और विध्वंसक अंग्रेजों का। इनकी विशेष उपलब्धि यह थी कि अर्थव्यवस्था को जो क्षति इनके पूर्ववर्ती लुटेरे ६०० वर्ष में नहीं पहुँचा सके, उसकी सहस्रगुना क्षति मात्र २०० वर्षों में अंग्रेजों ने पहुँचा दी। इनके साम्राज्य का एकल उद्देश्य लूटमार था और व्यवस्था के जितने भी तन्त्र इन्होंने बनाये, वह उस लूटमार को अत्यन्त सरल और निष्कंट बनाने के लिये थे। इस विषय पर विस्तृत और व्यापक चर्चा फिर कभी होगी। यही कार्य अंग्रेजों ने चीन के साथ भी किया। निष्कर्ष यह हुआ कि विश्व व्यापार में भारत और चीन का सम्मिलित योगदान १८०० ई में ५० प्रतिशत से घटकर १९५० में मात्र १० प्रतिशत रह गया, दोनों का ही घटकर ५ प्रतिशत हो गया। सम्प्रति भारत का विश्व व्यापार में योगदान अभी भी ७ प्रतिशत ही है जबकि चीन ने इसे १७ प्रतिशत तक पहुँचा दिया है।

ईस्ट इंडिया कंपनी १७५७ में प्लासी का युद्ध जीतने के बाद ही अपने लक्षण दिखाने लगी। भारत की अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि आधारित थी। मुगलों ने भले ही ६०० वर्षों तक भारत के एक भूभाग में शासन किया हो पर उन्होंने कृषि को हानि कभी नहीं पहुँचायी। अंग्रेजों ने कृषि को ही तोड़ना प्रारम्भ किया, बाद में समाज को तोड़ा, संस्कृति को तोड़ा और अंत में देश तोड़कर चले गये। बंगाल में चावल बहुतायत से उत्पन्न होता था और देश के अन्य भागों में भी भेजा जाता था। वहाँ के किसानों से बलात अफीम और नील की खेती करायी गयी, लगान ५० प्रतिशत तक कर दिया। यही अफीम चीन भेजी गयी और वहाँ के युवाओं को उसकी लत लगवायी गयी। प्लासी युद्ध के मात्र २० वर्ष बाद ही बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। कभी धान की प्रचुरता में जीने वाला समाज चावल के एक एक दाने को तरस गया। इतिहासकार बताते हैं कि अंग्रेजों के राज में लगभग ३ करोड़ भारतीयों की मृत्यु केवल भुखमरी से हुयी, भारत की जनसंख्या का १० प्रतिशत। अपनी सफेद चमड़ी को सभ्यता का उत्कर्ष बताने वालों ने हर दस में से एक भारतीय को भूख से तड़पाकर मार डाला। 

यह अंग्रेजों के बस की ही बात थी कि जहाँ एक ओर अफीम की खेती से उन्होंने भारत की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था चौपट की वहीं दूसरी ओर उसी अफीम से चीन के पूरे युवा समाज को १०० वर्षों तक नशे में डुबोये रखा। चीन के साथ व्यापार में ब्रिटेन को अपनी चाँदी देनी पड़ती थी। इस अफीम ने उस चाँदी का स्थान ले लिया और व्यापार अंग्रेजों के पक्ष में होने लगा। मुख्यतः तस्करी के माध्यम से किये गये अफीम के व्यापार का योगदान ब्रिटेन की कुल आय में २० प्रतिशत था।

बीजिंग यात्रा में उन गलियों में जाने को मिला जिनमें वहाँ के अफीमची निष्क्रिय पड़े रहते थे। इन गलियों को हुटांग कहा जाता है। जहाँ एक ओर बीजिंग में गगनचुम्बी अट्टालिकायें दिखायी पड़ीं, वहीं संभवतः ऐतिहासिक कारणों से राजाओं के परिसर के अत्यन्त निकट इन गलियों का स्वरूप अब तक नहीं बदला गया है। कल्पना कीजिये कि राजाओं के इतने निकट और इतने व्यापक रूप से नशा फैला हो तो वहाँ के समाज की क्या चेतना रही होगी। सर्वत्र हाहाकार मचा औऱ राजा ने अफीम के व्यापार को बन्द कराने व अफीम को नष्ट कराने के आदेश दे दिये। १८३८ में गुआन्झो में वहाँ के गवर्नर ने अंग्रेजों के गोदाम में छापा मारकर आज की तुलना में करोड़ों की अफीम जला दी। इस भयंकर आर्थिक हानि को अंग्रेज पचा नहीं पाये और १८३९ में चीन पर आक्रमण कर दिया, इसे पहला अफीम युद्ध कहा जाता है। इस युद्ध में चीन की हार हुयी और प्लासी के युद्ध की तरह उनके भी दुर्दिन प्रारम्भ हो गये। जीत स्वरूप अंग्रेजों ने हांगकांग हड़प लिया, साथ ही शंघाई सहित ५ पत्तनों पर अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान स्थापित कर लिये।

इस पर ही अंग्रेज संतुष्ट नहीं हुये और पुनः आक्रमण का कोई न कोई कारण थोपने लगे। १८५६ से १८६० तक द्वितीय अफीम युद्ध हुआ। इसी समय भारत में भी प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम चल रहा था, अंग्रेजों की सेनायें उसमें व्यस्त थीं पर फ्रांसीसियों द्वारा युद्ध में सहायता करने से अंग्रेजों ने वह युद्ध भी जीत लिया, जिसके बाद अंग्रेजों ने अफीम के व्यापार को पूरे चीन में आधिकारिक कर लिया। १८७९ में चीन में ६७०० टन अफीम आयात होता था। चीन में अफीम की खेती प्रारम्भ करने से १९०६ तक चीन में विश्व की अफीम का ८५ प्रतिशत उत्पादित होने लगा, लगभग ३५००० टन अफीम। वयस्क जनसंख्या का २७ प्रतिशत चीन अफीम के नशे में डूब चुका था।

चीन की साम्यवादी सरकार को अफीम का अन्धतम मिटाने का श्रेय जाता है। १९५० के दशक में एक करोड़ से भी अधिक नशेड़ियों को सुधार गृह में भेजा गया, तस्करों को मृत्युदण्ड दिया गया, अफीम की खेती के स्थान पर अन्न उत्पादन कराया गया और शेष खेती को दक्षिण चीन में स्थानान्तरित कर दिया गया। १९७१ के समय वियतनाम युद्ध में इसी अफीम की लत २० प्रतिशत अमेरिकी सैनिकों को लग गयी थी। २००३ तक भी चीन में नशेड़ियों की संख्या १० लाख के आस पास थी। कई वर्ष पहले मंदसौर में अफीम की खेती देखी थी। दो वर्ष पहले गाजीपुर में अफीम की फैक्ट्री देखी। लोगों ने बताया कि अभी भी वहाँ के युवा अफीम दबाये निष्क्रिय पड़े रहते हैं। मैं धीरू सिंह जी से पूर्णतया सहमत हूँ। यह चीन का कमाल ही है कि एक पूरी शताब्दी तक नशे में डूबे रहने के बाद भी इतना विकास कर दिखाया।


चीनी जनजीवन के कई अन्य पक्ष अगले ब्लॉग में।

4 comments:

  1. इतिहास का ये दौर हमारी पाठ्य पुस्तकों में क्यूँ नहीं है?? अफीम का व्यापार एवं इस पर लड़े गये युद्ध पूर्णतः गायब हैं।

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  2. आखिर अफीमचियो ने नशे से निकल कर दुनिया में अपना वर्चस्व कायम कर लिया।

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