3.1.16

ज्ञात होता यदि

ज्ञात होता यदि मुझे उद्देश्य मेरा,
व्यर्थ मैं व्यथा का जीवन बिताता
छोड़ देता पत्थरों के संग्रहों को,
यदि कहीं मैं सत्य का उपहार पाता ।।

किन्तु अब मैं डूबता हूँ,
दुखों की गहरी नदी है
भूत के दुस्वप्न सारे,
वेदना बन चीखते हैं ।।१।।

चाहता मन व्यक्त करना,
आज दुविधा की व्यथा को
सत्य के सम्मुख खड़ा कर,
चाहता हूँ तृप्त करना ।।२।।

नहीं वाणी बोल पाती,
शब्द भी लड़खड़ा जाते
वेदना छिप नहीं पाती,
तर्क शंका बढ़ा जाते ।।३।।

समय सारा जा चुका है,
शेष केवल विकलता है
मन पराया हो चुका है,
मात्र निष्क्रिय तन बचा है ।।४।।

किन्तु अब मैं जानता हूँ,
प्रेम पूरित रूप तेरा
मूर्खता का तिमिर हर लो,
दिखा दो निर्मल सबेरा ।।५।।


10 comments:

  1. इतना हो ज्ञात अगर ,
    कि अज्ञात क्या ,
    रातें सारी जाग लीं ,
    फिर सुबह क्या ,
    दुश्मन भी हॅंस दिए ,
    फिर दोस्त क्या ,
    मिथ्या यह शरीर ,
    फिर जगत क्या ,
    ताकता तो है न ,
    वह प्यार से ,
    फिर गूढ़ क्या ,
    और अवसान क्या ।

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  2. जय मां हाटेशवरी...
    आपने लिखा...
    कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
    हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...

    इस लिये दिनांक 04/01/2016 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
    चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
    आप भी आयेगा....
    धन्यवाद...

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  3. अभी तो प्रदूषण बहुत है निर्मल सवेरे की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

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  4. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 04 जनवरी 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  5. चाहता मन व्यक्त करना,
    आज दुविधा की व्यथा को ।
    सत्य के सम्मुख खड़ा कर,
    चाहता हूँ तृप्त करना
    बहुत खूब...

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  6. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सियाचिन के परमवीर - नायब सूबेदार बाना सिंह - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  7. भावपूर्ण रचना , ऐसा सभी महसूस करते हैं किसी ना किसी मोड़ पर

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  8. बहुत सुन्‍दर। आज ऐसी ही वेदनाओं से घिरे हैं आप-हम। बहुत सुन्‍दर।

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  9. आमीन!! उम्दा रचना!!

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  10. समरूपा... वेदना..

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