8.2.15

शिल्पी बन आयी

मेरे मन-भावों की मिट्टी,
राह पड़ी, जाती थी कुचली ।
तेज हवायें, उड़ती, फिरती,
रहे उपेक्षित, दिन भर तपती ।
ऊँचे भवनों बीच एकाकी,
शान्त, प्रतीक्षित रात बिताती ।।१।।

जीवन बढ़ता और एक दिन,
दिया सहारा, प्रत्याशा बिन ।
हृद की छाया, जीवन सम्बल,
देकर ममता का आश्रय-जल ।
ढाली मिट्टी, मूर्ति बनायी,
जीवन में शिल्पी बन आयी ।।२।। 

11 comments:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-02-2015) को "प्रसव वेदना-सम्भलो पुरुषों अब" {चर्चा - 1884} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. गहन अर्थ लिये सुंदर प्रस्तुति। आजकल इस ब्लॉग पर लेख पढ़ने कम मिलते हैं..क्या गद्यविधा से मोहभंग हो गया आपका?

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    1. जी नहीं, अभिव्यक्ति तनिक कवितामयी हो गयी थी। गद्य के प्रति मोह प्रबल है।

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  3. शिल्पी बनना ही जीवन की पूर्णता जैसा है।

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  4. सादर प्रणाम सर जी !आपकी बेजोड़ लेखनी स्तुत्य है । इन पंक्तियों की प्रशंसा में मैं कहना चाहूॅंगा --- " नित्य भाव - जल होता वाष्पित / ऊॅंचे उठ विचार - घन सान्द्रित / समय तपित कर अमिय बूॅंद - से / नित जीवन - जल झरे अबाधित ।"

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