25.1.15

स्वपीड़न

कोई कष्ट देता, सहजता से सहते,
पीड़ा तो होती, पर आँसू न बहते ।

कर्कश स्वरों में भी, सुनते थे सरगम,
मन की उमंगों में चलते रहे हम ।

कभी, किन्तु जीवन को प्रतिकूल पाया,
स्वयं पर प्रथम प्रश्न मैंने लगाया,
द्वन्द्वों के कइयों पाले बना कर,
तर्कों, विवादों में जीवन सजा कर,
लड़ता रहा और थकता रहा मैं,
स्वयं से अधिक दूर बढ़ता रहा मैं ।

बना शत्रु अपना, करूँ क्या निवारण,
स्वयं को रुलाता रहा मैं अकारण ।

11 comments:

  1. जमाने ने हमको बनाया है रहबर !
    खुद करता चिंतन है खुद ही सफ़र!!
    रचना में दम फिर होता गम अगर ?
    चिन्ता हटाओ मिटाओ अब सगर ||

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  2. किन्तु जीवन को प्रतिकूल पाया,
    स्वयं पर प्रथम प्रश्न मैंने लगाया,
    द्वन्द्वों के कइयों पाले बना कर,
    तर्कों, विवादों में जीवन सजा कर
    अतिसुन्दर अभिवादन

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  3. कर्कश स्वरों में भी, सुनते थे सरगम,
    मन की उमंगों में चलते रहे हम ।
    बहुत सुन्दर रचना , मंगलकामनाएं आपको !

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  4. Apane se kathor na bane.
    Sunder Rachana.

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  5. आपके लिखे हुए को भांप रहा हूं।

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  6. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (26-01-2015) को "गणतन्त्र पर्व" (चर्चा-1870) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    गणतन्त्रदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  7. बहुत खूब ! शानदार रचना !!

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  8. बहुत ही शानदार प्रस्तुति,गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाये।

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  9. bahut sundar rachna hai .. waah

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  10. बस लिखते रहिये अकारण ही।

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  11. अनुपम रचना...... बेहद उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@मेरे सपनों का भारत ऐसा भारत हो तो बेहतर हो
    मुकेश की याद में@चन्दन-सा बदन

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