31.7.13

थोपा हुआ या सच

बचपन में किसी पाठ्यपुस्तक में पढ़ा था कि इंग्लैण्ड बड़ा ही विकसित देश है, और वह इसलिये भी क्योंकि वहाँ के टैक्सीवाले भी बड़े पढ़े लिखे होते हैं, अपना समय व्यर्थ नहीं करते और खाली समय से अखबार निकाल कर पढ़ा करते हैं। पता नहीं इंग्लैण्ड ने अखबार पढ़ पढ़कर अपने ज्ञान के कारण सारे विश्व पर राज्य किया, या अपनी सैन्यशक्ति के कारण, या अपनी धूर्तता के कारण। सही कारण तो इतिहासविदों की कृपा से अभी तक ज्ञात नहीं हुआ है, पर देश में वे अपने सफेद मानव का उत्तरदायित्व निभाकर अवश्य जा चुके हैं, भारत का विश्व बाजार में प्रतिशत २५ से १ प्रतिशत पर लाकर और भारत के सभी वर्गों और धर्मों को सुसंगठित करके। उक्त पाठ्यपुस्तक में यह पढ़ने के बाद एक बात मन में गहरे अवश्य पैठ गयी कि किसी भी ड्राइवर को खाली समय में अखबार या कोई पुस्तक पढ़नी चाहिये।

अब रेलवे का कार्य २४ घंटे का है, हमारे वाहन में ड्राइवर भी २४ घंटे रहते हैं, कभी रात में तो कभी दिन में सुदूर निकल जाने की आवश्यकता को ध्यान में रखकर यह व्यवस्था की गयी होगी। हमारे एक ड्राइवर युवा है, पर जब भी उन्हें कहीं प्रतीक्षा करने के लिये छोड़ जाते हैं, तो लौटकर वे सदा ही वाहन में सोते हुये मिलते हैं। हमें लगा कि यदि ऐसे ही हमारे ड्राइवर आदि सोते रहेंगे और अखबार आदि नहीं पढ़ेंगे तो देश कैसे इंग्लैण्ड की तरह विकसित हो पायेगा? यद्यपि उनकी सेवा की शर्तों में खाली समय में अखबार पढ़ना नहीं था, पर मन में बात बनी रही।

एक दिन हमसे न रहा गया और हमने भी तनिक विनोद में पूछ ही लिया कि खाली समय में थोड़ा पढ़ लिख लिया करो, केवल सोते रहते हो। वे अभी सो के ही उठे थे, उतनी ही ताजगी से उन्होंने उत्तर भी दिया कि सरजी जितना पढ़ना था हम पढ़ चुके हैं, स्नातक हैं, पढ़ाई के अनुरूप नौकरी नहीं मिली अतः ड्राइवरी कर रहे हैं। अब खाली समय में पढ़कर क्या करेंगे, हमारा तो सब पहले का ही पढ़ा हुआ है। सुबह घर से ही अखबार पढ़कर आते हैं और वैसे भी अब अखबारों में ऐसा कुछ तो निकलता नहीं है जिससे पढ़कर ज्ञान बढ़े। उससे अधिक तो हम नये नये स्थानों पर जाकर और उन्हें देखकर सीख जाते हैं।

सन्नाट सा उत्तर था, पर तथ्य भरा और अक्षरशः सत्य था। हमारा बचपन का पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान और विकसित देशों की अवधारणा एक मिनट के उत्तर में ध्वस्त हो चुकी थी। वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में ऐतिहासिक अंग्रेजियत के मानकों का कोई स्थान नहीं है। अब किसको खाली समय में क्या करना चाहिये, यह ज्ञान सारे विश्व को भारत से सीखना चाहिये।

ठीक है, सब कुछ पहले से ही पढ़ा है, मान लिया, पर हर समय सोते हुये क्यों मिलते हो? रात्रि में नींद पूरी नहीं करते हो या आलस्य है। हमें देखो, दिन भर जीभर के कार्य करते हैं और रात में निश्चिन्त हो सो जाते हैं। ड्राइवर महोदय ने एक मिनट के लिये चुप्पी साध ली, हमें लगा कि ड्राइविंग का बहाना बनाकर वे इस उत्तर को टाल गये। एक मिनट के बाद उन्होने फिर बोलना प्रारम्भ किया। सरजी, सो लेते हैं तो यह सुनिश्चित हो जाता है कि अभी कितनी भी दूर जाना हो, कितने ही घंटे कार्य करना हो, ऊर्जा बची रहेगी। यह कथन भी अक्षरशः सत्य था। कुछ दिन पहले ही सायं किसी दुर्घटना के स्थल पर पहुँचना था, हम तो थके होने के कारण पीछे की सीट पर फैल कर सो गये थे, ड्रइवर महोदय ने कई घंटे वाहन चला कर हमें शीघ्र ही पहुँचा दिया था। वहाँ हम अपने कार्य में लग गये थे और ड्राइवर महोदय पुनः वाहन में ही सो गये थे।

मुझे दोनों ही उत्तर समुचित मिल गये थे, अब तीसरे प्रश्न का कोई औचित्य नहीं बचा था। दो मिनट में वे सिद्ध कर चुके थे कि अपना कार्य वे पूरे मनोयोग और पूरी लगन से कर रहे हैं, जितना हम समझ रहे थे, उससे भी कहीं अधिक।

हम दोनों ही मौन बैठे थे, मुझे लग रहा था कि मैंने ऐसे संशयात्मक प्रश्न पूछ कर उनकी कर्तव्यशीलता को आहत किया है और ड्राइवर महोदय को लग रहा था कि सरजी तो शुभेच्छा के कारण पूछ रहे थे, इतने सपाट उत्तर देकर उनकी सद्भावना को मान नहीं दिया है।

थोड़ी देर में ड्राइवर महोदय स्वयं ही खुल गये और मुस्कराकर बताने लगे। सरजी, छोटे से ही मोटरसाइकिल अच्छी लगती हैं और मोटरसाइकिल रेसिंग की आसपास के राज्यों में जितनी भी प्रतियोगितायें होती हैं, वह उन सबमें भाग लेता है। कई ट्रॉफियाँ भी जीती हैं। उसके पास अपनी एक अच्छी मोटरसाइकिल है और कच्ची मिट्टी पर होने वाली प्रतियोगितायें उसकी सर्वाधिक प्रिय हैं।

यह अभिरुचि तो मँहगी होगी? मौन टूट चुका था और उत्सुकता चरम पर थी। जी, सरजी, अब जितना भी थोड़ा बहुत इस नौकरी से मिलता है, उससे घर चलता है। एक जान पहचान के हैं, उनका अपना गैराज है, उन्हें अंकल बोलते हैं, उनकी भी रेसिंग में बहुत रुचि रही है और अभी भी है। वहीं पर ही मोटरसाइकिल को दुरुस्त रखा जाता है, सारी प्रतियोगिताओं का खर्च वही उठाते हैं, केवल ड्रेस तक ही खर्च ३५ हजार के आसपास बैठता है। बस, हम सारी जीती हुयी ट्राफियाँ उनके गैराज में सजा देते हैं, यही हमारा स्नेहिल संबंध है।

अब तक मैं अभिभूत हो चला था, इतने में एक ढाबा दिखा, उतरकर हमने साथ में चाय पी, रेसिंग मोटरसाइकिलों के बारे में चर्चा की, बहुत अच्छा लगा इस प्रकार सहज होकर। चलती मशीनों के अन्दर बैठ कर हम भी अपना मस्तिष्क और हृदय मशीनवत चलता कर बैठते हैं। किसी पुरानी पाठ्यपुस्तक में पढ़ी दूर देश की आदर्शवादी गप्प से हम अपने देश के यथार्थवादी वर्तमान को कम समझ बैठते हैं। ऐसी ही कई घटनायें आपके आसपास भी मिल जायेंगी, पाठ्यपुस्तकों से अधिक ज्ञानभरी, जीवन से भरी, थोपे ज्ञान से अधिक प्रभावी, रोचक, सच।

27.7.13

सोते सोते कहानी सुनाना

पृथु दोपहर में सो चुके थे, उन्हें रात में नींद नहीं आ रही थी। मैं पुस्तक पढ़ रहा था पर शब्द धीरे धीरे बढ़ रहे थे, उसी गति से जितनी गति से पलकों पर नींद का बोझ बढ़ रहा था। श्रीमानजी आकर लेट गये, पुस्तक को देखने लगे, कौन सी है, किसने लिखी है, कब लिखी है, क्या लिखा है, क्यों लिखा है? अब वे स्वयं भी इतनी पुस्तकें डकार जाते हैं कि फ्लिपकार्ट वालों को हमारे घर का पता याद हो गया होगा। मैंने पुस्तक किनारे रख दी, उसके बाद जितना कुछ पढ़ा था, यथासंभव याद करके बतलाने लगा, नींद भी आ रही थी और मस्तिष्क पर जोर भी पड़ रहा था। पुरातन ग्रन्थ लिखने वाले आज की तुलना में बहुत सुलझे हुये थे। जितने भी प्राचीन ग्रन्थ होते थे, उनकी प्रस्तावना में ही, क्या लिखा, क्यों लिखा, किसके लिये लिखा, अन्य से वह किस तरह भिन्न है, क्या आधार ग्रन्थ थे और पढ़ने के पश्चात उसका क्या प्रभाव पड़ेगा, सब कुछ पहले विधिवत लिखते थे, तब कहीं विषयवस्तु पर जाते थे। आजकल तो लोग लिख पहले देते हैं, आप पूरा हल जोत डालिये, जब फल निकल आता है, तब कहीं जाकर पता चलता है कि बीज किसके बोये थे?

शरीर और मन की रही सही ऊर्जा तो प्रश्नों के उत्तर में चली गयी।। अब डर यह था कि कहीं सो गये तो श्रीमानजी टीवी जाकर खोल लेंगे और पता नहीं कब तक देखते रहें? वैसे देर रात टीवी देखने का साहस वह तभी करते हैं, जब मैं घर से बाहर होता हूँ, और इसमें भी उनकी माताजी की मिलीभगत और सहमति रहती है। मेरे घर में रहते उनकी रात में टीवी देखने की संभावना कम ही थी।

एक पैतृक गुण है जिसका पालन हम करते तो हैं, पर आधा ही करते हैं। बचपन में पिताजी सबको सुलाकर ही सोने जाते थे और सबसे पहले उठकर सबको उठाते भी थे। अब अवस्था अधिक होने के कारण और टीवी के रोचक धारावाहिकों के कारण उतना जग नहीं पाते हैं और शीघ्र ही सो जाते हैं, पर अभी भी सुबह सबसे पहले उठने का क्रम बना हुआ है। रात का छोर जो उन्होंने अभी छोड़ दिया है, उसे सम्हाल कर हम पैतृक गुण का निर्वाह कर रहे हैं। हर रात सबको सुलाकर ही सोते हैं, पर बहुधा रात में अधिक पढ़ने या लिखने के कारण सुबह उठने में पीछे रह जाते हैं।

आज लग रहा था कि पृथु मेरे पैतृक गुण को ललकारने बैठे हैं, लग रहा था कि वे मुझे सुलाकर ही सोयंेंगे। सोचा कि क्या किया जाये? यदि प्रश्नों के उत्तर इसी प्रकार देते रहे तो थकान और शीघ्र हो जायेगी, मुझे नींद के झोंके आयेंगे और उन्हें आनन्द और रोचकता के। सोचा कि कुछ सुनाते हैं, संभव है कि सुनते सुनते उन्हें ही नींद आ जाये।

बताना प्रारम्भ किया कि हम बचपन में क्या करते थे। आज के समय से कैसी परिस्थितियाँ भिन्न थीं, कुछ ३० वर्ष पहले तक। बताया कि कैसे हमारे घरों में हमारे अध्यापक मिलने आते थे और हमारी शैक्षणिक प्रगति के बारे में विस्तृत चर्चा करते थे। यहाँ तक तो सब ठीक ही चल रहा था, मन में स्पष्ट था कि क्या बता रहे हैं? इसके बाद से कुछ अर्धचेतन सी स्थिति हो गयी। पता नहीं कब और कैसे बात छात्रावास तक पहुँच गयी, पता नहीं कैसे बात वहाँ के भोजन आदि के बारे में होने लगी।

उस समय पृथु के कान निश्चय ही खड़े होंगे, क्योंकि जिस तरह से अर्धचेतन मानसिक अवस्था में मैं छात्रावास के उत्पात और उद्दण्डता की घटनायें बताता जा रहा था, उन्हें इतना मसाला मिला जा रहा था कि उसे छोड़ देना किसी खजाने को छोड़ देने जैसा था। उस समझ तो समझ नहीं आया कि कितना कुछ बता गया। अगले दिन ही पता चल पाया कि लगभग पाँच घटनायें बता गया था, उद्दण्डता और अनुशासनहीनता की, कुछ एकल और कुछ समूह में की गयीं।

मुझे तो ज्ञात नहीं था कि मैं क्या कह गया, पर उसे एक एक शब्द और हर घटना का विस्तृत विवरण और चित्रण याद रहा। अगले दिन जब श्रीमतीजी ने कहा कि १५ वर्ष के विवाह के कालखण्ड में भी ये घटनायें आपने नहीं बतायीं। अब उन्हें क्या बतायें कि सब कुछ उद्घाटित करने भी बाद भी जो घटनायें मन में दबी रहीं, कल की अर्धचेतन अवस्था में कैसे बह निकलीं। उन्हें लगा कि अभी भी कुछ रहस्य शेष हैं, मेरे व्यक्तित्व में। उन्हें समझाया, कि कुछ भी शेष नहीं है अब, आप हमें मानसिक रूप से पूरी तरह से निचोड़ चुकी हैं। वह समझदार हैं, वह शीघ्र ही समझ गयीं।

जब तक पूरा हानिचक्र समझ में आता, देवला को भी सारी घटनायें ज्ञात हो चली थीं, वह ऐसे देख रही थी कि अनुशासन की जकड़न में इतनी अनुशासनहीनता छिपी होगी। हे भगवान, इससे अच्छा था कि रात में पहले ही सो जाता। पर उससे भी बड़ा आघात सहना विधि ने भाग्य में लिख दिया था।

दो माह पहले पिताजी ने, मेरे बचपन की चार-पाँच घटनायें पृथु को बतायी थीं। वह अब तक पृथु के ऊपर ऋण के रूप में चढ़ी थीं। आज पृथु के पास मेरी चार-पाँच घटनायें भी थीं और ऋण चुकाने का पूरा अवसर भी था। वह उस समय अपने दादाजी से ही बतिया रहे थे और जब तक उन्हें रोक पाता, वह अपना कार्य कर चुके थे। आज हम पूरे पारदर्शी थे, एक पीढ़ी ऊपर से एक पीढ़ी नीचे तक। ऐसा लग रहा था कि कल रात को हमारा ही नार्को टेस्ट हो गया था। बस इतनी ही प्रार्थना कर पाये कि, भैया कॉलोनी के अपने मित्रों को मत बताना, नहीं तो बहुत धुल जायेगी।

अब आगे से सावधानी रखनी है कि यदि नींद आ रही हो और पृथु या देवला कुछ कहानी आदि सुनने आ जायें तो उठकर मुँह पर पानी के छींटे मार आयेंगे, उससे भी काम नहीं चलेगा तो कॉफी पी आयेंगे और भूलकर भी वार्ता को छात्रावास नहीं ले जायेंगे। सोते सोते कहानी सुनाने में इस बार तो हमारी कहानी बन गयी है।

24.7.13

क्लॉउड कैसा हो?

कभी प्रकृति को कार्य करते देखा है? यदि प्रकृति के कर्म-तत्व समझ लेंगे तो उन सब सिद्धान्तों को समझने में सरलता हो जायेगी जो संसाधनों को साझा उपयोग करने पर आधारित होते हैं। क्लॉउड भी एक साझा कार्यक्रम है, ज्ञान को साझा रखने का, तथ्यों और सूचनाओं को साझा रखने का।

पवन, जल, अन्न, सब के सब हमें प्रकृति से ही मिलते हैं, उन पर ही हमारा जीवन आधारित होता है। हम खाद्य सामग्री का पर्याप्त मात्रा में संग्रहण भी कर लेते हैं, जल तनिक कम और पवन बस उतनी जितनी हमारे फेफड़ों में समा पाये। फिर भी प्रकृति प्रदत्त कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो हम जीवन भर के लिये संग्रहित कर लें, यहाँ तक कि शरीर की हर कोशिका सात वर्ष में नयी हो जाती है।

प्रकृति का यह महतकर्म तीन आधारभूत सिद्धांतों पर टिका रहता है। पहला, ये संसाधन सतत उत्पन्न होते रहते हैं, चक्रीय प्रारूप में। हमें सदा नवल रूप में मिलते भी हैं। उनकी नवीनता और स्वच्छता ही हमारे जीवन को प्राणमय बनाये रहते हैं, अधिक संग्रह करने से रोकते भी रहते हैं, क्योंकि अधिक समय के लिये संग्रह करेंगे तो सब अशुद्ध हो जायेंगे, अपने मूल स्वरूप में नहीं रह पायेंगे। हमारी आवश्यकता ही प्रकृति का गुण है, प्रकृति उसे उसी प्रकार सहेज कर रखती भी है।

दूसरा, प्रकृति इन संसाधनों को हमारे निकटतम और सार्वभौमिक रखती है। पवन सर्वव्याप्त है, जल वर्षा से अधिकतम क्षेत्र में मिलता है और अन्न आसपास की धरा में उत्पन्न किया जा सकता है। ऐसा होने से सारी पृथ्वी ही रहने योग्य बनी रहती है। संसाधनों की पहुँच व्यापक है। तीसरा, प्रकृति ने अपने सारे तत्वों को आपस में इस तरह से गूँथ दिया है कि वे एक दूसरे को पोषित करते रहते हैं। किसी स्थान पर हुआ रिक्त शीघ्र ही भर जाता है, प्रकृति का प्रवाह अन्तर्निर्भरता सतत सुनिश्चित करती रहती है।

आइये, यही तीन सिद्धान्त उठा कर क्लॉउड पर अधिरोपित कर दें और देखें कि उससे क्लॉउड का क्या आकार निखरता है? ज्ञान, तथ्य और सूचनायें स्वभावतः परिवर्तनशील हैं और काल, स्थान के अनुसार अपना स्वरूप बदलती भी रहती हैं। उन्हें संग्रहित कर उन्हें उनके मूल स्वभाव से वंचित कर देते हैं हम। क्लॉउड में रहने से, न केवल उनकी नवीनतम और शुद्धता बनी रहती है, वरन उन्हें वैसा बनाये रखने में प्रयास भी कम करना पड़ता है। उदाहरण स्वरूप, यदि कोई एक रिपोर्ट सबके कम्प्यूटरों पर संग्रहित है और उसमें कोई संशोधन आते हैं तो उसे सब कम्प्यूटरों पर संशोधित करने में श्रम अधिक करना पड़ेगा, जबकि क्लॉउड पर रहने से एक संशोधन से ही तन्त्र में नवीनतम सुनिश्चित की जा सकेगी।

जब सारा ज्ञान क्लॉउड पर होगा और अद्यतन होगा तो व्यर्थ के संग्रहण की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। जितनी आवश्यक हो और जब आवश्यक हो, सूचना क्लॉउड पर रहेगी, उपयोग के समय प्राप्त हो जायेगी।

अभी के विघटित प्रारूप में, कोई सूचना या तथ्य अपने स्रोत से बहुत दूर तक छिन्न भिन्न सा छिटकता रहता है, उसके न जाने कितने संस्करण बन जाते हैं, उसे न जाने कितने रूपों में उपयोग में लाया जाता है। क्लॉउड के एकीकृत स्वरूप में एक सूचना अपने स्रोत से जुड़ी रहेगी, वहीं से क्लॉउड में स्थान पायेगी और कैसे भी उपयोग में आये, क्लॉउड में अपने निर्धारित पते से जानी जायेगी। इस प्रकार न केवल सूचनाओं की शुद्धता और पवित्रता बनी रहेगी वरन उसे अपने उद्गम के सम्मान का श्रेय भी मिलता रहेगा। क्लॉउड आपका वृहद माध्यम हो जायेगा, सबके लिये ही, बिलकुल प्रकृति के स्वरूप की तरह।

प्रकृति का प्रथम सिद्धान्त अपनाते ही भविष्य का भय तो दूर हो जायेगा पर तब क्लॉउड को प्रकृति की सार्वभौमिकता व उपलब्धता का दूसरा सिद्धान्त शब्दशः अपनाना होगा क्योंकि भविष्य की अनिश्चितता का भय ही संग्रहण करने के लिये उकसाता है। क्लॉउड हमारे जितना अधिक निकट बना रहेगा, उस पर विश्वास उतना ही अधिक बढ़ेगा। हर प्रकार की सूचना पलत झपकते ही उपलब्ध रहेगी। लगेगा कि आप ज्ञान के अदृश्य तेजपुंज से घिरे हुये सुरक्षित और संरक्षित से चल रहे हैं। पहले हम लोग अपने कम्प्यूटर और मोबाइल पर कई गाने लादे हुये चलते थे, अब तो जो भी इच्छा होती है, वही इण्टरनेट से सुन लेते हैं, सब का सब क्लॉउड पर उपस्थित है। हाँ, यह कार्य उतना सरल नहीं है जितना क्लॉउड बनाना। माध्यम स्थापित कर सकने का कर्म कठिनतम है, इण्टरनेट की सतत उपलब्धता प्रकृति के सिद्धान्तों की तरह हो जाये तो क्लॉउड प्रकृतिमना हो जाये।

अभी के समय में क्लॉउड की सूचना में कोई परिवर्तन करना हो तो पूरी की पूरी फाइल बदलनी होती है जिससे इण्टरनेट की आवश्यकता अधिक मात्रा में होती है। यदि परिवर्तनमात्र को ही क्लॉउड तक लाने और ले जाने की तकनीक सिद्धहस्त कर ली जाये तो माध्यम की उपलब्धता और अधिक होने लगेगी। अभी एक व्यक्ति के न जाने कितने खाते होते हैं। यदि एक व्यक्ति इण्टरनेट पर एक ही परिचय से व्यक्त हो और उसका दुहराव भिन्न प्रकारों से न हो तो इण्टरनेट पर होने वाला अनावश्यक यातायात कम किया जा सकता है। इससे न केवल इण्टरनेट की गति बढ़ेगी वरन उपलब्धता भी सुनिश्चित हो जायेगी।

तीसरा सिद्धान्त जो कि प्रकृति के प्रवाह का है, उसके लिये क्लॉउड को अपना बुद्धितन्त्र विकसित करना होगा। रिक्त को पढ़ना, उसका अनुमान लगाना और यथानुसार उस रिक्त को भरना प्रकृति के प्रवाह के आवश्यक अंग हैं। क्लॉउड केवल सूचनाओं का भंडार न बन जाये, उसको सुव्यस्थित क्रम में विकसित किया जाता रहे, यह प्रक्रिया क्लॉउड में प्राण लेकर आयेगी। हम तब क्लॉउड के प्रति उतने ही निश्चिन्त हो पायेगे, जितने प्रकृति के प्रति अभी हैं, वर्तमान पर पूर्ण आश्रित और भविष्यभय से पूर्ण मुक्त। आपका क्लॉउड क्या आकार लेना चाह रहा है? हम सबका आकाश तो एक ही है।

20.7.13

क्लॉउड क्या है?

यह एक यक्ष प्रश्न है। इसलिये नहीं कि सब लोग इसके बारे में जानना चाहते हैं, इसलिये भी नहीं कि यह प्रश्न कठिन है, इसलिये भी नहीं कि यह आधुनिक यन्त्रों में उपयोग में आ रहा है, इसलिये भी नहीं कि सारी बड़ी कम्पनियाँ इस पर अरबों डॉलर व्यय कर रही हैं, वरन इसलिये क्योंकि इस विषय की सही समझ और इस प्रश्न के सही उत्तर इण्टरनेट आधारित हमारे जीवन को अप्रत्याशित रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।

देखा जाये तो इण्टरनेट क्लॉउड ही है, सूचनायें इण्टरनेट पर विद्यमान हैं, हम जब चाहें अपने मोबाइल, कम्प्यूटर या लैपटॉप से उसे देख सकते हैं, उपयोग में ला सकते हैं। मेरी सारी पोस्टें और उन पर की गयी टिप्पणियाँ मेरे ब्लॉग के पते पर सहज ही सुलभ है, जो चाहे, जब चाहे, उन्हें वहाँ पर जाकर देख सकता है। इस स्थिति में मेरे और मेरे पाठकों के लिये क्लॉउड का क्या महत्व? एक कम्प्यूटर हो, उस पर एक वेब ब्राउज़र हो, इण्टरनेट आ रहा हो, कोई कुछ भी पढ़ना चाहे, पढ़ लेगा। सूचनायें किसी न किसी कम्प्यूटर पर विद्यमान हैं, सूचनायें इण्टरनेट के माध्यम से सारे कम्प्यूटरों से जुड़ी हैं, तब क्लॉउड की क्या आवश्यकता?

जो भी सूचना का स्रोत है, वह अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाली सूचनायें परिवर्तित और परिवर्धित कर सकता है। जो सूचना का उपयोगकर्ता है, वह तदानुसार उसे अपने कार्य में ला सकता है। यहाँ तक तो इण्टरनेट की समझ क्लॉउड के मर्म के बाहर ही रहती है। जटिलता जब इसके पार जाती है तब क्लॉउड का सिद्धान्त आकार लेने लगता है।

अब सबके पास इण्टरनेट पर डालने के लिये सूचनायें तो रहती हैं, पर उसे रखने के लिये स्रोत या सर्वर नहीं रहता है। इस प्रकार स्रोत की संख्या सर्वरों की संख्या से कहीं अधिक हो जाती है, स्रोत अपनी सूचना रखने के लिये सुरक्षित ठिकाना ढूंढ़ने लगते हैं, यहाँ से क्लॉउड के सिद्धान्त के बीज पड़ते हैं। ऐसी वेब सेवायें आपकी सूचना को क्लॉउड के माध्यम से पहले ग्रहण करती हैं, कहीं और सुरक्षित रखती हैं और वेब साइटों के माध्यम से व्यक्त भी करती हैं। समान्यतः इन सेवाओं के लिये कुछ शुल्क लिया जाता है। तब तक क्लॉउड का आकार सीमित रहता था।

ब्लॉगर, वर्डप्रेस जैसी निशुल्क ब्लॉग सेवाओं ने लाखों को अभिव्यक्ति का वरदान दे दिया, सबके अपने ब्लॉग उनके सर्वर में अपना स्थान पाये पड़े रहते हैं। यद्यपि आपको इण्टरनेट के माध्यम से उन्हें संपादित करने का अधिकार होता है, आपका लेखन क्लॉउड में रहता है। धीरे धीरे सूचनाओं का आकार और बढ़ा, क्लॉउड का आकार बढ़ा। फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग ने सूचनाओं के इस आदानप्रदान में भूचाल सा ला दिया। न जाने कितनी ऐसी सूचनायें जो आप वेब पर रखना चाहते हैं, लोगों से बाटना चाहते हैं, आपके द्वारा बनाये हुये क्लॉउड में पहुँच जाती हैं।

यही नहीं, जब हर सूचना एक विशेष प्रकार के फाइल के ढाँचे में रखी जाती है, तो उस प्रकार के फाइलों को चला पाने वाले प्रोग्राम क्लॉउड में होने आवश्यक हैं, जिससे उन्हें उसी रूप में संपादित और व्यक्त किया जा सके। अब सूचनायें और प्रोग्राम क्लॉउड पर उपस्थित रहने से क्लॉउड की जटिलता और व्यापकता बढ़ जाती है। बात यहीं पर समाप्त हो गयी होती तो संभवतः क्लॉउड उतना कठिन विषय न होता।

क्लॉउ़ड को सदा क्रियाशील बनाये रखने के लिये इण्टरनेट का होना आवश्यक है। इण्टरनेट हम समय और हर स्थान पर नहीं होता है, पर सूचनायें तो कहीं पर और कभी भी उत्पन्न होती रहती हैं। उन्हें एकत्र करने वाले यन्त्रों न उन्हें सम्हालकर रखने की क्षमता हो वरन वे प्रोग्राम भी हों जिनके माध्यम से वे देखी जा सकें। ऑफलाइन या इण्टरनेट न रहने पर भी उन सूचनाओं को संपादित करने की सुविधा क्लॉउड तन्त्र की आवश्यकता है। यही नहीं इण्टरनेट से जुड़ने पर, वही सूचनायें क्लॉउड में स्वतः पहुँच जायें, इसकी भी सुनिश्चितता क्लॉउड को सशक्त बनाती है।

देखा जाये तो क्लॉउड पर पड़ी आपकी सूचनाओं की प्रति आपको रखने की आवश्यकता नहीं है, पर इण्टरनेट न होने की दशा में आप अपनी सूचनाओं से वंचित न हो जायें, उसके लिये उसकी प्रति आपके सभी यन्त्रों में होनी आवश्यक है। यह होने से ही आपको ऑफलाइन संपादन की सुविधा मिल पाती है।

उदाहरण स्वरूप देखा जाये तो यह पोस्ट मैं अपने आईपैड मिनी पर लिख रहा हूँ, थोड़ी देर में मैं अपने वाहन से कहीं और जाऊँगा, वहाँ मेरे पास मोबाइल ही रहेगा, कुछ भाग मुझे मोबाइल पर लिखना पड़ेगा। वहाँ से घर आऊँगा तो बिटिया मेरे आईपैड मिनी पर कोई गेम खेल रही होगी, तब मुझे शेष पोस्ट मैकबुक एयर में लिखनी पड़ेगी। सौभाग्य से क्लॉउड के माध्यम से मेरा लेखन सारे यन्त्रों में अद्यतन रहता है। जहाँ पर इण्टरनेट नहीं भी रहता है, वहाँ पर भी संपादन का कार्य ऑफलाइन हो जाता है, और इण्टरनेट आते ही सेकेण्डों में अद्यतन हो जाता है। क्लॉउड को सही अर्थों में ऐसे ही परिभाषित और अनुशासित होना चाहिये।

देखा जाये तो सभी अग्रणी कम्पनियाँ इसी दिशा में कार्य कर भी रहीं है, वे यह भी सुनिश्चित कर रही हैं कि इस प्रक्रिया में घर्षण कम से कम हो। पर मेरा स्वप्न क्लॉउड के माध्यम से उस लक्ष्य को पाना है, जो हमारी सारी सूचनाओं के रखरखाव और आदानप्रदान को सरलतम बना दे। जब क्लॉउड सरलतम हो जायेगा तो उसका प्रारूप कैसा होना चाहिये, इसको अगली पोस्ट पर प्रस्तुत करूँगा।

17.7.13

उथल पुथल में क्रम

एक बहुत पुराना व्यसन है, हम मानवों का। हम हर क्रिया, हर रहस्य, हर गतिविधि को किसी सिद्धान्त से व्यक्त करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार हम उसे सुलझाने का प्रयत्न करते हैं। इन्हें हम उस तन्त्र के, उस समाज के, उस प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्तों का नाम दे देते हैं।

कितना आवश्यक है, अन्तर्निहित सिद्धान्त ढूढ़ने का प्रयास करना। घटनाओं को होने दिया जाये, हम अपना जीवन जीते रहें, जो भी मार्ग निकलें, जो भी मार्ग हमें सुरक्षित रखे। पशु ऐसा ही करते हैं, किस क्रिया की प्रतिक्रिया में क्या करना, यह उनके मस्तिष्क और इन्द्रियों में पहले से संचित होता है। इस प्रकार वे आगत समस्याओं से निपट कर अपना जीवन जीने में व्यस्त हो जाते हैं, उससे अधिक वे कुछ करते भी नहीं हैं।

मनुष्य पर वहाँ नहीं रुकता है, वह अपने मन में एक जाँच समिति बिठा देता है, संभावित कारणों और संभावित समाधानों की छानबीन के लिये। बहुत सोच विचार होता है और तब निष्कर्ष स्वरूप एक सिद्धान्त निकलता है, जो न केवल घटित की व्याख्या करता है वरन उस पर किस प्रकार नियन्त्रण गाँठा जा सके, इसके भी उपाय निकालता है।

नियन्त्रण का कीडा हमारे गुणसूत्रों में स्थायी रूप से विद्यमान है। भौतिक रूप से न ही सही, पर बौद्धिक रूप से हम सब क्रियाओं पर नियन्त्रण करने के रूप में जुट जाते हैं, सिद्धान्त की खोज में लग जाते हैं, क्रियाओं की उथल पुथल में एक क्रम देखने लगते हैं।

उथल पुथल में क्रम देखने का यही गुण हमें न केवल पशुओं से भिन्न करता है वरन अपने वर्ग, समाज, देश आदि में सुस्थापित करता है। जिनके अन्दर यह गुण अधिक होता है, उनकी दृष्टि और दिशा अधिक स्पष्ट होती है और उनके अन्दर ही मानवता के नेतृत्व करने और उसकी समस्यायें सुलझाने की संभावनायें होती हैं।

इस प्रक्रिया को बुद्धिमान होने, शक्तिवान होने या सामर्थ्यवान होने से न संबद्ध किया जाये, यह एक विशेष गुण होता है जिसके आधार पर कोई बुद्धिमान, शक्तिवान या सामर्थ्यवान स्वयं को विशिष्ट स्थापित करता है। कुछ उदाहरणों से इसे और समझा जा सकता है।

आप कोई पुस्तक या लेख पढ़ रहे हैं और यदि आप केवल शब्दों की उथल पुथल या वाक्यों के अर्थ में सिमटकर रह जायेंगे, तो आप कब खो जायेंगे, पता ही नहीं चलेगा। शब्दों की उथल पुथल में वाक्य का अर्थ, वाक्यों की उथल पुथल में अनुच्छेद का अर्थ, अनुच्छेदों की उथलपुथल में अध्याय का अर्थ, अध्यायों की उथलपुथल में पुस्तक का अर्थ। पुस्तक को अन्ततः उसके अर्थ में जानने के लिये उसमें अन्तर्निहित क्रम समझना होता है हमें, उथल पुथल में अन्तर्निहित क्रम।

फ़ुटबॉल के पीछे भाग रहे बीसियों खिलाड़ियों का श्रम आपको अव्यवस्थित सा लग सकता है, पर खेल का ज्ञान रखने वालों को उसमें भी एक क्रम दिखता है। कोच को दिखता है कि किस प्रकार और कितनी गति से फुटबॉल और खिलाड़ी एक पूर्वनिश्चित क्रम में गुँथे हुये हैं।

एक सुलझा प्रबन्धक कार्यों की बहुलता में, उनकी अस्तव्यस्तता में एक क्रम ढूँढ कर आगे बढ़ता रहता है। यदि वह समस्याओं में खो जायेगा तो कभी नेतृत्व नहीं दे पायेगा। किसी नगर की भीड़भरी गलियों को समझने के लिये उसका मानचित्र एक क्रम प्रदान करता है। हाथ में या स्मृति में मानचित्र हो तो न ही दिशा खोती है और न ही दृष्टि।

कुरुक्षेत्र में अर्जुन के भावों की उथल पुथल में कृष्ण को एक क्रम दिखा और उन्होंने बड़े व्यवस्थित और तार्किक दृष्टिकोण से उसका समाधान किया, अर्जुन की आशंकाओं से प्रभावित हुये बिना।

देखा जाये तो हमारी यह प्रवृत्ति हमें मानसिक विस्फोट से बचाती है। यदि यह न हो तो हम बहुत शीघ्र ही अपना संतुलन खो बैठेंगे। इतनी सारी सूचना, इतना सारा ज्ञान, इतनी सारी घटनायें, इतनी सारी स्मृतियाँ, यदि हम इन्हें सिद्धान्त या सूत्र के रूप में संचित नहीं करेंगे, तो कहीं खो जायेंगे, इनकी बहुलता में।

पुरातन मनीषियों ने समझ लिया था कि ज्ञान को यदि सदियों के कालखण्ड पार करने हैं तो उन्हें सूत्रों के रूप में रखना होगा। ब्रह्म सूत्र, गीता, उपनिषद, सुभाषित आदि की रचना उन्हीं ज्ञान की हलचल को संजोकर आगे ले जाने का कर्म है।

धीर व्यक्ति कभी भी इस उथल पुथल से भयभीत या आशंकित नहीं होता है, वह सदा ही उसमें क्रम ढूंढ़ता रहता है, घटनाओं का मर्म समझता चलता है। विवरणों और विस्तारों का अधिक ध्यान रखने वाले या तो उसमें भ्रमित हो जाते हैं या उलझ जाते हैं। वर्तमान की उथल पुथल में एक निश्चित क्रम पढ़ लेने वाले भविष्य के दुलारे होंगे, क्योंकि दिशा भूल चुके हम सब उन्हीं के नेतृत्व के सहारे होंगे।

13.7.13

अनुवर्तन

कार्यालय से आते समय सड़क पर एक दृश्य देखा, दृश्य बहुत ही रोचक था। उस प्रक्रिया के लिये कोई एक शब्द ढूढ़ना चाहा जिसे शीर्षक रूप में रख सकूँ, तो वह तुरन्त मिला नहीं। कई शब्द कौंधे मन में, पर सब के सब प्रक्रिया में निहित भाव को समग्रता से समेट नहीं पाये, कुछ उसे अर्धव्यक्त कर पाये, कुछ प्रक्रिया के हाव भाव समझे तो मूल मंतव्य न समझ पाये। बड़ी ही उहापोह की स्थिति बनी रही। शब्द कोष में खोजा, वहाँ भी नहीं मिला। आधुनिक प्रबन्धन में समझने का प्रयास किया, वहाँ भी नहीं मिला। अन्त में जब प्रशासनिक शब्दकोष में देखा, तब कहीं उपयुक्त शब्द मिला, अनुवर्तन।

पहले अनुवर्तन का शाब्दिक अर्थ समझ लें। उसकी आवश्यकता साहित्य, प्रबन्धन आदि में कम क्यों है और प्रशासन में उसके सूत्र क्यों पाये जाते हैं? यह समझने के लिये, जो दृश्य देखा है, जो प्रक्रिया देखी है, उसे अपने पूर्ण रूप में व्यक्त होना आवश्यक है।

अनुवर्तन का अर्थ है, बार बार कहना या करना। कह कर कुछ याद दिलाना हो, कुछ समझाना हो, कुछ पता करना हो, किसी की स्थिति जाननी हो, हर रूप में अनुवर्तन का प्रयोग किया जा सकता है। जहाँ प्रवर्तन का प्रयोग किसी कार्य को निश्चित रूप से करवाने के लिये होता है, अनुवर्तन का प्रयोग किसी कार्य के पीछे भीषण रूप से लग जाने के लिये होता है, बार बार उसकी परिस्थिति समझने के लिये, बार बार संबंधित निर्देश देने के लिये और इसी प्रकार की कार्य संबंधी व्यग्रता दिखाने के लिये।

अब उदाहरण देख लेते हैं, तत्पश्चात यह देखेंगे कि साहित्य और प्रबन्धन इस प्रशासनिक सिद्धान्त व संबद्ध प्रक्रिया से कैसे लाभान्वित हो सकते हैं?

वाहन की गति अतिमन्द थी, सिग्नल तो कोई नहीं था पर वाहनों की गति बरनॉली प्रमेय को पूर्णतया पालन कर रही थी। जहाँ पर गति अधिक होती है, दबाव कम हो जाता है। इसे उल्टा कर देखें तो जहाँ यातायात पर दबाव अधिक होता है, उसकी गति कम हो जाती है। बरनॉली जी को यह सब समझने के लिये द्रव्य पर प्रयोग करने पड़े थे, यहाँ होते और एक दो दिन बंगलोर में घूम लिये होते तो यह सिद्धान्त दो दिनों में ही उद्घाटित हो गया होता। वाहनों की यह दुर्दशा भी किसी सिद्धान्त का पालन कर सकती है, सोच कर आश्चर्य ही हो सकता है।

बाहर देखा तो एक व्यक्ति पर्चे बाँट रहा था, दूर से दिख नहीं रहा था कि किसके पर्चे थे। पर उसका पर्चा बाँटना सामान्य नहीं लग रहा था, गति कुछ कम लग रही थी। सामान्यतः पर्चे बाटने वाले बड़ी त्वरित गति से पर्चे बाँटते हैं, किसी को एक देते हैं, किसी समूह को तीन चार एक साथ पकड़ा देते हैं, कभी वाहन की खुली खिड़की देख अन्दर टपका देते हैं, तो कभी पार्क किये हुये वाहनों के वाइपर में फँसा देते हैं। संक्षिप्त में कहा जाये तो बड़ी व्यग्रता से बाँटे जाते हैं पर्चे, जो दिख जाये, जैसा दिख जाये, जब दिख जाये। इसका पर्चा बाँटना पर विचित्र लग रहा था। वह व्यक्ति बड़े ही व्यवस्थित और अनुशासित ढंग से पर्चे बाँट रहा था, धीरे धीरे।

पर्चे प्रमुखतः प्रचार के लिये बाँटे जाते हैं। जब ज्ञात हो कि किसी क्षेत्र विशेष में प्रचार की आवश्यकता है तो उसके लिये सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम पर्चे ही होते हैं। समाचार पत्र आदि में प्रचार देना पर्याप्त मँहगा पड़ता है और वे लक्षित क्षेत्र से कहीं अधिक प्रचार कर जाते हैं। पर्चों के माध्यम से जितने क्षेत्र में आवश्यक हो, प्रचार किया जा सकता है। कभी आपने देखा हो कि सुबह के समाचार पत्रों में इस तरह के पर्चे निकल आते हैं, कभी हम उन पर ध्यान देते हैं, कभी हम उन्हें रद्दी में डाल देते हैं। इसी प्रकार भीड़ भरे स्थानों में भी पर्चों को बाँटा जाता है, पर बहुधा वहाँ भी वे व्यर्थ ही होते हैं।

पर्चों के बारे में ऐसी ही कुछ धारणा थी, जब उस व्यक्ति को इतने व्यवस्थित ढंग से पर्चे बाँटते देखकर मन ठिठका। उसे चार पाँच और लोगों को बाँटते हुये देखा। हर बार पर्चा देकर वह तनिक ठहर रहा था, जैसे कि किसी को कुछ दिखाना चाह रहा है। थोड़ा दूर देखा तो एक दूसरा व्यक्ति उसकी फोटो ले रहा था। रोचक, हर बार वह फोटो ले रहा था, जितने पर्चे मेरे सामने बँटे, हर बार फोटो उतारी गयी, इतनी दूर से कि पर्चे पाने वाले को पता न चले।

मेरे स्यानु तन्तु पूरी तरह से जग चुके थे, ऐसा मैं पहली बार देख रहा था। सबसे पहले तो मैंने पर्चा देखा, सौभाग्यवश हमारे ड्राइवर महोदय के पास एक प्रति थी। उसकी एक प्रति लेकर हमारे ड्राइवर महोदय न चाहते हुये भी अपनी फोटो दे चुके थे। देखा तो पास में एक नया होटल खुला था, पर्चे पर चित्र बड़ा मनोहारी था, देखकर लार आ जाना पक्का था।

पर्चे के हर वितरण की फोटो खींचे जाने के दो अर्थ स्पष्ट थे। पहला यह कि वितरक पर दृष्टि रखी जा रही है और यह तथ्य वितरक को ज्ञात भी है। दूसरा यह कि फोटो के रूप में उसका साक्ष्य भी रखा जा रहा है। जब दृष्टि रखी ही जा रही थी तो साक्ष्य रखने का क्या अर्थ? संभवतः उन दोनों के ऊपर जो बैठता हो, उसे दिखाने के लिये। हो सकता है कि एक भी पर्चा व्यर्थ न जाये, इसके लिये उसने अतिरिक्त व्यक्ति को कैमरे के साथ भेजा हो।

पर्चे के व्यर्थ न होने के लिये एक और व्यक्ति को भेजने के पीछे कारण आर्थिक तो पक्का नहीं हो सकता। जितना पैसा एक व्यक्ति को दृष्टि रखने के लिये दिया जा रहा होगा, उतने से कहीं अधिक पर्चे छपवाये जा सकते थे। उद्देश्य तो शत प्रतिशत पर्चों का वितरण कराने का था। कितने पढ़े गये या नहीं, पर एक भी पर्चा व्यर्थ न हो, इसके लिये कितना भी पैसा लगाने को तैयार दिखते हैं प्रचारक महोदय। प्रचार कार्य को इतने गहन ढंग से करने के लिये प्रबन्धन के सामान्य शब्द साथ छोड़ देते हैं। इस ुूरी प्रक्रिया के लिये अनुवर्तन ही सटीक दिखता है।

अब फोटो तो डिजिटल हो चली हैं, कितनी भी खींच ली होंगी, उसमें तो अधिक धन लगना नहीं है। हाँ यदि रील वाला समय होता तो निश्चय ही प्रचारक महोदय को इस प्रक्रिया में तगड़ा चूना लगता। आगे प्रचारक महोदय ने यह भी सुनिश्चित किया ही होगा कि लोग उन पर्चों को पढ़े और होटल भी आयें भी, तब कहीं जाकर उनका प्रचारचक्र पूरा होगा।

यह भी एक उद्देश्य हो सकता है कि यह पता किया जाये कि पर्चे द्वारा प्रचार करना कितना प्रभावी होता है? जितने लोगों को पर्चे दिये गये, उनमें से कितने लोग होटल पधारे, यही वितरण के प्रभाव का मानक है और यही भविष्य में पर्चे द्वारा किये गये प्रचार के योगदान को सिद्ध कर सकेगा। यह पता करने के लिये वितरण के समय उतारे गये फोटों और ग्राहकों की फोटो का मिलान आधुनिक डिजिटल तकनीक से बड़ी आसानी से किया जाना संभव है। संभव है जब हमारे ड्राइवर महोदय जायें तो पर्चा वितरण की सार्थकता सिद्ध हो जाये और विश्लेषण की स्क्रीन पर टूँ स्वर का उद्घोष हो।

जिस प्रकार से उद्देश्य पाने के लिये जिस गहनता और जीवटता से प्रक्रिया पर दृष्टि और उपदृष्टि रखी गयी, उसके लिये अनुवर्तन से अधिक सटीक शब्द मिला ही नहीं। साहित्य लेखन में और किताबी प्रबन्धन में इतनी जीवटता होती तो यह शब्द वहाँ भी उपस्थित रहता। साहित्य में लेखक इसी अनुवर्तन का आधार लेकर अपने अच्छे लेखन को अपने पाठकों तक भी पहुँचा सकते हैं, ठीक वैसे ही जैसे होटल के प्रचारक महोदय ने अपने ग्राहकों को अच्छे व्यंजनों का स्वाद चखाने के लिये किया।

10.7.13

मैं किनारा रात का

मैं किनारा रात का,
उस पार मेरे सुबह बैठी,
बीच बहते स्वप्न सारे, हैं अनूठे।

मैं उजाला प्रात का,
कल छोड़ कितने स्वप्न आया,
क्या बताऊँ, रात के हर अंश रूठे।

मैं उमड़ना वात का,
चल पड़ा था रिक्त भरने,
मैं बहा कुछ देर, पथ में पत्र टूटे।

लक्ष्य मैं आघात का,
जो उठे हर दृष्टि से नित,
ले हमारा नाम, घातक तीक्ष्ण छूटे।

मैं धुरा अनुपात का,
जो न पाता एक भी तृण,
न्याय करता, पा सके सम्मान झूठे।

मैं बिछड़ना साथ का,
जो रहे बनकर अतिथिवत,
भाव के उद्योग में निर्जीव ठूठे।

तत्व मैं हर बात का,
जो न बहरी किन्तु गहरी,
और जीवन का सुखद आधार लूटे।

6.7.13

दृष्टिक्षेत्रे

सायं का समय था, वाहन की अगली सीट से सामने का दृश्य स्पष्ट दिख रहा था। आस पास कई और वाहन थे, लम्बे और मँहगे भी, सामने सिग्नल लाल था। निरीक्षण हेतु घर से बाहर निकले पर्याप्त समय हो गया था, कार्य होने के बाद वापसी की ओर दिशा थी, सारे मैसेज, मेल आदि मोबाइल पर देख चुका था, निरीक्षण रपट के बिन्दु लिख चुका था, ड्राइवरजी को कोई एफएम चैनल लगाने की अनुमति दे दी, संभवतः उन्हें अच्छे से ज्ञात रहता है कि किस समय किस चैनल पर कर्णप्रिय गीत आते हैं। एक नया गाना चल रहा है, तुम ही हो, आशिकी २ फिल्म का, अरिजीत सिंह के मधुर कण्ठ में, हर साँस में नाम तेरा। किसी का गाना इतना प्रभाव उत्पन्न कर रहा है, निश्चय ही मन से गाया होगा।

थोड़ी देर पहले बारिश हुयी थी, पूरा वातावरण नम था, फुटपाथ का रंग पानी में धुलकर और भी गाढ़ा हो चला था। दृश्य अन्य दिनों की तुलना में अधिक स्पष्ट थे। बंगलोर में आसमान कम ही दिखता है, जब सामने भवन घेरे खड़े हों, तो उनसे बचकर दृष्टि भला ऊपर कहाँ जा सकती है? आसमान तो वैसे भी नहीं दिख रहा है, स्याह दिख रहा है फुटपाथ की तरह ही गीला होकर गाढ़ा हो गया है उसका रंग, या कहें कि पानी से बचने के लिये बादलों को ही ओढ़ लिया है उसने, कि कहीं गीले न हो जायें। जब भी इधर पानी फिर बरसेगा, आसमान सूखकर फिर से नीला हो जायेगा, खुला खुला, सूखा सूखा।

सामने एक कार खड़ी है, यह तो कर्नाटक एक्सप्रेस है, नहीं उसकी नम्बर प्लेट पर जो अंक है, वह कर्नाटक एक्सप्रेस का ट्रेन नम्बर है, २६२७। नहीं, नहीं अब तो ट्रेनों के नम्बर पाँच अंकों के हो गये हैं, इसके आगे भी १ लग कर १२६२७ हो गया है। एक साथी के पास वाहन है, उसका नम्बर मुजफ्फरपुर इण्टरसिटी का है, उसके वाहन को देखकर अभी भी हाजीपुर के दिन याद आ जाते हैं। पता नहीं, पर परिचालन के पदों में रहते हुये और ट्रेनों का पीछा करते करते, अब ट्रेनों के नम्बर हमारा पीछा करने लगे हैं। जो भी वाहन दिखता उसकी नम्बर प्लेट में कोई न कोई ट्रेन नम्बर दिख जाता है। पता नहीं कब छूटेगा यह खेल मन से।

पानी बरसने से सारा धुआँ पानी में घुलकर बह गया, वातावरण स्वच्छ सा दिखने लगा, वाहन की खिड़की खोली, थोड़ी शीतल हवा अन्दर आयी, सर्र से, चेहरे पर सलोना सा झोंका पडा, मन आनन्द से भर गया। पानी वायु प्रदूषण तो बहा कर ले गया पर इस ध्वनि प्रदूषण का क्या करें, क्या करें वाहनों के उस कोलाहल का जो गीत सुनने में व्यवधान डाल रहा है। शीतल बयार के साथ कर्कश कोलाहल निशुल्क ले जाइये। खिड़की बन्द करते ही शान्ति सी घिर आयी। अब लगता है कि कार के अन्दर वातानुकूलता के तीन प्रमुख लाभ हैं, तापमान स्थिर रहता है, धूल और धुआँ नहीं आता है और सड़क का कोलाहल कानों को नहीं भेदता है। पता नहीं एसी बनाने वाली कम्पनियाँ कब इन तीनों लाभों को अपने प्रचार मे समाहित कर पायेंगी।

सामने के ट्रैफिक सिग्नल पर उल्टी गिनती चल रही है, १२० से शून्य तक, यहाँ पर दो मिनट का टाइमर नियत है। आप कहीं प्रतीक्षा करते करते ऊब न जायें अतः ट्रैफिक सिग्नलों पर उल्टी गिनती का प्रावधान कर रखा है। कहते हैं किसी भी चीजों को अंकों में बदल लेने से उस पर नियन्त्रण सरल लगता है, समय बिना गिनती के सम्हलता ही नहीं है, कभी सिकुड़ जाता है, कभी फैल जाता है। यहाँ पर १२० तक की गिनती में लगता है कि समय अपनी गति से ही चल रहा है।

पर पता नहीं क्यों, ये लोग उल्टी गिनती गिनते हैं, सीधी भी गिन सकते थे। पर उसमें एक समस्या है, पता नहीं चलता कि कहाँ रुकना है, क्योंकि कई स्थानों पर ६० सेकण्ड की प्रतीक्षा है तो कई स्थानों पर १८० सेकेण्ड की। यदि ऐसा होता और सीधी गिनती गिनते, तो पता चलता कि सहसा सिग्नल हरा हो गया, सब गाड़ी एक साथ चल पड़ीं, एक अनोखा खेल बन जाता, मनोरंजक सा। तब संभवतः प्रतीक्षा रोचक हो जाती, कि पता नहीं कब रास्ता मिल जायेगा। होना तो यह चाहिये कि इस पर शर्त लगाने के लिये इसे अनिश्चित कर देना चाहिये, लोग प्रतीक्षा के समय शर्त लगाया करेंगे, उनका समय भी कट जायेगा और मनोरंजन भी पूर्ण होगा। अभी तो हमें उल्टी गिनती पूरी याद हो गयी है, बचपन में मास्टर साहब ने बहुत पूछा था, उल्टी गिनती, अब पूछते तो सुनाकर प्रथम आ जाते। मैं ही क्यों, पूरा बंगलोर ही प्रथम आ जाता, पूरा समय उल्टी गिनती ही तो गिनने में बीतता है, यहाँ के लोगों का।

सिग्नल महोदय सहसा हरे हो जाते हैं, उनके हरे होने से जितनी प्रसन्नता बरसती है, उतनी संभवतः पेड़ों के हरे होने पर भी नहीं बरसती होगी। हमारा वाहन भी इठलाता हुआ चल देता है, अगले सिग्नल तक तो निश्चिन्त।

जून का माह समाप्त होने को आया है, अब तक तो सबकी ग्रीष्मकालीन छुट्टियाँ समाप्त हो गयी होंगी। यहाँ पर फिर भी कुछ पर्यटक दिख रहे हैं, संभवतः आज या कल तक वापस चले भी जायें। बाजार के आसपास निश्चिन्त टहलते हुआ कोई यहाँ रहने वाला गृहस्थ तो नहीं हो सकता। यहाँ के युवा भी नहीं होंगे, क्योंकि वे बहुधा इतने खुले स्थानों पर नहीं पाये जाते हैं। बाहर से आने वाले ही होंगे, क्योंकि इतने आत्मविश्वास और मंथर गति से चलने वाले, छुट्टियाँ का आनन्द उठाने वालों के अतिरिक्त कोई और हो भी नहीं सकते हैं। बंगलोर आज अपने पूरे सौन्दर्य में हैं, पर्यटकों का पैसा वसूल है आज तो।

घर आ जाता है, अब दृष्टि में परिवार है। आज आने में देर हो गयी। नहीं, थोड़ा ट्रैफिक जाम था, धीरे स्वर में ऐसे बोले कि जैसे दृष्टि भी जाम थी। अब जिनको ट्रैफिक जाम में कष्ट हो, तो हो, हमें तो जीभर कर देखने को मिलता है, जीभर कर समझने को मिलता है। अगली बार कुछ और देखा जायेगा, जितनी अधिक प्रतीक्षा, उतना बड़ा दृष्टिक्षेत्र।

3.7.13

है अदृश्य पर सर्वव्याप्त भी

एक बहुत रोचक कहावत है, प्रबन्धन में। कहते हैं कि सबसे अच्छा प्रबन्धक वह है जो तन्त्र को इस प्रकार से व्यवस्थित करता है जिससे वह स्वयं अनावश्यक हो जाये। बड़ा सरल सा प्रश्न तब उठ खड़ा होगा कि जब अनावश्यक हो गये तब तन्त्र से बाहर क्यों नहीं आ जाते, क्यों व्यर्थ ही तन्त्र का बोझ बढ़ाना? तर्क में तनिक और दूर जायें तो प्रबन्धक का पद स्वक्षरणशील हो जायेगा, जो भी सर्वोच्च पद पर रहेगा, अनावश्यक हो जायेगा? कहावत को और संबंधित प्रश्न को समझने के लिये थोड़ा गहराई में उतरना होगा।

एक अच्छे प्रबन्धक को भौतिक दिखना आवश्यक नहीं है, पर तन्त्र की गतिशीलता में उसकी उपस्थिति परोक्ष है। वह प्रक्रियाओं को इस प्रकार व्यवस्थित करता है कि वे स्वतःस्फूर्त हो जाती हैं, घर्षणमुक्त रहती हैं, अपने आप गतिमय बनी रहती हैं।

तो देखा जाये तो उपरोक्त कहावत सामान्य स्थितियों के समतल के लिये है, न कि तन्त्रगत आरोह व अवरोह के लिये। जब भी तन्त्र को आरोह पर चलना होता है, अधिक उत्पादक होना पड़ता है, अधिक गुणवत्ता लानी होती है, तो प्रबन्धन की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार जब समस्या आती है, जब परिस्थितियाँ विरुद्ध होती हैं, तो उन्हें साधने के लिये प्रबन्धन की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार देखें तो प्रबन्धक की उपस्थिति तो अनिवार्य है, पर सामान्य कार्यशैली में उसका रहना अनावश्यक है।

अब प्रश्न उठ खड़ा होता है कि कब प्रबन्धन अपने आप को आवश्यक समझे, या कब प्रक्रिया में हस्तक्षेप करे? अच्छा तो यही हो कि छोटी मोटी प्रगति और छोटी मोटी समस्याओं का अवसर प्रबन्धन के क्षेत्र के बाहर ही हो। अपने अन्तर्गत कार्य करने वालों को उनके कार्यक्षेत्र में जितना अधिक आयाम दिया जा सके, प्रबन्धन को उतना ही कम हस्तक्षेप करना होगा। प्रबन्धन को कार्यक्षेत्र के जिन मानकों और तथ्यों पर दृष्टि रखनी हो, वे दैनिक कार्य के मानकों से कहीं ऊपर और सर्वथा भिन्न हो, तभी कहीं जाकर प्रबन्धक अपनी सार्थकता और उपयोगिता सिद्ध कर सकता है। सामान्य कार्यशैली के कहीं ऊपर और कहीं नीचे ही प्रबन्धक का कार्य प्रारम्भ होता है।

ऐसा बहुधा होता है कि तन्त्र ठीक प्रकार से चल रहा हो और प्रबन्धक को लगने लगे कि उसकी उपस्थिति तन्त्र में दिख नहीं रही है। यही वह समय होता है जब प्रबन्धक अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिये आतुर हो जाता है और तन्त्र में अनावश्यक हस्तक्षेप करने लगता है। अनावश्यक हस्तक्षेप न तन्त्र के लिये अच्छा होता है और न ही कार्य में लगे हुये लोगों के लिये। प्रबन्धक को अपनी व्यग्रता और ऊर्जा सम्हाल कर रखनी चाहिये, उस समय के लिये, जब वह सच में आवश्यक हो, जब तन्त्र को बहुत ऊपर ले जाना हो या नीचे जाने से बचाना हो।

तन्त्र कितना स्वस्थ और सुदृढ़ है, उसका सही आकलन आपात परिस्थितियों में होता है। समस्यायें आती हैं, गहरी आती हैं और सबके पास आती हैं। कितना शीघ्र आप संचित ऊर्जा को क्रियाशील करते हैं और कितना शीघ्र सामान्य स्थितियों में वापस लौट आते है, यह तन्त्र और प्रबन्धक की सुदृढ़ता के मानक हैं। यही वह समय होता है जब प्रबन्धक का ज्ञान, अनुभव और ऊर्जा काम में आती है।

प्रबन्धक बनना अपनी चिन्हित राहों से कहीं आगे बढ़ने का कर्म है। हमारा रुझान उसी पथ की ओर होता है जिन्हें हम पहले से जानते हैं। प्रबन्धक बन कर भी हम वही करते रहना चाहते हैं जो हम पहले करते आये हैं, संभवतः वही करने में हम मानसिक रूप से तृप्त अनुभव भी करते हैं। पर वह मानसिकता उचित नहीं, उसे विस्तार ग्रहण करना होता है, तनिक और ऊपर उठ कर अन्य पक्षों पर ध्यान केन्द्रित करना होता है। इस प्रकार हम ऊपर बढ़ते बढ़ते, तन्त्र की सीढ़ी में अपना स्थान रिक्त करते हुये बढ़ते हैं और आने वालों को वह स्थान लेने देते हैं।

जो हमें आता है और जो हमें करना चाहिये, इन दो तथ्यों में बहुत अधिक अन्तर है। हम यदि वही करते रहेंगे जो हमें आता है तो कभी भी विकास नहीं हो पायेगा। हमें तो वह करना और समझना चाहिये जो आवश्यक हो, न केवल आवश्यक हो वरन करने के योग्य भी हो।

इस विधि से तन्त्र विकसित करने के बड़े लाभ हैं, आप निर्णय प्रक्रिया को अपने कनिष्ठों को सौपना प्रारम्भ करते हैं, आप अपनी दृष्टि का विस्तार करते हैं, आप तन्त्र की गति और गुणवत्ता को बल देते हैं। आप अपने जैसे न जाने कितने और कुशल प्रबन्धक तैयार करने की प्रक्रिया में बढ़ जाते हैं।

अब हम कितना भी तन्त्र विकसित कर लें, परम प्रबन्धक जी की तरह क्षीरसागर में विश्राम करने की स्थिति फिर भी नहीं आ सकती। पर जब भी उस तरह जैसा कुछ अनुभव होता है, जब कभी भी अपने कार्यालय में बिना किसी काम के आधा दिन निकल जाता है तो दो संशय होने लगते हैं। पहला, कि कहीं भूलवश हमारे द्वारपाल ने बाहर की लाल बत्ती तो नहीं जला दी है। दूसरा, कि कहीं तन्त्र इतना विकसित तो नहीं हो गया है कि उसे हमारी आवश्यकता ही नहीं पड़ रही है, प्रबन्धन की रोचक कहावत कहीं सच तो नहीं हुयी जा रही है?

29.6.13

महीने भर का ऱाशन या महीने भर का लेखन

सप्ताहान्त के दो दिन यदि न होते तो संभवतः सृष्टि अब तक विद्रोह कर चुकी होती, या सृष्टि तब तक ही चल पाती, जब तक चलने दी जाती। वे सारे कार्य जो आदेश रूप में आपको मिलते रहते हैं, अपना ठौर ढूढ़ने तब भला कहाँ जाते? अच्छा हुआ कि सप्ताहान्त का स्वरूप बनाया गया, और भी अच्छा हुआ कि उसे एक दिन से बढ़ा कर दो दिन कर दिया गया। अब न जाने कितने छोटे मोटे कार्य तो अपने आप ही हो जाते हैं, इसलिये कि कहीं दो दिनों में उनको ढंग से निचोड़ न डाले हम। बड़े बड़े कार्य, जैसे कहीं दूर देश घूमकर आना, ये सारे कार्य भी वरिष्ठों की कृपा की जुगत से हो ही जाते है। जहाँ तक उत्पादकता के प्रश्न हैं, तो देश हर दिन प्रगतिमान है। पहले ६ दिनों में जो निष्क्रिय काल होता था, उसे एक दिन के अवकाश में बदलने के बाद भी शेष पाँच दिनों में लोगों के पास इतना समय रहता है कि अपना कार्य करने के अतिरिक्त बहुत लोग विदेश के आर्थिक संस्थानों की रोजी रोटी चलाते रहते हैं। राज्य सरकारों में कार्यरत बान्धव इससे तनिक ईर्ष्यालु हो उठेंगे, उन्हें अभी भी ६ दिन खटना होता है, पर हर दिन एक डेढ़ घंटा कम।

जब दृष्टि फैलती है तब दृश्य विस्तारित हो जाता है, जब सृष्टि फैलती है तब व्यवस्था विस्तारित हो जाती है, पर जब से सप्ताहान्त फैला है तब से हमें मिलने वाला समय और कम हो चला है। कहते हैं कि जब धन कम रहता है तो व्यक्ति सोच समझ कर व्यय करता है, पर अधिक धन में व्यय भी अधिक होने लगता है और बहुधा व्यर्थ ही हो जाता है। अब घर में सबको कम से कम इतना तो ज्ञात है कि सप्ताहान्त के दो दिन हम सबकी सेवा में लगे रहेंगे। कभी कभी आवश्यक प्रशासनिक कार्य निकल आते हैं, पर प्रशासकों को भी घरेलू कार्य पकड़ाने वालों की कृपा से कनिष्ठगण बचे रहते हैं, कृतज्ञ बने रहते हैं।

मुख्यतः तीन कार्य रहते हैं, बच्चों को कहीं घुमाना, घर का राशन आदि लाना और लेखन कर्म करना। तीन कार्य होने से कई बार व्यस्तता बनी रहती है और विश्राम का समय नहीं मिल पाता है। कई बार सोचा कि इन्हें किस प्रकार सुव्यस्थित करें कि सबके लिये समुचित समय मिल जाये।

बच्चों का कार्य तो अत्यावश्यक है और किसी प्रकार भी टाला नहीं जा सकता है, उसको टालने का सोचते ही दो ओर से ऊष्मा आने लगती है, बच्चे और बच्चों की माँ एक ओर हो जाते हैं। एक सप्ताह में किसी एक स्थान पर ले जाने से ही कार्य चल जाता है, कभी कभी जब व्यस्तता अधिक होती है तो उनको भी हम पर दया आ जाती है और मॉल आदि घूमने से ही कार्य चल जाता है। इस कार्य से हमें सर्वाधिक विश्राम तब मिलता है जब उनके विद्यालयों में सप्ताहान्त के लिये ढेर सारा कार्य पकड़ा दिया जाता है, उस गृहकार्य के लिये विषय सामग्री जुटाने में ही उनका सारा समय निकल जाता है और कहीं घूमने जाने की सुध भी नहीं रहती है उन्हें। उन्हें कार्य के बोझ में डूबा देख अच्छा तो नहीं लगता है, पर क्या करें, समय मिल जाता है अपने लिये तो वह दुख कम भी हो जाता है। पिछले कुछ माह से लग रहा है कि उनके विद्यालय के शिक्षकगण दयालु प्रकृतिमना हो चले हैं अतः अधिक कार्य नहीं दे रहे हैं, फलस्वरूप हर सप्ताह कहीं न कहीं घूमना हुआ जा रहा है।

घर का राशन लाना भी प्रमुखतम कार्यों में एक है, यदि वह नहीं किया गया तो उपवास की स्थिति आ सकती है। न केवल वह कर्म प्राथमिकता से करना होता है, वरन मन लगा कर भी करना होता है। जल्दी जल्दी करने के प्रयास में जितना समय बचता है, उससे दस गुना अधिक समय घर में न जाने कितने ताने सुनने में चला जाता है, हर प्रकार के और हर प्रकार से। जो सूची हाथ में आती है उसका अनुपालन अनुशासनात्मक आदेश की तरह निर्वाह किया जाता है। हर बार बस यही प्रयास कि पिछली बार से अच्छा सामान लाकर अधिक अंक बटोर लिये जायें।

इन दो महाकर्मों के बाद रहा सहा जो समय शेष बचता है, वह सप्ताह में लिखे जाने वाली दो पोस्टों को सोचने और लिखने में निकल जाता है। अब उस समय लिखने का वातावरण हो न हो, मन में विचार श्रंखला निर्मित हो न हो, निर्बाध समय मिले न मिले, कई अन्य कारक रहते हैं जिन पर सीमित लेखन की आस टिकी रहती है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि कोई पोस्ट आधी ही लिखी जा पाती है और अपने अधपके रूप में छपने के एक दिन पूर्व तक गले में अटकी रहती है। बहुधा व्यग्रता का स्तर ख़तरे के निशान के ऊपर बना रहता है।

सप्ताहान्त के आकारों और प्रारूपों पर ढेर सा चिन्तन मनन करने के पश्चात हम श्रीमती जी से बोले कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप महीने भर का राशन एक बार ही बता दें, एक बार में ही जाकर सारी आवश्यकतायें पूरी कर ली जायें। शेष सप्ताहान्तों का उपयोग हम लेखन के लिये करें। प्रस्ताव सशक्त था, यदि महीने भर में एक ही बार जाना हो तो शेष तीन सप्ताहान्तों का उपयोग निर्बाध लेखन के लिये किया जा सकता है। प्रस्ताव उन्होंने कुछ पल के लिये और हमारे सामने एक प्रति प्रस्ताव रख दिया। क्यों न हम ऐसा करें कि महीने भर का लेखन एक सप्ताहान्त में बैठकर कर लें और शेष समय घर के कार्यों में लगाया जाये?

कभी कभी जब चलाया हुआ तीर या कहा हुआ शब्द घूमकर वापस आ जाता है तो उत्तर देते नहीं बनता है। इसमें दो संकेत स्पष्ट थे। पहला हमारा लेखनकर्म घर के कार्यों में सम्मिलित नहीं था, वह प्रवासी के रूप में पिछले ४-५ वर्षों से इस घर में रह रहा था और घर के सामान्य कार्यों को बाधित कर रहा था दूसरा यह कि यह एक पूर्ण रूप से भौतिक व श्रममार्गी कार्य था। यदि एक लेख ३ घंटे में लिखा जा सकता है तो महीने भर में छपने वाले ८-९ लेखों के लिये २४-२५ घंटे पर्याप्त हैं। उन्हें एक के बाद एक, बिना मानसिक या शारीरिक विश्राम के लिखा जा सकता है।

हम कल्पना में डूब गये कि यदि सच में ऐसा होगा तो क्या होगा? कल्पना कठिन नहीं है, तीन चार लेख पूरे होते होते शब्द घूमने लगेंगे, विचार छिटकने लगेंगे, भ्रम गहराने लगेगा और अन्ततः कपाल निचुड़ने की स्थिति में पहुँच जायेगा। हमें लगा कि प्रति प्रस्ताव हमारे लेखन को पूर्णरूपेण धूलधूसरित करने के लिये रखा गया है। हमने समझाने का प्रयास किया कि माह भर का राशन तो एक साथ आ सकता है पर माह भर का लेखन एक साथ बाहर नहीं आ सकता। सृजन कर्म की गति मध्यम होती है, जबकि पाँच किलो की बोरी के स्थान पर दस किलो की बोरी आ सकती है।

अब हमारे चिन्तन के स्थान पर प्रति चिन्तन प्रारम्भ हो गया, उत्तर आया कि महीने भर क्या क्या बनाना है, यह एक बार में कैसे निर्धारित किया जा सकता है? मान लिया हम लोग अपने लिये कोई भोजनचर्या नियत भी कर लें, पर तब क्या होगा जब कोई अतिथि आयेगा, तब क्या होगा जब कोई बच्चा हठ करेगा, तब क्या होगा जब आपको सहसा कुछ विशेष खाने का मन करने लगेगा? जीवन इस प्रकार से एकरूपा चलाने से उसमें घोर नीरसता आ जायेगी।

हम दोनों अपने तर्कों पर अड़े हैं और जहाँ पर खड़े थे, बस वहीं पर ही खड़े हैं। क्या माह में एक बार के स्थान पर माह में दो बार का प्रस्ताव धरा जाये? माह में तीन बार के स्थान पर दो बार लेखन करने से लेखन की गुणवत्ता तो प्रभावित होगी पर घर के खान पान आदि में विविधता बढ़ जायेगी। सुधीजनों का और अनुभव के पुरोधाओं का क्या मत है?

26.6.13

बोझ प्रधान देश का बचपन

मुझे लगता है कि बोझ का जितना स्तर अपने देश में है, उतना विश्व के किसी देश में नहीं है। कोई ऐसे तथ्य तो नहीं हैं जिनके आधार पर मैं यह सिद्ध कर पाऊँ, पर लगता है कि यह ही सत्य हैं।

वैसे कहने को तो सारे तथ्य होने के पश्चात भी लोग सत्य स्थापित नहीं कर पाते हैं, तर्क होने के बाद भी कुछ सिद्ध नहीं कर पाते हैं, सिद्ध करने के बाद उसे क्रियान्वित नहीं कर पाते हैं। जिनके पास कुछ भी नहीं होता, उनके पास बस सत्य होता है, वे कह देते हैं और सब मान भी जाते हैं। जब तक गुणीजन उसे असिद्ध कर सकते हैं, वह सत्य बना रहता है। कभी कभी ऐसे सत्य राजनैतिक गरिमा के लिये तो कभी अपने को समझाने के लिये टपकाये जाते हैं।

हम भी इसी तरह का सत्य टपका रहे हैं, कि भारत के बच्चे सर्वाधिक दबे हैं, हर तरह के बोझ से, जीवन के बोझ से। तर्क को उल्टे सिरे से पकड़ते हैं और इसे असिद्ध करने का प्रयास करते हैं। यदि असिद्ध न कर पाये तो तर्क सिद्ध माना जायेगा, स्थापित सत्यों की तरह। जैसा लगता है कि जितनी हमारी सामर्थ्य है, हम असिद्ध करने को बड़ा कठिन मानते हैं और वहाँ तक नहीं पहुँच पाते हैं। चलिये कठिन ही सही, असिद्ध करने का प्रयास करते हैं।

असिद्ध करने का पहला स्तर है, स्वयं का, विशेषकर स्वयं के अनुभव का। यदि हमारा बचपन आनन्द में बीता हो, पढ़ाई का तनिक भी बोझ न पड़ा हो, तो प्रस्तुत सत्य असत्य माना जायेे। बचपन में एक तथ्य बड़ी स्पष्टता से समझ आ गया था कि यदि भविष्य आर्थिक रूप से सुरक्षित चाहिये तो पढ़ते रहना पड़ेगा, न केवल पढ़ना पड़ेगा, वरन अपनी कक्षा की ऊपरी बौद्धिक सतह में टिके रहना पड़ेगा। मन्त्र न केवल समझाया गया वरन पड़ेसियों के कई उदाहरणों के द्वारा सिद्ध भी किया गया। देखो उनको, बचपन में पढ़ने की जगह खेलते रहे, अब जीवन के दुख भोग रहे हैं।

कभी कभी कुछ भय अकारण ही दिखाये जाते हैं, पर यह भय सच था। थोड़ा बड़ा होने पर पता लग गया कि प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल प्रतियोगियों का प्रतिशत प्रयासरत प्रतियोगियों का पाँच प्रतिशत भी नहीं। प्रथम पाँच में रहना है तो, पुस्तकों को सर पर धरे चलना ही होगा, जागते समय भी, सोते समय भी। भारत में मध्यमवर्ग की बहुलता है और उनकी आर्थिक बचत एक पीढ़ी के परे जा भी नहीं पाती है। यदि कोई नौकरी नहीं मिली तो अगली पीढ़ी निम्न मध्यमवर्ग और उसकी अगली पीढी सीधे गरीबी रेखा के नीचे।

स्थापित व्यवसाय और परम्परागत आर्थिक आधार टूटने के कारण सारे बच्चों को नौकरी के राह पर जूझना स्वाभाविक है। नौकरियों का आश्रय केवल उन्हें ही मिल पाता है जो पढ़ने में और उसे परीक्षाओं में उगल देने में अच्छे होते हैं। शेष जूझते हैं, शेष जीवन। बोझ का बोध रहता ही है, जीवन के पूर्वार्ध में या जीवन के उत्तरार्ध में।

कभी सोचा कि कितना अच्छा होता कि हमारा देश भी विकसित होता, हर गाँव में एक तेल का कुँआ होता, एक सोनी के सामानों की फैक्टरी होती। रुचि और आवश्यकता अनुसार ज्ञान प्राप्तकर हम भी कहीं लग जाते। दुर्भाग्य ही है हमारे देश का कि हम जनसंख्या और भ्रष्टाचार में तो अग्रणी हैं, पर औद्योगिक विकास और अनुशासन में पिछड़े हुये हैं।

विदेशों में बच्चे राज्य के अनमोल उपहार माने जाते हैं, उन पर किसी प्रकार का अत्याचार अपराध की श्रेणी में आता है। स्वास्थ्य और शिक्षा राज्य का कर्तव्य होता है और बड़े होने पर उन्हें अपना व्यवसाय स्थापित करने के लिये पर्याप्त आर्थिक सहायता मिलती है। हमारे यहाँ जिन बच्चों को शिक्षा का आग्रही बोझ नहीं मिल पाता है, हमारा आर्थिक तन्त्र उन्हें और उनके बचपन को बालश्रम के माध्यम से सोख लेता है।

कहते हैं कि संघर्ष व्यर्थ नहीं जाता है, जितना जूझेंगे उतना निखरेंगे। जिन उन्नत क्षेत्रों के लिये हमें अपनी जुझारू क्षमता बचाकर रखनी थी, उनके स्थान पर हम सारी ऊर्जा प्रतियोगी परीक्षाओं की उन पुस्तकों को रटने में और हल करने में लगा देते हैं जिनकी उत्पादकता केवल प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने तक ही सीमित रहती है। नौकरी मिल जाने के बाद उनकी उपयोगिता शून्य हो जाती है। हमने ज्ञान के पहाड़ पढ़ डाले, उनका उपयोग अब कुछ भी नहीं, छूछे कीर्तमान स्थापित कर डाले, उनका उपयोग अब कुछ भी नहीं। बौद्धिक उत्कृष्टता के आधार पर तकनीक के जिन क्षेत्रों में हमें आगे होना था, वे हमारे ध्येय में रहे ही नहीं। संभवतः जिस दिन प्रतियोगी परीक्षाओं के बोझ से हमें मुक्ति मिलेगी, उस दिन हम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना हित अहित समझ पायेंगे।

जिस भय को हमने जिया है, जिस तन्त्र का गरल हमने पिया है, उसी में अपने बच्चों को जाते देख मन पीड़ा से कराह उठता है। हृदय कहता है कि उन्हें अपना बचपन सिद्ध करने दो, उड़ना सीख गये तो आकाश से अपना लक्ष्य साझ ही लेगे। बुद्धि कहती है कि इस देश में कहाँ से उड़ पायेगा बच्चा।, उसे अपने कंधों पर आर्थिक सुनिश्चितता और सामाजिक आकांक्षाओं का बोझ जो उठाना है।

उपरोक्त कहे सत्य को असिद्ध करने के जितने भी तर्क एकत्र करता हूँ, मन उतना ही भारी हो जाता है। काश मेरा कथन असिद्ध हो जाये, आज नहीं तो कल, देश के बच्चे भी शिक्षा और आर्थिक तन्त्र के बीच बैल की तरह जुते न दिखायी दें। 

22.6.13

औरों को हम

आदर्शों की छोटी चादर,
चलो ढकेंगे,
औरों को हम।

आंकाक्षा मन पूर्ण उजागर,
चलो छलेंगे,
औरों को हम।

इसकी उससे तुलना करना,
चलो नाप लें,
औरों को हम।

निर्णायक बन व्यस्त विचरना,
चलो ताप लें,
औरों को हम।

हमने ज्ञान निकाला, पेरा,
चलो पिलायें,
औरों को हम।

बिन हम जग में व्याप्त अँधेरा,
चलो जलायें,
औरों को हम।

पूर्ण नियन्त्रण, ध्येय महत्तम,
चलो बतायें,
औरों को हम।

फिर क्यों उछलें, अत्तम-बत्तम,
चलों सतायें,
औरों को हम।

काँटे जन जन, पुष्प मधुर हम,
चलो सजा दें, 
औरों को हम।

सुप्त प्राण, हो गुञ्जित मधुबन,
चलो बजा दें,
औरों को हम।

जब हम जागे,
तभी सभी का उदित सबेरा,
जब हम आगे,
तब विकास पथ रत्न बिखेरा,

हम तो हम हैं,
तुम हो, तम है,
हम साधेंगे, सारी रचना,
हम ढोते हैं, जग संरचना,
धर्म हमारा, कर्म हमारा,
न समझो तुम मर्म हमारा,

औरों के हम, समझे जन जन,
यही सिखाते, औरों को हम।

19.6.13

जो है, सो है

अपने मित्र आलोक की फेसबुक पर बदले चित्र पर ध्यान गया, उसमें कुछ लिखा हुआ था। आलोक प्रमुखतः चित्रकार हैं और उसके सारे चित्रों में कुछ न कुछ गूढ़ता छिपी होती है, अर्थभरी कलात्मकता छिपी रहती है। आलोक बहुत अच्छे फोटोग्राफर भी हैं और उनकी मूक फोटो बहुत कुछ कहती हैं। आलोक को पढ़ते पढ़ते दार्शनिकता में डुबकी लगाने में भी रुचि है, उनसे किसी भी विषय पर बात करना एक अनुभव है, हर बार कुछ न कुछ सीखने को मिल जाता है।

चित्र में उनके रेत पर चलते हुये पैर का धुँधला दृश्य था, उनके ही पैर का होगा क्योंकि आलोक गोवा में रहते हैं। उस पर लिखा था, Whatever is could not be otherwise - Eckhart Tolle. अर्थ है, जो है, वह उससे इतर संभव नहीं था। या कहें कि जो है, वह उसके अतिरिक्त कुछ और हो भी नहीं सकता था। पर इसे पढ़ते ही मेरे मन मे जो शब्द आये, वे थे, 'जो है, सो है'।

जो है, सो है। बड़े दार्शनिक शब्द हैं ये। समय, व्यक्ति और स्थान की तुलनात्मक जकड़न से सहसा मुक्त करते शब्द हैं ये। न पहले सा समय आ सकता है, न हम औरों से ही बन सकते हैं और न ही हम किसी समय किसी और स्थान पर ही हो सकते हैं। यदि ऐसा होता तो वैसा हो जाता, यदि ऐसा न होता तो वैसा न हो पाता। ऐसे ही न जाने कितने मानसिक व्यायाम करते रहते हैं, हम सभी। ऐसा लगता है कि औरों की तुलना में सदा ही स्वयं को स्थापित करने के आधार ढूढ़ते रहते हैं हम। न जाने कितना समय व्यर्थ होता है इसमें, न जाने कितनी ऊर्जा बह जाती है इस चिंतन में। उस सभी विवशताओं से मुक्ति देता है, यह वाक्य। जो है, सो है।

एक्हार्ट टॉल के लेखन में आध्यात्मिकता की पर्याप्त उपस्थिति रहती है। उनकी लिखी पॉवर ऑफ नाउ नामक पुस्तक आप में से कइयों ने पढ़ी भी होगी। वर्तमान में जीने की चाह का ही रूपान्तरण है, उनकी यह पुस्तक। मन में एकत्र स्मृतियों और आगत के भय में झूलते वर्तमान को मुक्त कराते हैं, इस पुस्तक के चिन्तन पथ। अभी के मूलमन्त्र में जीवन जी लेने का भाव सहसा हर क्षण को उपयोगी बना देता है, जैसा उस क्षण का अस्तित्व है।

मन बड़ा कचोटता है, असंतुष्ट रहता है। कोई कारण नहीं, फिर भी अशान्त और व्यग्र सा घूमता है। कोई कारण पूछे तो बस तुलना भरे तर्क बतलाने लगता है। समय, व्यक्ति और स्थान की तुलना के तर्क। ऐसे तर्क जो कभी रहे ही नहीं। ऐसे जीवन से तुलना, जो हम कभी जिये ही नहीं। क्योंकि हम तो सदा वही रहे, एक अनोखे, जो हैं, सो हैं।

हम पहले जैसे प्रसन्न नहीं हैं, या भविष्य में अभी जैसे दुखी नहीं रहना चाहते हैं, यही तुलना हमें ले डूबती है। क्या लाभ उस समय को सोचने का जिसे हम भूतकाल कहते हैं और जिसे हम बदल नहीं सकते हैं। क्या लाभ उस समय को सोचने का जो आया ही नहीं और जिसकी चिन्ता में हम भयनिमग्न रहते हैं। मन हमें सदा ही तुलना को बाध्य करता रहता है और हम हैं कि उन्हीं मायावी तरंगों में आड़ोलित होते रहते हैं, अस्थिर से, आधारहीन से। वर्तमान ही है जिसे जीना प्रस्तुत कर्म है और हम इसी से ही भागते रहते हैं।

मन हमें या तो भूतकाल में या भविष्य में रखता है, वर्तमान में रहना उसके बस का नहीं। यदि मन वर्तमान में रहना सीख जायेगा तो वह स्थिर हो जायेगा, उसकी गति कम हो जायेगी, उसका आयाम कम हो जायेगा। किसी चंचल व्यक्तित्व को भला यह कैसे स्वीकार होगा कि उसकी गति कम हो जाये या उसके आयाम सिकुड़ जायें।

जब समय की विमा से हम बाहर आते हैं और वर्तमान में रुकते हैं, तब भी मन नहीं मानता है। किसी और स्थान से तुलना करना प्रारम्भ कर देता है, सोचने लगता है कि संभवतः किसी और स्थान में हमारा सुख छिपा है, यहाँ की तुलना में अच्छा विस्तार छिपा है। हमारा मन तब यहाँ न होकर वहाँ पहुँच जाता है और तुलना करने के अपने कर्म में जुट जाता है। यदि उस स्थान से किसी तरह सप्रयास आप वापस आ जायें, तो तुलना अन्य व्यक्तियों से प्रारम्भ हो जाती है।

मन अपनी उथल पुथल छोड़ नहीं सकता है, उसे साथी चाहिये अपने आनन्द में, हमें भी साथ ले डूबता है। मन को उछलना कूदना तो आता है, पीड़ा झेलना उसने कभी सीखा ही नहीं। मन छोटी से भी छोटी पीड़ा हम लोगों को सौंप देता है और चुपचाप खिसक लेता है।

पता नहीं, आलोक की तर्करेखा भी मेरी तर्करेखा से मिलती है या नहीं, कभी पूछा भी नहीं। पर एक स्थान से चले यात्री कुछ समय पश्चात पुनः एक स्थान पर आकर मिल जायें तो पथ का प्रश्न गौड़ हो जाता है। चित्र में एक पथ दिख रहा है, एक पग दिख रहा है, वर्तमान की दिशा का निर्देशित वाक्य दिख रहा है, यह सब देख मुझे तो यही लगता है कि आलोक मेरे पथ पर ही है। वह तनिक आगे होगा, मैं तनिक पीछे। वह तनिक गतिशील होगा, मैं तनिक मंथर।

यह चित्र एक और बात स्पष्ट रूप से बता रहा है, इसमें न पथ का भविष्य दिख रहा है, न पथ का भूतकाल, बस पथ दिख रहा है, बस पग दिख रहा है। सब के सब वर्तमान की ओर इंगित करते हुये। आप भी बस अभी की सोचिये, यहीं की सोचिये, अपने बारे में सोचिये। मैं तो कहूँगा कि सोचिये ही नहीं, सोचना आपको बहा कर ले जायेगा, आगे या पीछे। आप बस रहिये, वर्तमान में, जो है, सो है।

15.6.13

मैकबुक मिनी

नहीं, एप्पल ने किसी नये उत्पाद की घोषणा नहीं की है, यह मेरे नये प्रयोग का नाम है। इसके पीछे एक रोचक कहानी है, एक परिवर्धित सततता है, एक सुनिश्चित योजना है और उत्पादकतापूर्ण उत्साहवर्धन भी।

जिन्होंने मैकबुक एयर को देखा और परखा है, उन्हें यह ज्ञात होगा कि यह सबसे हल्का लैपटॉप है, ११.६ इंच स्क्रीन और भार मात्र एक किलो। उठाने में सुविधाजनक, रखने में सुरक्षित और कम्प्यूटर के मानकों में आधुनिकतम। यही नहीं, बैटरी भी पर्याप्त रहती है, लगभग ६ घंटे। दो वर्ष पहले लिया था और आज भी नया सा ही लगता है। उपयोग भी सघन है, परिचालन, प्रशासनिक, लेखन और ब्लॉग संबंधी सारे कार्य उसी लैपटॉप में ही होते हैं। कुल मिलाकर मेरे द्वारा ६ घंटे औऱ बच्चों द्वारा २ घंटे उपयोग में आता है। लगभग ८ घंटे के उपयोग में दो बार बैटरी चार्ज करनी पड़ जाती है। उपयोगिता की दृष्टि से देखा जाये तो सामान्य से कहीं अधिक मूल्य देने के बाद भी कहीं अधिक संतुष्ट और प्रसन्न हूँ।

कुछ दिन पहले बिटिया का जन्मदिन था। पढ़ाई में पिछले वर्षों की अपेक्षा बहुत अच्छा प्रदर्शन करने के कारण मन प्रसन्न था और उसे कुछ अच्छा उपहार देने का मन बना लिया था, ऐसा उपहार जो आगे भी उसके काम आ सके। सोचा, विचारा और जाकर एप्पल का आईपैड मिनी ले आया। पता नहीं, आप लोग क्या कहेंगे? आप कह सकते हैं कि दस वर्ष की बिटिया को इतना बहुमूल्य उपहार देना एक मूर्खता है। सबने यही कहा कि ऐसे तो आप बच्चों को बिगाड़ देंगे। क्या करें, मुझे लगा कि अभी थोड़ा बहुत गेम खेलेगी, थोड़े बहुत गाने सुनेगी, वीडियो देख लेगी, पर धीरे धीरे पढ़ने और अन्य सार्थक उपयोग में लाने लगेगी। जो भी हो, बिटिया बड़ी प्रसन्न है, सहेलियों के बीच सगर्व लिये घूमती भी है।

आईपैड मिनी मात्र ३०० ग्राम का है, अत्यन्त हल्का, ८ इंच की स्क्रीन और कार्य करने में अत्यधिक सुविधाजनक। छोटी सी बिटिया के हाथ में छोटा सा आईपैड मिनी, उपयुक्त और मेल खाता। रोचकता में ही सही, वह उस पर बहुत कुछ करना सीख गयी। फिर भी तकनीकी रूप से उसमें कुछ भी करने का उत्तरदायित्व मेरा ही था, मैं उसका तकनीकी सलाहकार जो था। इसी बहाने कई बार उसे देखने, समझने और उस पर कार्य करने का अवसर भी मिला। अब बिटिया जब स्कूल जाती थी, उसका लाभ उठा कर उसे कई बार कार्यालय भी ले गया। उसमें कार्य कर बड़ा आनन्द आया। मैकबुक एयर पर किये जाने वाले सारे कार्य बड़ी सरलता से उसमें भी कर सका। धीरे धीरे नशा बढ़ता गया, कार्यालय में आईपैड मिनी अपना अधिकार बढ़ाने लगा, साथ ही लम्बे निरीक्षणों में और वाहन में भी उसका उपयोग करने लगा।

एक बात जो सर्वाधिक प्रभावित कर गयी, वह थी लगभग तीन गुनी बैटरी, बिना एक बार भी चार्ज किये हुये लगभग १५ घंटे। साथ में चार्जर ले जाने की आवश्यकता समाप्त हो गयी। अब एक तिहाई से भी कम भार में तीन गुनी से भी बैटरी, धीरे धीरे उस पर मन डोलने लगा। बहुधा घर में भी उसे उपयोग में लाने लगा, कहीं कोने में चुपचाप, बिटिया से आँँख बचा कर, घंटे भर के लिये।

बस दो समस्यायें हैं, एक तो स्क्रीन पर टाइप करने से टाइपिंग की गति बहुत कम होने लगती है, उतनी नहीं रहती है जितनी एक भौतिक कीबोर्ड में। जब सोच समझ कर लिखना हो तो वह गति अधिक महत्व नहीं रखती, पर जब विचारों का प्रवाह गतिमय हो तो ऊँगलियों को भी और अधिक थिरकना पड़ता है। उसे एक हाथ से पकड़कर दूसरे हाथ से टाइप करने में बायाँ हाथ थोड़ा थकने लगता है और केवल एक हाथ के प्रयोग से टाइपिंग की गति आधी हो जाती है। दूसरा यह कि कीबोर्ड स्क्रीन पर आ जाने से कार्य करने के लिये क्षेत्रफल कम मिलता है और देखने में थोड़ी असुविधा होने लगती है। संभवतः यही दो बिन्दु प्रमुख थे जब टैबलेट के ऊपर वरीयता देकर मैकबुक एयर को खरीदा था।

थोड़ी सुविधा और थोड़ी असुविधा के साथ आईपैड के प्रयोग में मिलाजुला अनुभव हो रहा था। जब तनिक सुविधाभोगी प्रयोग हो तो आईपैड मिनी, जब तनिक गतिमय लेखन हो तो मैकबुक एयर। मेरे इस व्यवहार से सर्वाधिक अड़चन बिटिया को होने लगी। यद्यपि मैकबुक एयर का प्रयोग करते हुये उसे भी कई गेम उस पर अच्छे लगने लगे थे, पर मेरा यह व्यवहार देखकर उसे लगा कि उसके हाथ से कहीं दोनों ही न निकल जायें, जब नहीं तब पिताजी किसी पर भी कार्य करने लगते हैं। एक दिन हमें चेतावनी मिल गयी कि आप किसी एक का ही उपयोग करने का निश्चित कर लें, दूसरा पूरी तरह उसके लिये छोड़ दें।

किसी पुराने नशेड़ी की तरह मुझे भी आईपैड मिनी के प्रयोग में आनन्द आने लगा था। इस चेतावनी के बाद कोई न कोई उपाय ढूढ़ना आवश्यक हो चला था। एक दिन बंगलोर में भ्रमण करते समय लॉजीटेक कम्पनी की नयी खुली दुकान में जाना हुआ। आईपैड मिनी के लिये एक ब्लूटूथ कीबोर्ड देखा, बहुत छोटा और कई प्रकार से उपयोगी। लगा कि इसे लेने से उपरिलिखित दो समस्यायें सुलझ जायेंगी और आईपैड मिनी के सशक्त पक्ष भी बने रहेंगे। एक दिन बिटिया के साथ गये और जाकर वह कीबोर्ड ले आये। तब तक अनुभव नहीं था कि वह उपयोग में कैसा रहेगा? दो लाभ स्पष्ट थे, पहला वह कीबोर्ड एक कवर का भी कार्य करने लगा, उसकी बनावट बिल्कुल आईपैड मिनी से मेल खाती थी। दूसरा वह एक आधार के रूप में भी कार्य करने लगा, लम्बा और चौ़ड़ा, दोनों ही प्रकार से। अब लिखने, पढ़ने, वीडियो देखने और अन्य कार्य करने में सुविधापूर्ण आनन्द आने लगा है। आप दोनों का अन्तर चित्र में देखिये।

यह कीबोर्ड परम्परागत कीबोर्डों के आधे आकार का है। एक संशय हो सकता है कि आकार आधा होने पर टाइप करने में कठिनाई हो सकती है। हाँ, यदि आप दसों ऊँगलियों से टाइप करते हैं तो संभव है कि कई बार आपसे भूल हो जाये और आपकी ऊँगलियाँ कुछ और टाइप कर जायें। पर यदि आप मेरी तरह हैं और दो ऊँगलियों से ही देख देख कर टाइप करते हैं तो आपकी गति पहले से और अधिक हो जायेगी, क्योंकि इसमें आपको अन्य कीबोर्डों की तुलना में हाथ बहुत कम हिलाना पड़ेगा।

अभ्यास लय पकड़ चुका है और टाईपिंग की गति पहले से बीस प्रतिशत अधिक हो गयी है। बैटरी तीन गुनी और कीबोर्ड को मिलाकर भी भार मैकबुक एयर का आधा रह गया है। यदि मूल्य भी देखा जाये तो वह भी मैकबुक एयर का आधा ही है। अन्य कार्यों के बारे में तो नहीं कह सकता पर लेखन, कार्यालय, अध्ययन समेत मेरे सारे कार्यों के लिये यह पर्याप्त है। जब से इस प्रयोग में लगा हूँ, लेखन बहुत अधिक बढ़ गया है। इसका नामकरण मैंने 'मैकबुक मिनी' किया है। अब बिटिया मेरे 'मैकबुक एयर' में प्रसन्न है और मैं उसके 'मैकबुक मिनी' में।

12.6.13

खिड़की पर गिलहरी

घर की जिस मेज पर बैठ कर लेखन आदि कार्य करता हूँ, उसके दूसरी ओर एक खिड़की है। उसमें दो पल्ले हैं, बाहर की ओर काँच का, अन्दर की ओर जाली का, दोनों के बीच में लोहे की ग्रिल लगी है। दोनों पल्लों के बीच लगभग ४ इंच का स्थान है। जब कभी भी ऊपर की खिड़की खुली रहती है, नीचे के दोनों पल्लों के बीच आने जाने का रास्ता निकल आता है। बहुधा ऊपर की खिड़की खुली रहती है, हवा और प्रकाश दोनों ही आते रहते हैं। पिछले कुछ दिनों से बंगलोर में अत्यधिक वर्षा होने से ठंडक बढ़ गयी, तब खिड़की बन्द न कर, उस पर केवल एक पर्दा लगा दिया गया।

आज जब वह पर्दा ८-१० दिन बाद खोला तो उसमें एक गिलहरी के रहने का स्थान बन चुका था। पता नहीं इसके पहले वह कहाँ रह रही थी? संभवतः किसी पेड़ पर या किसी छत में निचले हिस्से में। वर्षा ने उस स्थान को गीला कर दिया होगा। बिल्ली आदि शत्रुओं से बचने के लिये वह क्या करे, तो उन दो पल्लों के बीच उसने अपना अस्थायी घर बना लिया। सूखी घास-फूस के कई टुकड़े लाकर उन्हें वृत्ताकार बिस्तर के रूप में सजा दिया है, एक रस्सी के रेशों को अपने छोटे छोटे दाँतों से निकाल कर एक हल्का गद्देदार आकार दे दिया है। एक बड़ा ही सुरक्षित, व्यवस्थित और विश्रामयुक्त स्थान का निर्माण कर दिया।

अब दुविधा मेरी थी। सर्वप्रथम आश्चर्य इस बात पर हो रहा था कि इतनी छोटी सी गिलहरी और इतनी व्यवस्थित बुद्धि, प्रयासरत श्रम और सार्थक निष्कर्ष। वह आधा घर बना चुकी थी और शेष के लिये दौड़ भाग कर रही थी। मैं सहसा सामने खड़ा था। एक मनुष्य की दो आँखें उसे देख रही थीं। ऐसा नहीं हैं कि मनुष्य से उसका व्यवहार सर्वथा नया है, उसके अनुभव और उसके पूर्वजों द्वारा सुनायी हुयी कहानियों में मनुष्य की छवि बहुत अच्छी तो नहीं होगी। वह स्तब्ध सी मुझे देख रही थी, हम दोनों के बीच में एक काँच का अन्तर था। दूसरी ओर से जाली से छनती हवा गिलहरी के रोयें हिला रही थी। एक अजब सा संवाद था, निर्दयी मनुष्य के हाथ और उसके घर के बीच एक चटखनी का अन्तर था। बेघर और अर्धनिर्मित घर के बीच १० दिन का श्रम था। सहृदय मनुष्य और गिलहरी के सुरक्षित भविष्य के बीच खिड़की पर खटकने वाला एक घोंसला था।

अब किस अन्तर को मनुष्य हटायेगा। देखा जाये तो वह स्थान मेरा था, प्रभात में जब प्रथम किरण आती है, जब भी सुवासित पवन बहती है, वह खिड़की ही प्रकृति से मेरा सम्पर्क स्थापित करती है। एक छोटा सा घोंसला, आपको खटक सकता है। मैं उस खिड़की पर अपना अधिकार माने बैठा था। दस दिन से वह स्थान उपयोग में न आने से गिलहरी उसे सुरक्षित मान बैठी थी और वहाँ अपना घर बनाने लगी थी।

दुविधा गहरी थी और निपटानी आवश्यक थी। आप कह सकते हैं कि मैंने दस दिन की ढील क्यों दे दी, यही कारण रहा कि गिलहरी ने अपना घर बना डाला। यदि मैं नियमित रूप से खिड़की खोलता रहता तो संभवतः यह स्थिति उत्पन्न न होती। मेरी ढील मेरा दोष है, गिलहरी का अज्ञान उसका दोष है। किसका दोष गाढ़ा है, कौन निर्णय करेगा? इस समस्या का क्या हल निकलेगा, किन सिद्धान्तों के आधार पर निकलेगा?

प्रमुख सिद्धान्त प्रकृति का आधार लिये है। मैं और गिलहरी, दोनों ही प्रकृति के अंग हैं। मेरे लिये मैं महत्वपूर्ण हूँ, गिलहरी के लिये वह स्वयं। इस विषय में गिलहरी के पूरे अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ था और मेरे लिये प्रभात में खटकने वाली दृष्टि। गिलहरी को होनी वाली हानि मुझे होने वाली हानि से बहुत अधिक थी।

उस स्थान पर किसका न्यायपूर्ण अधिकार है या हम दोनों का सहअस्तित्व संभव है। यदि ऐसा है तो हम दोनों में किसे क्या स्वीकार करना होगा? यह हम दोनों पर छोड़ देना चाहिये या शक्तिशाली मनुष्य को दोनों के बारे में निर्णय लेना चाहिये? न्याय के किन पक्षों को किस प्रकार समझना है, यह चिन्तन की कई परतों को उद्वेलित कर जाता है।

यदि मैं चिन्तनहीन होता तो उसी समय शक्ति प्रदर्शन कर त्वरित निर्णय दे देता, घोंसला उठा कर फेंक देता, गिलहरी उसे समेट कर कहीं और नया घोंसला बना लेती। पर वह मुझसे न हुआ, मैं सोच में पड़ गया। अब निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ कि क्या किया जाये?

विश्व की सारी समस्याओं को देखें तो हर स्थिति में गिलहरी और मनुष्य की ही कहानी दिखती है, मेरी कहानी से पूरी तरह मिलती जुलती। शक्ति के उपासक अपना न्याय और निर्णय गिलहरी पर थोप देते हैं। उनके विरोधी गिलहरी का सहारा लेकर अपना स्वार्थ साधते हैं। गिलहरी माध्यम बन जाती है, घर से बेघर हो जाती है, शेष लड़ाई चलती रहती है।

नक्सल समस्या भी कुछ अलग नहीं है। गिलहरी के तथाकथित संरक्षक कहे जाने वाले पक्ष लड़ रहे हैं और गिलहरी अपने अस्तित्व के लिये निहार रही है, सहमी सी।

अब मैं क्या करूँ? मैं तो उसे नहीं हटा पाऊँगा। प्रभात की किरण और शीतल पवन के साथ गिलहरी की गतिविधि भी देखता रहूँगा। हो सकता है कि लेखन धर्म में थोड़ा व्यवधान पड़ जाये, स्वीकार है, पर उसे हटाने का साहस मेरे अन्दर तो नहीं है। आप ही बतायें कि गिलहरी के संग सहअस्तित्व के इस नये अध्याय को और कैसे सुमधुर बनाया जा सकता है?

8.6.13

टावर किचेन से ब्लॉगिंग

इस बार इंडीब्लॉगर के मिलने का स्थान था, यूबी सिटी। यह स्थान विजय माल्या जी का है, जी हाँ किंगफिशर वाले और यहीं पर ही उनका मुख्यालय भी है। मेरे घर से लगभग ३ किमी दूर और विस्तृत और सुन्दर कब्बन पार्क के समीप। रविवार का समय था, अघटित सा, सदा की तरह शान्त और रिक्त, यह आयोजन रोचक लगा तो नहा धोकर वहाँ पहुँच गये।

यूबी सिटी के १६वें तल में टावर किचेन नामक यह स्थान निश्चय ही रात्रिकालीन पार्टियों में चहल पहल से भरा पूरा रहता होगा, क्योंकि अपराह्न के समय ही बार आदि की तैयारियाँ विधिवत चल रही थीं। उन सब विषयों पर ध्यान नहीं जाना चाहिये था, आयोजन का विषय कुछ और था, पर एक ब्लॉगर होने के नाते पत्रकारिता के गुणों के छींटे बिना आप पर पड़े रह भी कहाँ सकते हैं। हम भी अवलोकन का धर्म निभा उस ओर बढ़ गये जहाँ से चहल पहल की टहल चल रही थी।

इस बार कुछ अधिक ही भीड़ थी, ब्लॉगरों के अतिरिक्त माइक्रोसॉफ्ट के चाहने वालों की भी भीड़ थी वहाँ पर। विषय और आयोजन ही कुछ ऐसा था। यह आयोजन माइकोसॉफ्ट और इंडीब्लॉगर ने मिलकर किया था और शीर्षक था, 'क्लॉउड ब्लॉगॉथन'। देखिये एक ही शब्द में कितने पक्ष साध लिये। क्लॉउड से तकनीकी पक्ष, ब्लॉग से लेखकीय पक्ष और ऑथन से कुछ कुछ मैराथन जैसा लम्बा चलने वाला। तीनों ही विषय, तकनीक, लेखन और अस्तित्व, मेरे प्रिय विषय हैं। बस यही कारण था अत्यधिक भीड़ का, त्रिवेणी के संगम में तीनों मतावलम्बियों की भीड़ थी, हम थे जो तीनों के संश्लेषित रूप लिये पहुँचे थे।

आशायें बहुत प्रबल थीं और लग रहा था कि चर्चा गहरी होगी। पहली आशा कि लेखन की तकनीक पर चर्चा होगी, ढह गयी। दूसरी आशा कि तकनीकी लेखन पर चर्चा होगी, ढह गयी। तीसरी आशा कि तकनीक या लेखन में से किसी के भविष्य पर चर्चा होगी, वह भी ढह गयी। अन्ततः मन्तव्य समझ आया कि यह माइक्रोसॉफ्ट के उत्पादों को ब्लॉगिंग के माध्यम से प्रचारित करने के लिये आयोजित कार्यक्रम था। क्योंकि क्लॉउड इण्टरनेट का भविष्य है, माइक्रोसॉफ्ट के क्लॉउड प्रधान उत्पाद ऑफिस ३६५ ही चर्चा के केन्द्रबिन्दु में था।

जब पहले से कार्यक्रम के आकार और आसार के बारे में कुछ ज्ञात नहीं हो तो समझने में थोड़ा समय चला जाता है। इस स्थिति में एक कोने में सुविधाजनक शैली में बैठकर सुनने से अच्छा कुछ नहीं है। अपनी उपस्थिति को अपने तक ही सीमित रखने से संवाद का बहुत अधिक प्रवाह आपकी ओर बहता है। जब बोलने की इच्छा न हो तो, समझने में बहुत अधिक आनन्द आता है। मेरे जैसे १५-२० लोग स्थान की परिधि निर्मित किये हुये थे, उसके अन्दर नये और उत्साही प्रतिभागी अपनी उपस्थिति का नगाड़ा बजा रहे थे।

तभी माइक्रोसॉफ्ट के भारतीय परिक्षेत्र के एक बड़े अधिकारी आते हैं, पहले कम्प्यूटर, फिर माइक्रोसॉफ्ट और फिर क्लॉउड की महत्ता पर एक सारगर्भित और स्तरीय व्याख्यान देते हैं। सब कुछ इतने संक्षिप्त में सुनकर अच्छा लगा और साथ ही साथ अनुभव का संस्पर्श देख रुचि और बढ़ी। पर ब्लॉग को किसलिये शीर्षक सें सम्मिलित किया गया है, उसे सुनने की प्रतीक्षा बनी रही। जब व्याख्यान अपने अंतिम चरण पर पहुँचा, तब कहीं जाकर पता चला कि ब्लॉग को उनके उत्पादों के प्रचार तक ही महत्व प्राप्त है। ब्लॉगरों को प्रचार माध्यम का एक अंग मानकर दिया गया था वह व्याख्यान। थोड़ा छली गयी सी प्रतीत हुयी अपनी उपस्थिति, वहाँ पर।

तीन तरह की प्रतिक्रियायें स्पष्ट दिख रही थीं। पहली उनकी थी जो विशुद्ध तकनीकी थे, वे सबसे आगे खड़े थे, अधिकारी को लगभग पूरी तरह घेरे, कुछ ज्ञान की उत्सुकतावश और कुछ संभावित नौकरी के लिये स्वयं को प्रदर्शित करने हेतु। उनके तुरन्त बाहर विशुद्ध ब्लॉगरों की प्रतिक्रिया थी, उनका तकनीक के बारे में ज्ञान लगभग शून्य था और वे मुँह बाये सब सुन रहे थे, सब समझने का प्रयास कर रहे थे। उनमें भी तनिक विकसित प्रतिक्रियायें उन ब्लॉगरों की थीं जिन्होने तकनीक के प्रभाव को समाज में समाते हुये देखा है, उन्हें तकनीक का ब्लॉग समाज के पास आकर प्रचार का आधार माँगना रुचिकर लग रहा था।

चौथी प्रतिक्रिया विहीन उपस्थिति हम जैसे कुछ लोगों की थी, जो शान्त बैठे इस गति को समझने का प्रयास कर रहे थे। मैं संक्षिप्त में बताने का प्रयास करूँगा कि उसकी दिशा क्या थी।

क्लॉउड इण्टरनेट के भविष्य की दिशा निर्धारित कर रहा है। प्रोग्रामों के बदलते संस्करण, फाइलों के ढेरों संस्करणों में होता विचरण, कई लोगों के सहयोग के सामंजस्य में आती अड़चन, कई स्थानों पर रखे और संरक्षित डिजटलीय सूचनाओं के सम्यक रख रखाव ने क्लॉउड को जन्म दिया है। न केवल आवश्यकता इस बात की है कि सूचनाओं का रखरखाव क्लॉउड में हो, वरन उनमें आये बदलाव और उन्हें त्वरित कार्य में लाने की एक ऐसी प्रणाली बने, जिसें श्रम, समय और साधनों की न्यूनतम हानि हो और साथ ही साथ उत्पादकता भी बढ़े।

जब दिशा ज्ञात है तो वहाँ पहुँचने की होड़ भी मची है। व्यवसाय भी उसी दिशा में जाता है जहाँ वह औरों को अपना मूल्य दे पाता है, अपनी उपस्थिति जताने के लिये उसे भी प्रचार की आवश्यकता होती है। हम ब्लॉगरों पर भी तकनीक के ढेरों उपकार हैं, बिना तकनीक तो हम व्यक्त भी नहीं थे। तकनीक जितनी व्यवधान रहित होगी, अभिव्यक्ति की पहुँच भी उतनी ही विस्तृत होगी। ब्लॉग न केवल तकनीकी, वरन सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संवादों में अपनी उपस्थिति बनाने लगा है। जो यात्रा एक प्रयोग के माध्यम से प्रारम्भ हुयी थी, उसे आज एक पूर्णकालिक माध्यम की पहचान मिल चुकी है।

यह आयोजन भले ही किसी के द्वारा अपनी बात कहने का व्यावसायिक प्रयास हो, पर एक संकेत स्पष्ट रूप से देता है कि ब्लॉगिंग को एक माध्यम के रूप में स्वीकार और उसका आधार निर्माण करने का समय आ गया है। जहाँ यह हम सबके लिये प्रसन्नता का विषय है कि हमें भी अभिव्यक्ति का श्रेय मिलना प्रारम्भ हो चुका है, साथ ही साथ यह हमारे ऊपर एक उत्तरदायित्व का बोध भी है जो हमें इस माध्यम की गुणवत्ता बढ़ाने की ओर प्रेरित करता है।

भविष्य का निश्चित स्वरूप क्या होगा, किसे पता? हमें तो राह का आनन्द ही भाता है, हमें बस चलना ही तो आता है।

5.6.13

वाकू डोकी

कुछ दिन पहले टोयोटा से दो अधिकारी मिलने आये थे, टोयोटा की एक फ़ैक्टरी बंगलोर के पास में ही है। आपसी हित के विषय पर बातचीत थी। जब विषय पर चर्चा समाप्त हो गयी और दोनों अधिकारी चले गये तो उनके विज़िटिंग कार्ड पर ध्यान गया। अंग्रेज़ी में लिखा था 'वाकू डोकी'। उत्सुकता तो उस समय जगी पर व्यस्तता के कारण उन शब्दों का अर्थ नहीं पता लग पाया। जब समय मिला तो गूगल किया, अर्थ था, रोमांच की संभावना में सिहरना और हृदय गति बढ़ जाना।

टोयोटा एक जापानी कम्पनी है और 'वाकू डोकी' एक जापानी शब्द। वाकू डोकी के माध्यम से टोयोटा का प्रयास यह प्रचारित करना है कि उनके उत्पादों में भी यही गुण उपस्थित है। अर्थ यह कि टोयाटो के उत्पादों को उपयोग करते समय आपको सिहरन होगी और हृदय की धड़कन अव्यवस्थित हो जायेगी। जापानी कारें बहुत अच्छी होती हैं और उन्होंने अमेरिका के बड़े कार निर्माताओं को विस्थापित कर, जापान का आर्थिक वर्चस्व सुनिश्चित किया है। यह भी एक सत्य है कि कार के दीवानों की दीवानगी अवर्णनीय होती है। संभव है कि अच्छी कारों और दीवानों का संगम वाकू डोकी का अनुभव कराता हो, पर यह अभी तक मुझे अनुभव नहीं हुआ, न मेरे पास जापानी कार है और न मैं कार का दीवाना हूँ।

तब इस शब्द को कैसे अनुभव किया जाये। कोई आसपास का अनुभव ढूँढा जाये। नये मोबाइल में, नई पुस्तक में, नये नगर में, हाँ एक उत्सुकता अवश्य रहती तो है पर वाकू डोकी जैसी नहीं। लक्ष्यों की पूर्ति में, किसी पुराने परिचित से मिलने में, नवोदित प्रेम में या विवाह की प्रतीक्षा में, हाँ वाकू डोकी सा कुछ कुछ तो रहता है, पर वह भी बहुत अधिक स्थायी नहीं रहता है। वाकू डोकी घटना होने के बाद उस परिमाण में नहीं रहता है जैसा घटना के पहले रहता है। अब जो अनुभव उत्पाद के पहले ही हो और उत्पाद के उपयोग के साथ धीरे धीरे ढल जाये, उस पर अपनी कम्पनी की मूल अवधारणा बनाना विक्रय विभाग का ध्येय तो हो सकता है पर वैसा ही वाकू डोकी सदा ही बना रहेगा, यह कहना बड़ा कठिन है।

वैसे देखा जाये तो कुछ खरीदने के पहले थोड़ा बहुत वाकू डोकी तो होता ही है। एक झोंका सा रहता है जो हमें कोई भी उत्पाद खरीदने के समय होता ही है। यदि मूल्य कम रहे तो कम होता है, यदि मूल्य अधिक रहा तो अधिक होता है। कार तो बहुत अधिक मूल्य की होती है अतः उसमें हुये वाकू डोकी की मात्रा और अन्तराल बहुत अधिक होता है।

किसी भी कम्पनी के विक्रय विभाग का यह लक्ष्य रहता है कि किस तरह से अपनी बिक्री बढ़ायी जाये। उसके लिये वह कुछ भी कर सकती है। मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का उपयोग किस तरह से प्रचार बनाने में किया जाता है, यह नित प्रचार देखने वालों को सहज ही समझ आ जाता है। प्रचार आदि पर काम करने वाली कम्पनियाँ इस तथ्य को विधिवत समझती हैं कि किस प्रकार मन के भावों को धीरे धीरे उभारते रहने से उस उत्पाद के प्रति वाकू डोकी के भाव निर्मित होते रहते हैं? यही कारण रहता है कि मनोवैज्ञानिक रूप से पहले से ही इतना ऊर्जामग्न होने के कारण, उस उत्पाद के प्रति वाकू डोकी के गहरे और गाढ़े भाव हमारे मन में जाग जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि केवल आर्थिक लक्ष्यों की अनुप्राप्ति में हमें वाकू डोकी की अनुभूति होती है। जब भी कोई बड़ा स्वप्न और घटना साकार होने के निकट होती है, हमें वाकू डोकी के अनुभव होते हैं। कोई बड़ा परीक्षाफल निकलने वाला हो, किसी बड़े व्यक्ति से हाथ मिलाने का क्षण हो, कोई बड़ा पुरस्कार मिलने वाला हो, वाकू डोकी के लक्षण हमारे शरीर से टपकने लगते हैं। व्यक्तिगत ही नहीं, समाज और देशगत विषयों में भी यही भाव छिपे रहते हैं।

देखा जाये तो शरीर का क्या दोष? शरीर में त्वचा है तो कंप होगा ही, हृदय है तो धड़केगा ही। शारीरिक रूप से तो वाकू डोकी का मंच तैयार है। यह तो मन है जो इन दोनों को गति देने को तैयार बैठा रहता है। यदि तनिक और सूक्ष्मता से देखा जाये तो मनुष्य के जीवन में यही वाकू डोकी के लघु लक्ष्यों का एक पंथ निर्मित है, एक के आने की प्रतीक्षा में हम श्रमरत रहते हैं और एक के जाने के बाद दूसरे की प्रतीक्षा में लग जाते हैं। यदि वाकू डोकी के क्षण जीवन में न रहें तो जीवन कितना नीरस हो जाये।

जब हम छोटे होते हैं तो छोटी छोटी बातों में हमें वाकू डोकी हो जाता है, थोड़ा बड़ा होने में अनुप्राप्ति के लक्ष्य और बड़े होते जाते हैं। धीरे धीरे श्रम और समय की मात्रा बढ़ती जाती है। जब हमें लगने लगता है कि अगले लक्ष्य के लिये हम अधिक श्रम नहीं कर सकते तो उसे मन से त्याग कर वर्तमान में स्थिर होने लगते हैं, पर औरों को देखकर वाकू डोकी की आस बनी रहती है। जो परमहंस होते हैं, उन्हें इन सांसारिक लक्ष्यों से कोई सारोकार नहीं रहता है, वे शान्त सागर से हो जाते हैं, हलचल भले ही किनारों पर बनी रहे, मन स्थिर हो जाता है, हर प्रकार के वाकू डोकी से।

अहा, अब याद आ रहा है कि कहीं इस तरह से मिलते जुलते भाव पढ़े हैं। साहित्य में कहीं निकटतम पहुँचने का बोध होता है, तो वह इस भजन का एक भाग है जिसमें कहते हैं, रोमांच कंपाश्रु तरंग भाजो, वन्दे गुरो श्री चरणारविन्दमं। रोमांच, कंप और तरंग जैसे शब्द एक साथ पहली बार आते हुये दिखते हैं, इस भजन में। देखा जाये तो भक्तिमार्ग में भी वाकू डोकी की खोज होती है, लोग कहते हैं कि शाश्वत वाकू डोकी की। भक्ति, साधना आदि के भावमयी प्रवाह में वाकू डोकी की मात्रा सांसारिक पक्षों की तुलना में कहीं अधिक होती है। कहते हैं कि सांसारिक वाकू डोकी कृत्रिम और संक्षिप्त है जबकि भक्तिजनित वाकू डोकी स्वस्फूर्त व सतत है।

आपको किससे सर्वाधिक वाकू डोकी होता है, टोयोटा ने कहा है कि उनकी कारों को ख़रीदने से यह भाव सहज आता है। देखते हैं, कब तक आयेगी वह कार और कब होगा वाकू डोकी। कोई और कम्पनी है, कहीं की भी हो, थोड़ी देर के लिये वाकू डोकी दे जाये। कुछ कुछ उस गीत की तरह, पल भर के लिये कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही।

1.6.13

विश्व जियेगा

विश्व जियेगा और गर्भरण जीते बिटिया,
प्रथम युद्ध यह और जीतना होगा उसको,
संततियों का मोह, नहीं यदि गर्भधारिणी,
सह ले सृष्टि बिछोह, कौन ढूढ़ेगा किसको,

विश्व जियेगा और पढ़ेगी अपनी बिटिया,
आधा तम भर, आधा ठहरा, कौन बढ़ा है,
फिर भी शिक्षा रहती बाधित, सीमित, सिमटी,
बर्बरता की पुनर्कल्पना, जग सिकुड़ा है।

विश्व जियेगा और सुरक्षित होगी बिटिया,
आधा तज कर, बोलो अब तक कौन जिया है,
मुखर नहीं यदि हो पाता है फिर भी आग्रह,
विध्वंसों से पूर्व सृष्टि ने मौन पिया है। 

विश्व जियेगा, परिवारों को साधे बिटिया,
अस्त व्यस्त जग का हो पालन, तन्त्र वही है,
प्रेम तन्तु में गुँथे रहेंगे घर में जन जन,
विस्तृत हृद, धारण करती सब, मन्त्र मही है,

विश्व जियेगा, अधिकारों से प्लावित बिटिया,
घर, बाहर उसके हों निर्णय, नेह भरे जो,
लड़ लड़कर हम व्यर्थ कर चुके अपनी ऊर्जा,
जुड़ने का भी एक सुअवसर इस जग को हो,

विश्व जियेगा, करे साम्य स्थापित बिटिया,
समय संधि का, नहीं छिटक कर हट जाने का,
गर्व हमारा, शक्ति हमारी, क्यों खण्डित हो,
समय अभी है, बस मिल जुल कर, डट जाने का,

विश्व जियेगा और जियेगी सबकी आशा,
तत्व प्रकृति दो, संचालित हो, स्थिर, गतिमय,
यह विशिष्टता, द्वन्द्व हमारा, न हो घर्षण,
एक पुष्प, एक वात प्रवाहित, जगत सुरभिमय।