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5.10.13

बंगलोर से वर्धा

कभी कभी लगता है कि यात्रा के बारे में क्या लिखूँ? यात्रायें सामान्य क्रियाओं की श्रेणी में आ चुकी हैं। सबकी यात्रायें एक जैसी ही होती होंगी, यदि कुछ विशेष रहता होगा तो वह है यात्रा में मिले लोग। यदि आप बातें करने में उत्सुक हैं तो आपकी हर यात्रा रोचक होगी। यदि ऐसा नहीं है और आप पूर्णतया अन्तर्मुखी हैं तो आपकी यात्राओं में कुछ विशेष कहने को नहीं होगा।

पहचानों, हैं कौन मुखी हम
मुझे अब तक समझ नहीं आया है कि मैं बहिर्मुखी हूँ या अन्तर्मुखी। कभी कभी न चाहते हुये भी सामने वाले से इस लिये भी बतिया लेते हैं कि कहीं ऐसा न लगने लगे कि मानसिकता में भी प्रौढ़ता छाने लगी है। पता नहीं युवावस्था किस अवस्था तक मानी जाती है़, पर मन यह मानने को करता ही नहीं कि हम प्रौढ़ता के द्वार खटखटा रहे हैं। जब से लिखना अधिक हो गया, सोचना अधिक हो गया, अब अधिक बतियाने से समय व्यर्थ होने का बोध होता है, लगता है कि इससे अच्छा कुछ लिख लिया होता।

क्या हम यात्राओं में सामने वाले से बस क्या इसीलिये बतियाते हैं कि समय कट जाये, या संभव है कि कुछ नया और रोचक जानने को मिल जाये। २०-३० घंटे के यात्रा में उत्पन्न बौद्धिक व मानसिक संबंधों की इच्छा तब बहुत अधिक नहीं रहती जब आपके पास स्वयं ही करने के लिये पर्याप्त कार्य हों। अपने कार्यों के बन्धनों का बोझ जब अधिक कर लें तो सारी शक्ति उसी को साधने में निकल जाती है, पर सबको लगता है कि हम अन्तर्मुखी हो चले हैं। जब हम सभी बोझों से मुक्त रहते हैं और स्वयं को अनुभव से भरने को प्रस्तुत रहते हैं तब सबको लगता है कि हम बहुर्मुखी हो चले।

मैं भी अन्तर्मुखी और बहुर्मुखी की अवस्थाओं में बहुधा उतराता हूँ, इस यात्रा में पूरी तरह से निर्धारित कर के चला था कि ज्ञान के सागर भरूँगा, इसीलिये टेड की ढेरों वार्तायें अपने आईपैड में भरकर ले गया था। अनुभव भरने को प्रस्तुत था तो बहुर्मुखी होना था, पर अनुभव पूर्वनियोजित था और स्वयं में ही व्यस्त रहना था, अतः व्यवहार अन्तर्मुखी था।

पूर्वनियोजित अन्तर्मुखी बने रहने की सारी योजना तब धूल धूसरित हो गयी जब टेड की वार्ताओं ने बतियाना बन्द कर दिया। अब तो चाह कर भी व्यस्त नहीं लग सकते थे, अतः निश्चय किया कि कृत्रिम आवरण छोड़कर बहुर्मुखी हो जाया जाये।

सामने की सीट में एक वृद्ध महिला को बिठा कर उनके सहायक उतर गये थे। सामने की सीट रिक्त होने के कारण वह वहाँ बैठकर सुस्ता रही थीं। उन्हें यह तो ज्ञात था कि उनकी सीट पक्की है पर कौन सी वह सीट है, इसकी समुचित सूचना नहीं थी उन्हें। संभवतः ट्रेन चलने के तुरन्त पहले ही उनका आना हुआ था और सामने वाला कोच का दरवाज़ा खुला होने के कारण उसमें उन्हें चढ़ा दिया गया था। मुझे भी कुछ कार्य नहीं था अतः उनसे थोड़ी देर बैठ कर बात करता रहा। उनका व्यवहार मातृवत लगा और उनके हर वाक्य में एक बार बेटा अवश्य निकल रहा था। मुझे लगा कि मुझे उनकी सीट ढूँढ़ने में उनकी सहायता करनी चाहिये पर टीटी महोदय के आने तक कुछ कर भी नहीं सकता था।

टीटी महोदय आये और टिकट देख कर बोले कि माताजी आपका तो प्रथम वातानुकूलित कोच में है, आप द्वितीय वातानुकूलित कोच में क्यों बैठी हैं? माताजी के चेहरे पर रेलवे संबंधित इतनी जटिलता न जानने के मन्द भाव उभर आये। टीटी महोदय ने बताया कि उनका कोच दो कोच के बाद है। वे अकेली थीं और एक बड़ा बैग लिये थीं। हमने टीटी महोदय से कहा कि आप जाकर उन्हें बैठा दीजिये, हम पीछे उनका सामान भिजवा देते हैं। यह कह तो दिया था पर भूल गये थे कि हम पूरी तरह से व्यक्तिगत यात्रा पर थे और कोई भी सहायक हमारे साथ नहीं था। जब अगले स्टेशन पर एक और सहयात्री आ गये तो उन्हें अपना सामान देखने को कह कर हम स्वयं ही माताजी का सामान उठाकर उनके कोच में पहुँचा आये। माताजी गदगद हो गयीं, तनिक असहज भी कि क्या बोलें? उन्हें बस इतना ही कहा कि आपने इतनी बार बेटा बोला है तो बेटे को सामान उठाने का अधिकार है।

छोटा ही सही पर एक अच्छा कार्य करके मन प्रसन्न हो गया था। टेड की वार्तायें धुल जाने का दुख पूरी तरह से जा चुका था। अब सामने वाली सीटों पर एक वयोवृद्ध दम्पति थी, जैन मतावलम्बी थे, बंगलोर में किसी धार्मिक आयोजन में भाग लेकर वापस जा रहे थे। पत्नी किसी उपवास में थीं अतः विश्राम कर रही थीं, पतिदेव को दोपहर में नींद नहीं आ रही थी और वे ऊपर की सीट पर बैठकर पुरानी फ़िल्मों के गाने सुन रहे थे। मैनें भी कुछ विशेष न करने का निश्चित किया और आईपैड मिनी पर ही अपने कार्यों को व्यवस्थित करने में लग गया। कुछ पुरानी लेख छिटकनों का संपादन भी करना था, वह भी कार्य में जोड़ लिया। सच में आनन्द आ रहा था, बाहर के सुन्दर दृश्य, ट्रेन के सवेग भागने से उत्पन्न पवन का सुन्दर नाद, पार्श्व में पुराने गीतों का कर्णप्रिय संगीत और व्यस्तताओं के कारण छूटे रह गये कार्य का व्यवस्थित संपादन। सब कुछ लयबद्ध लग रहा था। अब तक टेड वार्तायें बह जाने का दुख पूर्ण रूप से जा चुका था और उसके स्थान पर बहिर्मुखी चेतना आनन्दमयी थी।

दृश्य मगन था
कार्य करने के बाद पुनः बाहर देखने लगा। हरीतिमा से पूरा यात्रा-क्षेत्र लहलहा रहा था। नदी नालों में पानी पूरे वेग में था। पानी का मटमैला रंग इस बात का प्रमाण था कि ग्रीष्म से प्यासी धरती की प्यास बुझाकर आया है वह वर्षा जल। ऊपर हल्के स्याह रंग के बादल से भरा आसमान और नीचे गहरे हरे रंग में लिपटा धरती का विस्तार, निश्चय ही वर्षा बड़ा हो मोहक दृश्य प्रस्तुत कर रही थी।

जैन दम्पति अपने खाने का पूरा सामान लेकर आये थे और घर में बनी चीज़ों को धीरे धीरे और रस लेकर खा रहे थे। सच में देखकर अच्छा लगा कि उनके पास दो बड़े बैगों में एक बैग केवल खाद्य सामग्री से ही भरा था। न बाहर का भोजन और न ही किसी से अधिक बातचीत। प्रारम्भिक परिचय के बाद वे आपस में ही अपने संबंधियों के बारे में कुछ बतियाने लगे। उनकी निजता को सम्मान देने के भाव से मैंने भी कुछ नहीं कहा, अपने लेखन में व्यस्त हो गया। बंगलोर और वर्धा के बीच की ट्रेन यात्रा में मैंने भी बाहर का कुछ नहीं खाया था। श्रीमतीजी ने पराँठे और सब्ज़ी बनाकर दे दी थी, साथ ही साथ १० केले ले लिये थे। उसी में सारा भोजनीय कार्य हो गया।

वर्धा पहुँचने के तीन घंटे पहले, पति ने पत्नी से रुई के बारे में पूछा, पति के नाख़ून में चोट लग गयी थी और हल्का ख़ून निकल रहा था। मेरे पास एक बैण्डेज था, निकालकर दे दिया, उन्हें अच्छा लगा। अगले तीन घंटे हम एक दूसरे को अपने बारे में बताते रहे, दूसरे के बारे में जानते रहे, स्नेहिल भाव से। वर्धा पहुँचने पर हमने उनसे विदा ली और उतर गये।

छोटे छोटे कार्यों की प्रसन्नता में हमारी यात्रा का प्रथम चरण बीत गया। भले ही पूर्वनियोजित यात्रा न हो पायी हो, भले ही अन्तर्मुखी यात्रा न हुयी हो, भले ही पूरी तरह बहिर्मुखी यात्रा भी न हुयी हो, पर यात्रा सरलमुखी थी, सहजमुखी थी।

चित्र साभार - हिन्दू

16.7.11

आप उनको याद आयेंगे

जिन स्थानों पर आपका समय बीतता है, उसकी स्मृतियाँ आपके मन में बस जाती हैं। कुछ घटनायें होती हैं, कुछ व्यक्ति होते हैं। सरकारी सेवा में होने के कारण हर तीन-चार वर्ष में स्थानान्तरण होता रहता है, धीरे धीरे स्मृतियों का एक कोष बनता जा रहा है, कुछ रोचकता से भरी हैं, कुछ जीवन को दिशा देने वाली हैं। स्मृतियाँ सम्पर्क-सूत्र होती हैं, उनकी प्रगाढ़ता तब और गहरा जाती है जब उस स्थान का कोई व्यक्ति आपके सम्मुख आकर खड़ा हो जाता है।

एक स्थान पर स्थायी कार्यकाल न होना, मेरे जैसे कई व्यक्तियों के लिये एक कारण रहता है, उस स्थान का यथासंभव और यथाशीघ्र विकास करने का, पता नहीं भविष्य में वहाँ पर आना हो न हो। सुप्त सा कार्यकाल बिताने का क्षणिक विचार भी स्वयं को दिये धोखे जैसा लगता है। तीन-चार हजार कर्मचारियों की व्यक्तिगत और प्रशासनिक समस्याओं को हल करने का दायित्व आप पर होने से, कई बार आपसे वह न्याय और सहायता भी हो जाती है, जिसका आपके लिये बहुत महत्व न हो पर वह कर्मचारी उसे भुला नहीं पाता है। उसका महत्व आपको तब पता चलता है जब कई वर्ष बीतने के बाद भी, सहसा वह व्यक्ति आपके सामने खड़ा हो जाता है।

आत्मकथा लिखने का विचार अभी नहीं है, पर अवसर पाकर स्मृतियाँ मन से निकल भागना चाहेंगी, संवाद-क्षेत्रों में अपना नियत स्थान ढूढ़ने के लिये। यह भी आत्मकथा नहीं है, बस एक साथी अधिकारी से बातचीत के समय ये दो घटनायें सामने आयीं तो उसे आपसे कह देने का लोभ संवरण न कर पाया।

एक व्यक्ति कार्यालय खुलने के दो घंटे पहले से आपके कार्यालय के बाहर बैठे प्रतीक्षा करते हैं, आपके आने की। आने का कोई कारण नहीं, इस नगर में किसी और कार्यवश आये थे, ज्ञात था कि आप यहाँ हैं अतः मिलने चले आये। अपने गृहनगर की प्रसिद्ध मिठाईयाँ आपको मना करने पर भी सयत्न देते हैं, पुरानी कुछ घटनाओं को याद करते हैं औऱ अन्त में आपके लिये मुकेश का एक गीत गाकर सुनाते हैं, अपनी मातृभाषा की लिपि में लिखा हुआ। आप किसी नायक की तरह विनम्रता से सर झुकाये सुनते हैं, आपके व्यवहार ने उस व्यक्ति को एक नया जीवन दिया था 7-8 वर्ष पहले।

एक महिला अपने पुत्र के साथ आपसे मिलने आती है, 7-8 वर्ष पहले की गयी आपकी सहायता से अभिभूत। साथ आये पुत्र के विवाह का निमन्त्रण-पत्र आपको देती है। आपकी आँखें यह सुनकर नम हो जाती हैं कि वह प्रथम निमन्त्रण-पत्र था, आप संभवतः इस तथ्य को पचा नहीं पाते हैं कि आपकी कर्तव्यनिष्ठा में की गयी एक सहायता आपको देवतुल्य बना देती है।

यह दोनों घटनायें मेरी नहीं हैं पर जब भी पुराने कार्यस्थल के कर्मचारियों से बातचीत होती है तो उनके स्वरों में खनकती आत्मीयता और अधिक संबल देती है कि कहीं किसी की सहायता करने का कोई अवसर छूट न जाये। अधिकार के रूप में प्राप्त इस महापुण्य का अवसर, पता नहीं, फिर मिले न मिले।

बहते जल में निर्मलता होती है। यह हो सकता है कि यदि एक स्थान पर अधिक रहता तो भावों की नदी को निर्मल न रख पाता। एक असभ्य गाँव के लिये न बिखरने की और एक सहृदय गाँव के लिये विश्वभर में बिखर जाने की गुरुनानक की प्रार्थना, भले ही मुझे क्रूर लगती रही, भले ही बार बार घर समेटने और बसाने का उपक्रम कष्टकारी रहा हो, पर यही दो घटनायें पर्याप्त हैं गुरुनानक की प्रार्थना को स्वीकार कर लेने के लिये।