कोई आपसे पूछे कि आप किसी विशेष समय कहाँ पर थे, स्मृति पर जोर अवश्य डालना पड़ेगा पर आप बता अवश्य देंगे। आप यदि स्वयं याद नहीं रखना चाहते तो मोबाइल का जीपीएस आपका पूरा भूगोल आपको बता देगा, कब कहाँ पर थे और कितने समय के लिये थे। हर हिलने डुलने योग्य वस्तुओं में हमने ट्रैकर लगा रखा है, पार्सेल, ट्रेन, सैटेलाइट, ग्रह, हर किसी की वर्तमान स्थिति हमें पता चल जाती है, वह भी पूरी निश्चितता से।
विज्ञान ने जहाँ निश्चितता की ओर इतनी लम्बी छलांग मारी है, तो आप भी शीर्षक पर आश्चर्य करेंगे। जैसे जैसे हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हैं, अनिश्चितता बढ़ती जाती है। एक ग्रह की स्थिति हम सैकड़ों वर्ष पीछे से लेकर सैकड़ों वर्ष आगे तक बता सकते हैं पर सूक्ष्मतम कण की स्थिति बताने में अनिश्चितता आ जाती है।
प्रकाश भी एक प्रकार के सूक्ष्मकणों से बना है, जिन्हें फोटॉन कहते हैं। ये भारहीन कण हैं और इनमें केवल ऊर्जा ही होती है। ये जहाँ भी गिरते हैं, अपनी ऊर्जा स्थानान्तरित कर नष्ट हो जाते हैं। उस ऊर्जा से एक दृश्य तरंग उत्पन्न होती है जिसकी सहायता से हम उस वस्तु को देख पाते हैं। वही ऊर्जा ऊष्मा में भी परिवर्तित हो उस वस्तु का तापमान भी बढ़ा देती है। अन्य सूक्ष्मकण, जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन आदि का आकार इतना कम होता है कि वे फोटॉन के समकक्ष हो जाते हैं। जैसे ही फोटॉन उन पर पड़ते हैं, उनकी स्थिति तो पता चल जाती है पर ऊर्जा स्थानान्तरित हो जाने के कारण उसका संवेग (गति का मापक) बदल जाता है।
कुछ सिद्धान्त सार्वभौमिक होते हैं, अनिश्चितता का सिद्धान्त भी उनमें से एक है। एक छोटे से कण से लेकर यह पूर्ण प्रकृति पर आच्छादित है। यदि वृहत्तर दृष्टिकोण से देखा जाये तो कोई भी अनिश्चितता उपरिलिखित तीन कारणों से ही आती है, सीमित क्षमता के कारण, तन्त्र में संलिप्तता के कारण और द्वन्द्व के कारण। निर्णय इन तीनों अनिश्चितताओं से प्रभावित होते हैं और बहुधा उल्टे हो जाते हैं। किसी के बारे में समुचित ज्ञान होने के बाद भी हमारे निर्णयों में स्पष्टता इसीलिये नहीं आ पाती क्योंकि हम स्वयं भी उसमें लिप्त होते हैं। हमारा लिप्त होना निष्कर्षों को वैसे ही बदल देता है जैसे कि फोटॉन किसी कण का संवेग। निर्लिप्त होकर निर्णय लेना तो तब हो पायेगा जब हमें ज्ञात होगा कि हमें निर्लिप्त होकर निर्णय लेना होगा अन्यथा उसमें अनिश्चितता आने का भय है। एक बार निर्लिप्त हो भी गये पर किस घटना को तथ्यात्मक रूप में लें, किसे भावनात्मक रूप में लें, किसे भौतिकता से नापे किसे आध्यात्मिकता से नापें। किसी भी घटना को उठा कर देख लें, किसी भी निर्णय को परख लें, अनिश्चितता के तीन स्तरों पर उसमें कुछ न कुछ शेष रहा होगा।
अनिश्चितता घातक क्यों है? यह तब तक घातक नहीं है, जब तक हम निश्चित हैं कि हमारी समझ में अनिश्चितता है। यह घातक तब हो जाती है जब हमारा विश्वास अनिश्चितता को मानने से मना कर दे। निश्चितता का विश्वास दंभ जगाता है और उसी में हम डूबे रहते हैं, बिना कारण जाने। जब ज्ञात होता है कि हम अनिश्चितता की परिधि में हैं तो बदलाव की संभावना भी बनी रहती है, वह लचक भी बनी रहती है जो जीवन जीने के लिये आवश्यक है।
तीन प्रश्न बहुत ही सहज उठ सकते हैं। पहला यह कि यदि किसी विषय में हमें पूर्ण ज्ञान नहीं है या हमारी क्षमता नहीं है कि पूर्ण ज्ञान जाना जा सके, तो क्या उस विषय में निर्णय लेना या चिन्तन करना बन्द कर दिया जाये। बिल्कुल ही नहीं, जिस समय जितना ज्ञान आगे बढ़ने को पर्याप्त है, उसी आधार पर बढ़ा जा सकता है पर इस मुक्त मानसिकता से कि राह में जो भी अनुभव मिलेगा उसे हम संचित ज्ञान का अंग बनायेंगे। संभवतः यही कारण है कि लोग अन्त तक भी सीखने की लालसा में बने रहते हैं, क्योंकि पूर्णज्ञान तो कहीं है भी नहीं। यदि ऐसा है तो कपाट बन्द कर जीवन क्यों जिया जाये?
तीसरा यह कि कब पता चले कि हमें भौतिकता में जीना है या कब आध्यात्मिकता में? कब कल्पना में जियें और कब उसे शब्दों में उतार दें? जो निर्णय स्वयं को शरीर मानकर लिये हैं, मानसिक और बौद्धिक स्तर में उनका क्या प्रभाव होगा? यह प्रश्न हर स्तर पर उठता है कि हम क्या हैं, स्थूल या तरंग? स्वयं को एक ओर मानने से दूसरी ओर पथच्युत हो जाने का भय बना रहता है। यह अनिश्चितता तो सदा ही बनी रहेगी, प्रकृति ने हमें बनाया ही ऐसा है। हम उड़ना चाहते हैं तो याद आता है कि हममें भार है, सुख में अधिक डूब जाते हैं तो पता चलता है कि अपने दुख का कारण भी साथ लिये डूबे हैं। यही तो जीवन का द्वन्द्व है, यही अनिश्चितता है, यही प्रकृति की गति है और उसमें बिद्ध यही हमारी मति है।
हमें तो अपनी अनिश्चितता में डोलने में भी सुख मिलता है, आप कहीं ऐंठे तो नहीं बैठे हैं?