Showing posts with label शरीर. Show all posts
Showing posts with label शरीर. Show all posts

20.2.13

शरीर से मिली शिक्षा

बसन्त बाबा के त्योहार पर सब मदनोत्सव में डूबे थे, कुछ पक्ष में, कुछ विपक्ष में और कुछ निष्पक्ष ही डूबे थे। बसन्त के आगमन ने एक खुमारी चढ़ा दी, सब आनन्द में थे। हमने भी शरीर से तनिक हिलने को कहा तो एक टका सा उत्तर मिल गया, श्रीमानजी बिस्तर पर ही पड़े रहिये, आपका खुमार यदि न उतरा हो तो सुन लीजिये कि आप बुखार में हैं। अब जब बिना हिले डुले ही शरीर गरमाया हुआ था तो व्यर्थ का श्रम कौन करे। हम पड़े रहे, छत की सफेदी निहारते रहे और परिवेश से आ रही बहुधा न सुनी जाने वाली ध्वनियों को सुनते रहे।

एक दिन पहले निरीक्षण से वापस आते ही शरीर ने हल्की सी कँपकपी के साथ यह संकेत दे दिया था कि किसी वायरस महोदय ने किला भेद दिया है, बुखार आने वाला है। रात अनिद्रा में बीती। अगले दिन एक महत्वपूर्ण बैठक में भाग लेने के लिये कार्यालय निकल तो गये पर अपराह्न लौटने पर शरीर ने झटका दे बिस्तर पर गिरा दिया। सब मदन के खुमार में और हम बदन के बुखार में, सब मस्त और हम पस्त।

दवाई दी गयी, वायरस से लड़ने के लिये एक एण्टीबायोटिक, बुखार कम करने के लिये पैरासीटामाल, एक एलर्जी कम करने की और एक एसिडिटी कम करने की। एण्टीबायोटिक प्राथमिक दवा और शेष सहयोगी। डॉक्टर साहब ने कहा कि तीन दिन तो लग ही जायेंगे, अच्छा है उसमें दो दिन सप्ताहान्त के हैं, कार्य की अधिक हानि नहीं होगी। हमने कहा हमारा तो परिचालन का कार्य है, सातों दिन चलता है, हाँ ये बात है कि सप्ताहान्त में घर से ही चल जाता है, वह अवश्य बन्द हो जायेगा। पता नहीं, वायरसों को सप्ताहान्त की कुछ कम समझ है या सरकारी अधिकारियों से कुछ अधिक शत्रुता। अब ले देकर वही दो दिन मिलते हैं जब घर के सभी सदस्य सूची बनाये बैठे होते हैं और आपको सुपरमैन बन सब कार्य निपटाने होते हैं।

सबने भरपूर सहयोग किया, कनिष्ठों ने सारा कार्यभार अपने ऊपर ले लिया। तन्त्र का होना और चलना कितना भला लगता है, विशेषकर जब आप स्वयं ही बिस्तर पर पस्त पड़े हों। घर में भी मेज पर एक थर्मामीटर, पानी की बोतल, बॉम और दवाइयाँ सजा दी गयीं। तीन दिन के लिये शरीर तैयार था लड़ने के लिये, वायरस से। हम तैयार थे, उस लड़ाई की पीड़ा झेलने के लिये।

शरीर का तन्त्र अत्यधिक विकसित होता है, उसे ज्ञात रहता है कि कौन उसे हानि पहुँचाता है और कौन उसके लिये लाभकारी है। शरीर स्वयं सक्षम है लड़ने में और शरीर का बढ़ा हुआ तापमान एक लक्षण है इस बात का कि शरीर अपने कार्य में लगा हुआ है। वायरस के प्रारम्भिक हमले में ही कँपकपी के लक्षण होना उस बढ़े तापमान के संकेत होते हैं। यह लड़ाई कोशिकाओं के सूक्ष्म स्तर पर होती है। ऐसा नहीं है कि यह लड़ाई अचानक ही हो जाये और कोई भी कोशिका लड़ने पहुँच जाये। एक विशेष प्रकार की कोशिकायें जिन्हें पॉलीमार्फोन्यूक्लियर ल्यूकोसाइट्स कहते हैं, वे ही सबसे पहले पहुँचती हैं और अधिक मात्रा में ऑक्सीडेशन कर, हाइड्रोजन पराक्साइड और हाइड्रॉक्सिल रेडिकल बनाती हैं और अन्ततः आक्रान्ताओं को मारती हैं। अब किसी भी ऑक्सीडेशन प्रक्रिया में ऊष्मा निकलना स्वाभाविक है, इसीलिये हमें बुखार आता है, हमारा तापमान बढ़ता है।

बात भी सही है, शरीर में कहीं घमासान मचा हो और हमें पता भी न चले, यह तो बहुत अन्याय होता। तापमान को अनदेखा नहीं करना चाहिये। बचपन में बुखार आता था तो कम्बल ओढ़कर लेट जाते थे, थोड़ी देर में पसीना आता था और बुखार उड़नछू। तब समझ नहीं आता था कि पसीना आ जाने से बुखार उतरने का क्या संबंध? अब लगता है, संभवतः अन्दर से लड़ाकू कोशिकाओं की गर्मी और बाहर से कम्बल की गर्मी, इसमें ही आक्रान्ता वायरस अदि के प्राण पखेरू हो जाते होंगे। धीरे धीरे बड़े हुये तो बचपन की विधि को उतना कारगर नहीं पाया, तब किसी ने एण्टीबायोटिक की महिमा बतायी। ये महाशय अच्छे बुरे, सभी प्रकार के बैक्टीरिया को बढ़ने से रोक देते हैं और विकार को सीमित कर देते हैं, जिससे आपकी लड़ाकू कोशिकाओं को अधिक श्रम न करना पड़े। पर देखा जाये तो अन्ततः आपकी अपनी कोशिकायें ही लड़ती हैं, शेष सब सहयोगी की भूमिका में ही रहते हैं।

इन तीन दिनों में कई बार तापमान बढ़ा, यदि नींद में रहे तो कोई बात नहीं पर यदि आँख खुली रही तो थर्मामीटर से तापमान अवश्य माप लेते थे। डॉक्टर की सलाह थी कि जब तापमान अधिक हो तो उसे कम करने के लिये पैरासीटामॉल ली जा सकती है। अब कितने अधिक को अधिक की श्रेणी में रखा जाये, यह समस्या थी। कहते हैं कि १०२ डिग्री के ऊपर का तापमान मस्तिष्क के लिये घातक होता है, उस समय तापमान कम करना अत्यावश्यक हो जाता है। पहले दिन हमारा अधिकतम तापमान १०१.५ डिग्री तक ही गया और मस्तिष्क भी दुरुस्त रहा, लगा कि लड़ाई तगड़ी चल रही है। थोड़ा देखे, फिर पैरासीटामॉल खा कर सो गये, उठे तो तापमान कम था, सोचा लड़ाई का क्या हुआ, ठीक से चल रही है कि मंदी पड़ गयी? उत्तर उस समय तो पता नहीं चला पर छह-सात घंटे बाद पुनः तापमान बढ़ आया, लगभग उतने समय बाद ही, जब तक पैरासीटामॉल का प्रभाव रहा। अगले दो दिनों में तापमान ९९-१०० के बीच में ही रहा, पैरासीटामाल नहीं खायी, बस पानी अधिक पिया और विश्राम किया।

शरीर तो स्थिर हो गया पर एक स्वाभाविक संशय मन में आया कि जब पैरासीटामाल ली थी, क्या उस समय लड़ाकू कोशिकायें युद्धरत थीं या वो भी ठंडी पड़ गयी थीं, जैसे रुस की सर्दियों में जर्मनी की सेनायें। उत्तर के लिये जब संबंधित मेडिकल साहित्य पढ़ा तो तीन प्रमुख बातें पता लगीं। विज्ञ इस पर अधिक प्रकाश डाल पायेंगे पर उल्लेख प्रासंगिक है। पहला, शरीर का बढ़ा तापमान स्वस्थ संकेत हैं और जब तक १०२ के नीचे रहे और अधिक समय के लिये न रहे, पैरासीटामॉल के उपयोग की आवश्यकता नहीं है। दूसरा, पैरासीटामॉल लड़ाकू कोशिकाओं के कार्य को बाधित करता है, बैक्टीरिया को मारने वाले अवयव के उत्पादन की प्रक्रिया क्षीण करता है, या संक्षेप में कहें कि शरीर की प्राकृतिक रक्षा पद्धति में हस्तक्षेप करता है। तीसरा, बढ़ा हुआ तापमान आक्रान्ता की शक्ति को कम करता है, पैरासीटीमॉल से यह तापमान कम होते ही उन्हें और बल मिलता है और बीमारी की अवधि कम होने के स्थान पर बढ़ जाती है।

अब शोधकर्ता और विशेषज्ञ चाहे जो कहें, हमें अधिक तापमान सहन नहीं हो पाता है। हम तो तुरन्त ही पैरासीटामॉल खाकर युद्धविराम का संकेत दे देते हैं, अब इस समय का उपयोग शत्रुपक्ष सशक्त होने में लगाये या उसके लिये हमारा सुरक्षा तन्त्र कितना हल्ला मचाये। ध्यान से देखिये तो न जाने कितने सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक संदर्भों में हम यही तो कर रहे हैं, गले के नीचे पैरासीटामॉल उतार लिये हैं और आँख बन्द कर सो गये हैं, उन स्थितियों में भी, जहाँ तापमान सहन करना हमारी क्षमता की सीमाओं में था।