7.5.11

विश्व बंधुत्व

बहुत पहले बीटल के एक सदस्य जॉन लेनन का एक गीत सुना था, शीर्षक था 'इमैजिन'। बहुत ही प्यारा गीत लगता है, सुनने में, समझने में और कल्पना करने में। भाव वसुधैव कुटुम्बकम् के हैं, सीमाओं से रहित विश्व की परिकल्पना है, वर्तमान में ही जी लेने को प्राथमिकता है, लोभ और भूख से मुक्त समाज का अह्वान है, जीवट स्वप्नशीलता है और उसके आगमन के प्रति उत्कट आशावादिता है।

जीवन का सत्य आदर्श की ओर निहार तो सकता है पर उसे स्वयं में बसा लेना सम्भव नहीं हो पाता है। कोई सीमायें न हों, मनुष्य का विघटनप्रिय मन इस उदारता को पचा न पाये सम्भवतः, पर सीमायें सांस्कृतिक शूल बन हृदय को सालती न रहें, इसका प्रयास तो किया ही जा सकता है।

धारा में मिल हम अपना व्यक्तित्व तिरोहित नहीं कर सकते हैं, वह बना रहे और उसकी पहचान भी बनी रहे। सीमाओं का निरूपण इसी तथ्य से ही प्रारम्भ हो जाता है। धीरे धीरे सीमायें सामुदायिक स्वरूप ले लेती हैं, बढ़ती जाती हैं, सबसे परे, होती हैं मनुष्य की ही कृति, पर इतनी बड़ी हो जाती हैं कि उन्हें पार करने में मनुष्य को 'इमैजिन' जैसी भावनात्मक पुकार लगानी होती है।

क्या आपको अच्छा नहीं लगेगा कि आप एक ऐसे विश्व में रहें जहाँ सब एक दूसरे के लिये जीने को कृतसंकल्प हों, जहाँ आँसुओं को निकलते ही काँधे मिल जाते हों, जहाँ कोई भूखा न रहे, जहाँ कोई विवाद न हो, जहाँ कोई रक्त न बहे। चाह कर भी ऐसा संभव नहीं होता है, मानसिक व आर्थिक भिन्नता बनी ही रहती है। कहीं भिन्नतायें मुखर न हो जायें, इसीलिये सीमायें खींच लेते हैं हम। धीरे धीरे सीमाओं से बँधी संवादहीनता विषबेल बन जाती है और विवाद गहराने लगता है। पता नहीं, विवाद कम करने के लिये निर्मित सीमायें विवाद कम करती हैं कि बढ़ा जाती हैं।  

समाज को सम्हालने के लिये बनायी गयी व्यवस्था को सम्हालना समाज को असहनीय हो गया है। आडम्बरों, क्रमों और उपक्रमों में कस कर बाँध दी गयी व्यवस्था असहाय है, संचालक उत्श्रंखल हैं, सर्वजन त्रस्त हैं। हमारी भिन्नता से होने वाले घर्षण से हमें बचाने के लिये निर्मित व्यवस्थायें उससे सौ गुनी अधिक पीड़ा बरसा रही हैं, सर्वजन द्रवित हैं। हम सब अपनी भिन्नता से बहुत ऊपर उठ गये हैं, सब समान हैं, पीड़ा ने सब अन्तरों को समतल कर दिया है, दूर दूर तक कोई भी झुका नहीं दिखायी देता है, कोई भी उठा नहीं दिखायी देता है, सभी निश्चेष्ट हैं, पहले भिन्न थे, अब छिन्न-भिन्न हैं।

हम धरती पर आये, हम स्थापित थे। मनुष्यमात्र भर होने से हमें आनन्द-प्राप्ति का वरदान मिला था। स्वयं को अनेकों उपाधियों में स्थापित करने के श्रम में उलझा हमारा व्यक्तित्व सदा ही उस आनन्द से दूर होता गया जो हमसे निकटस्थ था। प्रथम अवसर से ही मनुष्य बनकर रहना प्रारम्भ करना था हमें, हमने उस मनुष्य से अधिक उसकी उपाधि को ओढ़ना चाहा, हमने विघटन की व्याधि को ओढ़ना चाहा। मनुष्य बन रहना प्रारम्भ कर दें, 'इमैजिन' सच होने लगेगा।

कुछ नहीं तो अपने पड़ोसी से ही कुछ सीखें हम, सीमायें तो हैं पर उसका स्वरूप नहीं है, कोई भी वर्षों तक कहीं भी आकर रह सकता है वहाँ पर, कोई भी वहाँ से आकर धरती के स्वर्ग की सीमा में जा सकता है और वह भी सरकारी प्रयासों से, कोई भी आकर वहाँ पर किसी को मार सकता है और वह भी सगर्व। भारत में भले ही जॉन लेनन के 'इमैजिन' को सीमा में बाँध कर रख दिया जाये पर कई देश इन सीमाओं की परिभाषाओं पर विश्वास नहीं करते हैं।

78 comments:

  1. सीमायें सांस्कृतिक शूल बन हृदय को सालती न रहें, इसका प्रयास तो किया ही जा सकता है।
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    जरूर किया जाना चाहिए .... शायद इस तरह की आम जीवन से जुड़ी खास सोच की परिकल्पना बहुत कुछ बदल भी सकती है.....जॉन लेनन के इस गीत 'इमैजिन' के विषय में जानकर अच्छा लगा ...ऐसी भावनात्मक पुकार की सच में आवश्यकता है....

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  2. बहुत सुंदर गाने का ज़िक्र किया है आपने -मैंने भी सुना ...कई बार सुना ...और हर बार एक अजीब सी शांति देता है ...कहता भी है गाना ..its easy if u try ...!!

    समाज को सम्हालने के लिये बनायी गयी व्यवस्था को सम्हालना समाज को असहनीय हो गया है। आडम्बरों, क्रमों और उपक्रमों में कस कर बाँध दी गयी व्यवस्था असहाय है, संचालक उत्श्रंखल हैं, सर्वजन त्रस्त हैं। हमारी भिन्नता से होने वाले घर्षण से हमें बचाने के लिये निर्मित व्यवस्थायें उससे सौ गुनी अधिक पीड़ा बरसा रही हैं, सर्वजन द्रवित हैं।

    मनुष्य बन रहना प्रारम्भ कर दें, 'इमैजिन' सच होने लगेगा।....

    gahan soch me doob kar sunder lekh likha hai ...!!

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  3. पूरा लेख विश्व बंधुत्व की भावना से पढ़ा , और गदगद होते गए की काश ये कल्पना सच हो सकती मगर आखिरी पंक्तियों में जाकर समझा कि यह व्यंग्य है ..

    कुछ वर्ष पहले जयपुर भी एक इंसान आ बैल मुझे मार की तर्ज पर पुलिस वालों की गोली से मारा गया , शिनाख्त में पता चला कि खतरनाक आतंवादी था ... हम पडोसी से ज्यादा पीछे नहीं है !

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  4. कुछ मिट रही हैं, कुछ और मिटेंगी।

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  5. रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जब राष्ट्रवाद के बदले अंतर्राष्ट्रवाद का समर्थन किया था तो उनकी भर्त्सना की गई थी (और वह भी वसुधैवकुटुंबकम के देश में)... वे अपने समय से बहुत आगे थे...

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  6. ' प्रथम अवसर से ही मनुष्य बनकर रहना प्रारम्भ करना था हमें, हमने उस मनुष्य से अधिक उसकी उपाधि को ओढ़ना चाहा, हमने विघटन की व्याधि को ओढ़ना चाहा। मनुष्य बन रहना प्रारम्भ कर दें, 'इमैजिन' सच होने लगेगा।'

    सुन्दर सार्थक लेख,साथ में पडोसी पर तीखा व्यंग्य भी.

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  7. विश्व बंधुत्व की परिकल्पना हमारे पूर्वजों ने हजारों साल पहले की . उस सोच को आगे बढाता आलेख समग्र रूप से प्रभावित करता है .

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  8. शब्द और भावों की अनुपम अठखेली -
    सहसा मानस की ये पंक्तियाँ याद हो आयीं
    सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे अर्थ अमित अति आखर थोरे ...

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  9. @ "पता नहीं, विवाद कम करने के लिये निर्मित सीमायें विवाद कम करती हैं कि बढ़ा जाती हैं।"

    एक बेहतरीन लेख के लिए बधाई प्रवीण जी ! आपके शब्द अक्सर उद्वेलित कर जाते हैं .........

    बंटवारों से शांति कभी नहीं आएगी , इतिहास भी यही कहता है !

    जिन्हें बचपन से ही अपनी सुरक्षा के लिए अपनी खाल में कांटे उगाना सिखाया गया हो वे क्यों मानने लगे कि हमें घर के बड़ों से ही, गलत शिक्षा मिली थी सो इन बबूलों से गुलाबों की आशा रखना व्यर्थ ही है यह हम लोगों को अभी और कष्ट देंगे !

    अब तो एक ही उम्मीद रखें कि आने वाले समय में अच्छी पौध का निर्माण हो उसके लिए विकसित मस्तिष्क और शिक्षित माता पिता की आवश्यकता होगी ! शायद हमारे बच्चे, आदिम बुद्धि त्याग, सस्नेह साथ रहना सीख लें..

    दुआ करते हैं कि वह दिन जल्दी आये !

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    1. Anonymous26/9/14 14:27

      All are Actor Roll Does Not Match Anybody

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  10. song ie really nice and meaningful like your post...

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  11. विश्व विचित्र है. जॉन लेनन भी कहाँ बच पाए?
    दुःख सबको तोड़ता भी है और जोड़ता है. सीमाएं सबको पृथक करती हैं.
    पर कितना अच्छा होता गर सब अपनी-अपनी सीमाओं में रहते और दुःख सबको माँज सकता.

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    1. Anonymous26/9/14 14:35

      Without sadguru this is impossible .हवा किसी के साथ भेद भाव नही करती जल कभी किसी के साथ भेदभाव नही करता bs itna jan lo

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  12. REAL और IMAGINATION का गंभीर द्वंद्व. संदर्भों के साथ परिभाषा और व्‍याख्‍या दोनों बदल जाती है. संयत विचार कितने मर्मभेदी हो सकते हैं, उसका अच्‍छा उदाहरण है यह पोस्‍ट.

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  13. -सार्थक आलेख

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  14. कुछ देश भले ही सीमाओं की परिभाषा नहीं मानते हों और एक दूसरे पर दादागिरी करते रहते हों, आतंक फ़ैलाते रहते हों...

    पर जो देश सीमाओं में रहते हैं और जो सीमाएँ बड़ाना भी नहीं चाहते, उन देशों को भीरु देश समझ लिया जाता है क्यूँकि वे अपने पड़ौसी देश की किसी भी उद्दंडता पर केवल चिल्लाते रहते हैं, और सीमाओं का हवाला देकर विश्वबंधुत्व का गान करते रहते हैं।

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  15. यह वीडियो मैंने पहली बार देखा. नील डायमंड, जिम रीव्स के ज़माने में लौटा ले गया संगीत... इसे देख-सुनकर एक अन्य गीत की भी याद आई- 'वो सुबह कभी तो आएगी..' (राजकपूर-माला सिन्हा)
    :)

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  16. प्रवीण जी, मैं तो आपकी लेखनी का कायल होता जा रहा हूँ... एक बार फिर से बहुत ही बेहतरीन तरीके से बात रखी आपने...

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  17. kalpna hai to sach hoga ... khoobsurat geet ka zikra kiya

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  18. जो देश सीमाओं को नहीं मानते हैं क्या वे अपने दरवाजे भी दूसरों के लिये खुले रखते हैं?

    प्रणाम

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  19. प्रत्‍येक शब्‍द में गहन भावनाओं का समोवश ... सार्थक प्रस्‍तुति ।

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  20. बहुत अच्छा लगा यह आलेख।
    पता नहीं यह कोटेशन इस आलेख के साथ फ़िट बैठता है या नहीं, पर इसे उद्धृत करने का मन कर गया,
    तर्क, आप को किसी एक बिन्दु "क" से दूसरे बिन्दु "ख" तक पहुँचा सकते हैं। लेकिन कल्पना आप को सर्वत्र ले जा सकती है।

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  21. "भारत में भले ही जॉन लेनन के 'इमैजिन' को सीमा में बाँध कर रख दिया जाये पर कई देश इन सीमाओं की परिभाषाओं पर विश्वास नहीं करते हैं।"

    एक सुन्दर परिकल्पना को बहुत चतुराई से करारा व्यंग का माध्यम बनाया आपने । बहुत खूब ।

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  22. बहुत अच्छा लगा यह आलेख...प्रवीण जी

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  23. रूमानियत भरी, कविता जैसी आदर्शवादी पोस्‍ट। बातें और आशाऍं तो सब सही हैं किन्‍तु कम्‍बख्‍त इस 'आदमी' का क्‍या कीजिए जो 'अहम्' के टापू से उतरने का तैयार ही नहीं। 'विवेक' कहता है - आपकी बात फौरन मान ले और बुध्दि कहती है - नरासमझी की उतावली मत कर।

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  24. ‘क्या आपको अच्छा नहीं लगेगा कि आप एक ऐसे विश्व में रहें जहाँ सब एक दूसरे के लिये जीने को कृतसंकल्प हों,’

    अब आस बंधी है, ओसामा जो मारा गया :)

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  25. विश्व बंधुत्व के उत्तम भाव से रची पोस्ट.

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  26. सुन्दर सार्थक लेख,साथ में पडोसी पर तीखा व्यंग्य भी|धन्यवाद|

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  27. कई देश इन सीमाओं की परिभाषाओं पर विश्वास नहीं करते हैं।......उनमे से एक अमरीका भी है

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  28. सच कहते हैं, विवाद कम करने के लिये निर्मित सीमायें विवाद बढ़ा जाती हैं। विडम्बना यह नहीं कि हम जानते नहीं, विडम्बना यह है कि हम पढ़ा हुआ किताबों में ही बंद कर उठ जाते है।
    उत्तम भावों से भरे इस आलेख हेतु आभार।

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  29. समाज को सम्हालने के लिये बनायी गयी व्यवस्था को सम्हालना समाज को असहनीय हो गया है। आडम्बरों, क्रमों और उपक्रमों में कस कर बाँध दी गयी व्यवस्था असहाय है, संचालक उत्श्रंखल हैं, सर्वजन त्रस्त हैं। हमारी भिन्नता से होने वाले घर्षण से हमें बचाने के लिये निर्मित व्यवस्थायें उससे सौ गुनी अधिक पीड़ा बरसा रही हैं, सर्वजन द्रवित हैं..

    बहुत अच्छी पोस्ट ..विचार करने योग्य

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  30. बहुत बढ़िया पोस्ट.
    कहने-सुनने में यह एक आदर्श स्थिति रहेगी और जिस तरह के विश्व में हम रहते हैं उसके ज्यादातर नागरिकों को बकवास भी लगे लेकिन एक हद तक मुश्किल काम नहीं है. हर एक को खुद को बदलना ही तो है. भले ही समय लगे लेकिन अगर यह हो जाए तो क्या बात होगी. पृथ्वी से बढ़िया जगह और कहीं नहीं होगी.

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  31. sochne par majboor karatee post.......

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  32. सभी निश्चेष्ट हैं, पहले भिन्न थे, अब छिन्न-भिन्न हैं।
    बिलकुल सही बात बात कही है |
    छिन्न- भिन्न को सहेजना दुष्कर कार्य है |

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  33. I believe in "vishwa bandhutva'

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  34. Beautiful song imagine all the people singing to this.

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  35. कवि ह्रदय जाति, धर्म, देश की सीमायें नहीं मानता। वह तो पंछियों की तरह उड़ना चाहता है।
    ..सुंदर आलेख।

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  36. तबीयत थोड़ी नासाज है...इमेज़िन को इंटरसेक्ट करने की दिमाग में ताकत नहीं है...यही है मक्खनों के साथ हर वक्त रहने का दुष्परिणाम...

    जय हिंद...

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  37. सभी निश्चेष्ट हैं, पहले भिन्न थे, अब छिन्न-भिन्न हैं।
    बहुत ही अच्छी व विचारणीय पोस्ट है ये ..इस पोस्ट के साथ अगर आप अपना पसंदीदा गाना जोड़ देते ...किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार..किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार..किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार...तो इस पोस्ट में चार चाँद और लग जाता...निश्चय ही अच्छी सोच ही आज मानवता को बचा सकती है क्योकि स्थिति खतरनाक होती जा रही है...

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  38. We can just hope that this idea of universal brotherhood actually becomes a reality.

    I always enjoy reading your blog and this again a very meaningful post.

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  39. वसुधैवकुटुंबकम के नारे ने कम से कम भारत देश का कुछ भला नही किया ... सिवाए टुकड़े करने के .... क्योंकि इंसानी भाव पंचियों के भाव सा नही होता ... वैसे बिचारे पाकिस्तान का हाल तो देख ही लिया ...

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  40. दूरियां नजदीकियां बन गयी. अजाब एह इत्तेफाक है.

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  41. विश्व बंधुत्व- किस किस को समझायें..कैसे कैसे समझायें..

    सार्थक आलेख.

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  42. वाकई! हमारी अपनी बनाई सीमाएं ही हमें कहीं का नहीं छोड़तीं. काश! यह बात उन लोगों की समझ में आ पाती जो पूरी दुनिया लूटकर अपने घर में भर लेना चाहते हैं. अगर हर आदमी को अपना वजिब हक़ मिल सके तो भला बल्वे क्यों होंगे? और बहुत लोगों को अपने हक़ मिल इसीलिए नहीं रहे हैं क्योंकि कुछ अपना हक़ से बहुत ज़्यादा हड़प ले रहे हैं.

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  43. बहुत ही बेहतरीन

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  44. विश्व-बंधुत्व की भावना अच्छी है पर इतनी सारी विषमताएं ही मिलकर शायद एक विश्व बनाती हैं...समानताएं होने पर विश्व कहाँ बचेगा ?

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  45. bahut sarthak prastuti .aabhar..

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  46. मनुष्य बन रहना प्रारम्भ कर दें, 'इमैजिन' सच होने लगेगा।....



    saar yahi hai.

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  47. बिल्कुल सही... सटीक विचार

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  48. सुनना पड़ेगा ये गाना.

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  49. सार्थक लेखन के लिये बधाई !

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  50. क्या आपको अच्छा नहीं लगेगा कि आप एक ऐसे विश्व में रहें जहाँ सब एक दूसरे के लिये जीने को कृतसंकल्प हों, जहाँ आँसुओं को निकलते ही काँधे मिल जाते हों, जहाँ कोई भूखा न रहे, जहाँ कोई विवाद न हो, जहाँ कोई रक्त न बहे। चाह कर भी ऐसा संभव नहीं होता है,
    kitni sundar baate kahi ,kaash aesa ho jaaye to phir kya kahne pravin ji ,navodya ka swapn poora ho jaaye .badhiya

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    1. Anonymous26/9/14 14:22

      Without sadguru is impossible

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  51. अच्छा व्यंग ....
    धारा में बह कर भी अपनी पहचान बनाये रखने की सोच विश्वास जगाती है .....आभार!

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  52. धारा में मिल हम अपना व्यक्तित्व तिरोहित नहीं कर सकते हैं, वह बना रहे और उसकी पहचान भी बनी रहे। सीमाओं का निरूपण इसी तथ्य से ही प्रारम्भ हो जाता है। धीरे धीरे सीमायें सामुदायिक स्वरूप ले लेती हैं, बढ़ती जाती हैं, सबसे परे, होती हैं मनुष्य की ही कृति, पर इतनी बड़ी हो जाती हैं कि उन्हें पार करने में मनुष्य को 'इमैजिन' जैसी भावनात्मक पुकार लगानी होती है।

    बहुत सुंदर विवेचना, अत्यंत सुंदर गीत का बहुत ही अच्छा विश्लेषण

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  53. वसुधैव कुटुम्बकम की ओर आगे बढने का प्रयास तो किया ही जा सकता है. विश्व बंधुत्व तो भारतीय जीवन दर्शन का आधार रहा है लेकिन आज उसी देश में हम छोटे छोटे समुदायों में बंट गये हैं और अपने चारों ओर लक्ष्मण रेखा खींच ली है. यह खुशी की बात है कि कुछ देशों ने सीमाओं की दीवार तोड़ दी है, लेकिन इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है..बहुत समसामयिक और यथार्थपरक आलेख..इस दिशा में एक आवाज़ उठाने के लिये बधाई.

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  54. प्रथम अवसर से ही मनुष्य बनकर रहना प्रारम्भ करना था हमें, हमने उस मनुष्य से अधिक उसकी उपाधि को ओढ़ना चाहा, हमने विघटन की व्याधि को ओढ़ना चाहा। मनुष्य बन रहना प्रारम्भ कर दें, 'इमैजिन' सच होने लगेगा।

    शब्दशः सत्य...

    अंतिम पारा में आपने जो चिकोटी काटी.....जबरदस्त !!!

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  55. विश्र्व बेधुत्व का यह भाव शायद गीतों व कविताओं में ही संभव रह गया है ।

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  56. @डॉ॰ मोनिका शर्मा
    सब अच्छे लोगों के मन में यह पुकार कहीं न कहीं अनुनादित करती है।

    @anupama's sukrity !
    जब मनुष्य बन रहना प्रारम्भ करेंगे, विश्व बंधुत्व की परिकल्पना को आकार मिलने लगेगा।

    @वाणी गीत
    पड़ोसी से न सीखे तो अच्छा है, सब सीमायें खुलें पर आवागमन अच्छाई का ही हो।

    @Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
    काश सब सीमायें घुल जायें हमारे बंधुत्व में।

    @Kajal Kumar
    संभवतः बुखार रहने में कुछ अच्छा ही नहीं लगता है।

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  57. @Rakesh Kumar
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ashish
    वर्षों की सांस्कृतिक धरोहर रह रहकर यही कहती है हम सबसे।

    @Arvind Mishra
    मन में कहीं छिपी वैश्विक विशालता को स्वर भर मिल गया है।

    @सतीश सक्सेना
    जिस दिन सीमाओं की सीमा निश्चित हो जायेगी, हमारी प्रसन्नता असीम हो जायेगी।

    @pallavi trivedi
    बहुत धन्यवाद आपका।

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  58. @निशांत मिश्र - Nishant Mishra
    हाँ उन्हे भी मार दिया गया अन्ततः। सीमाओं से दूरियाँ न बढ़ें, इसका प्रबन्ध तो करना ही होगा।

    @Rahul Singh
    जो है और जो होना चाहिये, उसमें बढ़ता अन्तर देख कभी कभी मन भी घबराने लगता है।

    @Deepak Saini
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @Vivek Rastogi
    जो अपने में सिमट कर रहते हैं उन्हे भीरु समझ लिया जाता है, तब क्या शक्तिशाली विश्वबंधुत्व प्रचारित करेंगे?

    @Kajal Kumar
    बड़ा ही आशावादी गीत लगता है सुबह की पुकार वाला।

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  59. @Shah Nawaz
    बहुत धन्यवाद आपका, इस उत्साहवर्धन के लिये।

    @रश्मि प्रभा...
    बहुत धन्यवाद आपका, यह सच होना अब आवश्यक हो गया है।

    @अन्तर सोहिल
    अब तो उनके साथ भी यही हो रहा है।

    @सदा
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @मनोज कुमार
    कल्पना सब सीमाओं को ढक लेती है।

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  60. @अमित श्रीवास्तव
    सीमाओं का खुलना जॉन लेनन के भावानुसार हो, पड़ोसी के अनुसार नहीं।

    @संजय भास्कर
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @विष्णु बैरागी
    अहम का बोझ उठाये सब थके बैठे हैं, बोझ उतार फेंक सबको गले लगाना होगा।

    @चंद्रमौलेश्वर प्रसाद
    विघटनकारियों का ही विघटन हो।

    @shikha varshney
    बहुत धन्यवाद आपका।

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  61. @Patali-The-Village
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @नरेश सिह राठौड़
    सीमाओं का अतिक्रमण यदि हो तो इमैजिन के भावानुसार ही हो।

    @Avinash Chandra
    सीमायें न हो तो अस्तित्व खो जाता है, सीमायें होने पर भी अस्तित्व डगमगाता है।

    @संगीता स्वरुप ( गीत )
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @Shiv 
    दिशा यदि वहीं की निर्धारित हो और हर प्रयास उस दिशा में थोड़ा सा ही बढ़े, अच्छे लोगों की कमी नहीं है इस विश्व में।

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  62. @Apanatva
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @शोभना चौरे
    पीड़ा सोखनी होगी सर्वजनों की।

    @ZEAL
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @Coral
    बहुत धन्यवाद आपका, अन्ततः यही गीत सबको गाना ही पड़ेगा।

    @देवेन्द्र पाण्डेय
    कवि की कल्पना ही ऐसा सुखद विचार ला सकती है।

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  63. @Khushdeep Sehgal
    सुकून से सुनियेगा, जब भी मैं सुनता हूँ, हृदय और विशाल हो जाता है।

    @honesty project democracy
    वह गीत तो वैयक्तिक संप्रेषण है, यह गीत वैश्विक आकांक्षा।

    @Gopal Mishra
    वह सुबह कभी तो आयेगी।

    @दिगम्बर नासवा
    हम उपहास के पात्र भले ही रहे हों पर यही मन्त्र एक दिन सब गायेंगे।

    @रचना दीक्षित
    बहुत धन्यवाद आपका।

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  64. @Udan Tashtari
    जब प्यार कम हो जायेगा विश्व में तब यही एकमेव स्वर गूँजेगा।

    @सम्वेदना के स्वर
    पर है विश्वास।

    @इष्ट देव सांकृत्यायन
    सीमायें हमें ही लीलने लगती हैं, बखेड़ा हो जाये तो हो जाये, सीमायें न खिंच पायें।

    @Ratan Singh Shekhawat
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @संतोष त्रिवेदी
    सीमायें रहें पर सीमा में रहें।

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  65. @शालिनी कौशिक
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @मेरे भाव
    यही सार बिसार दिया है हम सबने।

    @mahendra srivastava
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @CS Devendra K Sharma "Man without Brain" 
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @Abhishek Ojha
    सुनकर ही आनन्द आयेगा।

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  66. @अशोक बजाज
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ज्योति सिंह
    यह स्वप्न पूरा हो, यही हम सबकी सार्थकता है।

    @निवेदिता
    यही अन्तर बनाये रखना होगा।

    @neelima sukhija arora 
    गीत का एक एक वाक्य इसी विशालता से पूरित है।

    @Kailash C Sharma
    अभी बहुत चलना है सबको, अभी बहुत चलता है।

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  67. @रंजना
    बहुत धन्यवाद आपका, सीमाओं के प्रकार में भी अन्तर हो।

    @सुशील बाकलीवाल
    कवि रह रहकर वही गीत गायेगा।

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  68. बहुत अच्छे विचार हैं. लेकिन जब भूख़ बढती है तो आदमी, आदमी नहीं रह जाता. शांति और आनंद का महत्व ही तब समझ में आटा है जब मनुष्य बुनियादी तल से ऊपर उठ जाये. ऐसा भूख़ और भ्रष्टाचार से जूझ रहे भारत में कुछ लोगों के लिए ही संभव हो सकता है. जहाँ इतनी लूट-खसोट मची हो, वहां विश्व बंधुत्व की बातें तो हो सकती हैं, इससे ज्यादा और कुछ नहीं. बहरहाल, अच्छा सोचना अच्छी बात है, इसके लिए आपको साधुवाद.

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  69. विचार त खूब निक बाटे. बाकिर इ हमनि के मति-बुद्धि में अटे तब न! विवेक के त कोठा-अटारी पर ढांक-तोप के रख देले बानिजा. खैर, जानकारी रउआ बहुत बढि़या दिहली, और जरूरी बात बतइले हनि अपना ब्लाॅग ‘न दैन्यम् न पलायनम्’ के माध्यम से.

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  70. सीमाएं हमारी समस्या भी हैं और हमारी आवश्यकता या कहें तो नियति भी । जॉन लेनन के इस मधुर गाने में बहुत ही सुंदर सपना है जीवन का, जो सच हो जाये तो मजा आ जाये ज़िंदगी का ! इस बहुत अच्छे लेख के लिए बधाई एवं शुभकामनाएँ !

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  71. @ संतोष पाण्डेय
    देखा जाये तो आदमी की भूख कृत्रिम अधिक है, प्राकृतिक कम। भूख सब न निगल जाये, बस वही सबको ध्यान देना है। आपसे सहमत हूँ कि यह कल्पना का अन्तिम छोर है।

    @ Rajeev Ranjan
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ रजनीश तिवारी
    सीमायें प्राकृतिक भी हैं और कृत्रिम भी। बस प्राकृतिक बनी रहें, शेष ढह जायें।

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