जब मन में छिपा हुआ सत्य अप्रत्याशित रूप से सामने आ जाता है, तब न कुछ बोलते बनता है और न कहीं देखते बनता है। बस अपनी चोरी पर मुस्करा कर माहौल को हल्का कर देते हैं। आप अपने घर पर हैं, चारों ओर परमहंसीय परिवेश निर्मित किये बैठे हैं, संभवतः ब्लॉग पढ़ रहे हैं। आपकी श्रीमतीजी आती हैं और चेहरे पर स्मित सी मुस्कान लिये हुये कुछ कहना प्रारम्भ ही करती हैं कि आप आगत की आशंका में उतराने लगते हैं। आप कहें न कहें पर आपका चेहरा पहले ही आपके मन की बात कह जाता है। अब चेहरा कहाँ तक कृत्रिमता ओढ़े बैठा रहेगा, जो मन में होगा वह व्यक्त ही कर देगा। अब यह देखकर श्रीमतीजी आप पर यह सत्य उजागर कर दें तो आपको कैसा लगेगा?
"मैं कुछ भी बोलना प्रारम्भ करती हूँ तो आपके चेहरे पर प्रश्नवाचक भय पहले से आकर बिराज जाता है"।
सत्य है, झुठलाया नहीं जा सकता है, बहुधा आपके साथ ऐसा ही होता होगा। जानबूझ कर नहीं पर अवचेतन में ऐसा भाव क्यों बैठ गया है, कोई मनोवैज्ञानिक ही बता सकता है। कई बार ऐसा होता है कि बात बहुत छोटी सी निकलती है, साथ में आपके राहत की साँस भी। बड़ी बात भी समझाने से अन्ततः मान जाती हैं श्रीमतीजी। पर इस भय का निवारण अभी तक नहीं हो पाया है। ऐसा क्या हो जाता है कि आप कुछ भी सुनने के पहले ही भयभीत हो जाते हैं? ऐसा क्यों लगने लगता है कि श्रीमतीजी की सारी माँगें आपको समस्याग्रस्त करने वाली हैं? परिवार में आशंकाओं के बादल कब आपके मन में झमाझम बरसने लगते हैं, कोई नहीं जानता, मौसम विज्ञान के बड़े बड़े पुरोधा भी नहीं बता सकते हैं।
संवाद पर अनेकों शास्त्र लिखे ऋषियों ने पर पता नहीं क्यों पारिवारिक संवाद को इतना महत्व नहीं दिया गया? संभवतः परिवार में जो एकमार्गी संप्रेषण होता हो वह संवाद की श्रेणी में आता ही न हो। आदेश और संवाद में अन्तर ही इस प्रतीत होती सी भूल का कारण होगा। यह भी हो सकता है कि ज्ञान पाने के लिये अविवाहित रहने की बाधा इस विषय से अधिक न्याय न कर पायी हो। विवाह न करने से जितना ज्ञान जीवन भर प्राप्त होता है उतना तो कुछ ही वर्षों का वैवाहिक जीवन आपको भेंट कर देता है। ज्ञान चक्षु शीघ्र खोलने हों, कुण्डलनी जाग्रत करनी हो तो बिना कुछ सोचे समझे विवाह कर लीजिये और यदि विवाह कर चुके हों तो अपनी धर्मपत्नी की बातों को ध्यानपूर्वक सुनना प्रारम्भ कर दीजिये।
अब इतना ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी हम श्रीमतीजी के वाक-अस्त्रों के सामने असंयत दिखायी पड़ते हैं। भय इसी बात का ही रहता है कि छोटी छोटी सी लगने वाली बातें न जाने कितनी मँहगी पड़ जायेंगी। बच्चों को भी लगने लगा है कि पिता पुरुरवा के स्तर से उतर कर हर वर्ष प्रभावहीन होते जा रहे हैं और माता उर्वशी के सारे अधिकार समेट अपनी कान्ति की आभा का विस्तार करने में व्यस्त हैं। कोई दिनकर पुनः आये और नयी उर्वशी का रूप गढ़े, पारिवारिक संदर्भों में।
एक बड़ा ही स्वस्थ हास्य धारावाहिक हम सब बैठकर देखते हैं, तारक मेहता का उल्टा चश्मा। लगता है उस धारावाहिक के दो पात्र हमारे घर में पहले से रह रहे हैं। मैं 'दयनीय जेठालाल' और श्रीमतीजी 'निर्भीक दया भाभी' बनती जा रही हैं।
हमारे तो विवाह का जो अध्याय 14 फरवरी से चला था, अब 8 मार्च पर आकर ही ठहर गया।
मेरी कहानी है, मैं स्वयं झेलूँगा पर यदि आप अपनी श्रीमतीजी को इस विषय पर कुछ गाने के लिये कहेंगे तो संभवतः आपको भी यही स्वर सुनने को मिलेगा।
मोरे सैंया मोहे बहुतै सुहात हैं,
जो परस देओ बस वही खात हैं,
न जाने काहे छोटी छोटी बात मा,
पहले से घबराय जात हैं।
डरे डरे से मोरे सैंया,
पहले तो सब सुन लेते, अब ध्यान कहाँ है तोरे सैंया।
(धुन पीपली लाइव, मँहगाई डायन)
(धुन पीपली लाइव, मँहगाई डायन)
निश्चित ही आपकी कहानी आप ही झेलेंगे मगर शुभकामनाएँ तो दे ही सकते हैं हम....एक तसल्ली रहेगी. :)
ReplyDelete@डरे डरे से मोरे सैंया,
ReplyDeleteपहले तो सब सुन लेते, अब ध्यान कहाँ है तोरे सैंया।
ध्यान सारा ब्लॉग पर है।:)
dar-asal har vyakti apni bhadas nikalna chahta hai, hum aur aap to blog likhkar ye karl lete hain to shrimati ji hum par.....nikalti hain !
ReplyDeleteमज़ा आया इस हलके फुल्के आलेख को पढ़कर .ब्लॉग्गिंग करने वालों की सच्ची कथा .
ReplyDeleteयह सीरियल तो मुझे भी पसंद है सर, पते की बात की आज की पोस्ट में.. सबकी अपनी सी..
ReplyDeleteमोरे सैंया मोहे बहुतै सुहात हैं,
ReplyDeleteजो परस देओ बस वही खात हैं,
न जाने काहे छोटी छोटी बात मा,
पहले से घबराय जात हैं....
भाभी जी के विचारों में अकाट्य सत्यता है।
.
हम तो यही समझ रहे थे की वहां 'सैंयां भये कोतवाल हैं' लेकिन अब पता चल गया कि यह घर-घर की कहानी है.
ReplyDeleteजब जब श्रीमती जी बहुत हर्षित हुई हैं,बहुत मंहगी पड़ी हैं ,उनका तो हर्ष हो जाता है ,यहां विषाद रह जाता है ।लेकिन सच तो यह है आनन्द भी इसी में है ।
ReplyDeleteप्रवीण जी,
ReplyDeleteये घर गृहस्थी के चक्कर में ज्ञान पाने का तो ऐसा है कि कभी कभी उन ऋषियों मुनियों पर दया आती है जो हिमालय चले गये ज्ञान की खोज में....यदि उन्हे सच्चा ज्ञान प्राप्त करना था तो विवाहित जीवन अपनाना चाहिए था....तब एक से बढ़कर एक ज्ञान के स्त्रोत दिखाई पड़ते।
पत्नी बाजार से ताजा सब्जी लाने को कहती और जब ऋषि महोदय झोले में हरी सब्जी की बजाय थोड़ा सा भी मुरझाया पालक ले आते तो तुरंत ही उन्हें ज्ञान की बातें सुनने को मिलती....न जाने कैसे आप दिव्यदृष्टि पाने का दावा करते हो....सब्जी खरीदते वक्त तो एक पालक का बंडल तक ठीक से देख नहीं सकते और दावा करते हो त्रिकालदर्शी होने का.... हुँह :)
और जब शाम को पत्नी कहती कि आज चार दिन हो गये बिल नहीं भरने के कारण बिजली कटे हुए, राशन पर से मिला मिट्टी का तेल भी खत्म हो गया, अब ढिबरी में तेल नहीं है, पूरे घर में अंधेरा छा गया है ऐसे में आप अपने तेज से समूचे विश्व में अलौकिक प्रकाश का दावा किस मुंह से करते हैं जबकि आपके खुद के घर में अंधेरा है :)
इस तरह की ढेरों ज्ञानवर्धक बातें जानने का बेहतरीन स्त्रोत है विवाहित जीवन :)
बहुत सुंदर पोस्ट है, एकदम मन हिलोर।
पाण्डेय जी आज तो अपने दिल की बात कह दी आपकी हिम्मत को दाद देनी पड़ेगी अच्छी पोस्ट मजा आगया
ReplyDeleteपाण्डेय जी आज तो अपने दिल की बात कह दी आपकी हिम्मत को दाद देनी पड़ेगी अच्छी पोस्ट मजा आगया
ReplyDeleteई फोटुवा जिनका साटें हैं, इनका ब्लॉग भी खुलवाईये...एक नया अनुभव रहेगा...हा हा!!
ReplyDeleteमूड और मौसम होलियाना हो रहा है, साथ में पिपलियाना फाग भी.
ReplyDeleteसब धाम बाइस पसेरी ? हम तो नहीं घबराते :)
ReplyDeleteपारिवारिक वातावरण का सही चित्रण किया है आपने.....लेकिन डर के आगे जीत वाली बात भी है क्योकि पति-पत्नी के बीच संवाद में कभी-कभी वेबलेंथ दुरुस्त नहीं भी रहने का अपना अलग ही आनंद है हाँ इतना जरूर कहना चाहूँगा की संवाद की कमियां आपसी विश्वास के आधार को प्रभावित करने की हद को ना पार करने पाये इसका जरूर ध्यान रखा जाना चाहिए......आदेश और संवाद में अन्तर को यथासंभव कम करने की कोशिस जारी रखें........
ReplyDeleteश्रीमतीजी आती हैं और चेहरे पर स्मित सी मुस्कान लिये हुये कुछ कहना प्रारम्भ ही करती हैं अभी भी स्मित, मुस्कान का चलन है यह अपने आप में एक उपलब्धि है। :)
ReplyDeleteअधिकांश भारतीय पति- पत्नियों की व्यथा को शब्द दे दिए ...
ReplyDeleteरोचक अंदाज़ में लिखी मनोरंजक पोस्ट !
कुण्डलनी जाग्रत करनी हो तो बिना कुछ सोचे समझे विवाह कर लीजिये और यदि विवाह कर चुके हों तो अपनी धर्मपत्नी की बातों को ध्यानपूर्वक सुनना प्रारम्भ कर दीजिये।
ReplyDeleteसोचा है आपके सुंदर विचार आज ज़रा उनके साथ भी बाँटें जाएँ..... :) बहुत बढ़िया
ऐसे ही ठीक है तसल्ली रखो ....हमारी शुभकामनायें साथ हैं !
ReplyDeleteबच्चों को भी लगने लगा है कि पिता पुरुरवा के स्तर से उतर कर हर वर्ष प्रभावहीन होते जा रहे हैं और माता उर्वशी के सारे अधिकार समेट अपनी कान्ति की आभा का विस्तार करने में व्यस्त हैं। कोई दिनकर पुनः आये और नयी उर्वशी का रूप गढ़े, पारिवारिक संदर्भों में... bahut khoob .
ReplyDelete"मैं कुछ भी बोलना प्रारम्भ करती हूँ तो आपके चेहरे पर प्रश्नवाचक भय पहले से आकर बिराज जाता है"
ReplyDelete....बोलने वाले को आत्ममंथन की आवश्यकता है.
मोरे सैंया मोहे बहुतै सुहात हैं,
ReplyDeleteजो परस देओ बस वही खात हैं,
न जाने काहे छोटी छोटी बात मा,
पहले से घबराय जात हैं।
यदि यह सत्य है तो फिर कोई चिन्ता नहीं ....पर इतनी सीधायत से कहाँ कोई सैंया खात हैं ? यह तो श्रीमती जी से ही पूछना पड़ेगा ...
रोचक लेखन
यह भी हो सकता है कि ज्ञान पाने के लिये अविवाहित रहने की बाधा इस विषय से अधिक न्याय न कर पायी हो।
ReplyDeleteसही बात है\वैसे इस झेलने मे कितना चिन्तन हो जाता है । मुझे तो असली चिन्तन की राह ही घर गृ्हस्ती मे लगती है। जहाँ हम जीवन के विभिन्न पहलूओं चिन्तन कर सकते हैं। आपने हास्य पुट दे कर भी बहुत गम्भीर बात कह दी। झेलना बेकार नही ग्या। बधाई।
अपने मन की सच्ची-सच्ची लिखो तो सबके मन की हो जाती है। इसका कारण यही है हम सभी कमोबेस एक ही सोच-परिवेश में जीते हैं। इसे पढ़ना सुखद रहा। श्रीमती जी को भी पढ़वाया। अच्छा लगा।
ReplyDeleteमैने एक कविता लिखी थी....
श्रीमती
प्रश्न पत्र गढ़ती रहती है
वह मुझसे लड़ती रहती है
दफ्तर से जब घर आता हूँ
वह मुझको पढ़ती रहती है।
सब्जी लाए ? भूल गये क्या!
चीनी लाये ? भूल गये क्या!
आंटा चक्की से लाना था
खाली आए! भूल गये क्या!
मुख बोफोर्स बना कर मुझ पर
बम गोले जड़ती रहती है।
मोरे सैंया मोहे बहुतै सुहात हैं,
ReplyDeleteजो परस देओ बस वही खात हैं,
बस यही सिद्धांत काफी है ।
आदेश और संवाद दोनों का परागामी होना ही हितकर है तभी द्वय पक्ष निर्भय हो सकते हैं.
ReplyDeleteहा-हा-हा
ReplyDeleteमजा आ गया, आजकी पोस्ट पढकर
ऐसा ही हम भी झेलते हैं जी, बिल्कुल जेठालाल के जैसे भाव चेहरे पर लिये हुये :)
फोन कॉल पर श्रीमति का नाम देखकर ही आशंकित मन के भाव मेरे चेहरे पर विराजमान हो जाते हैं :)
प्रणाम
प्रवीण जी बस अब एक शोध कर ही डालिये इस पर्………आखिर इस मुस्कान का राज़ क्या है? वैसे इतना कठिन विषय नही है …………हा हा हा………इसी डर मे भी तो प्रेम की अनुभूति होती है।
ReplyDeleteएगजेक्टली यही हमारे साथ(हम पत्नियों के साथ) भी होता है...जैसे ही "वो"सामने पड़ते हैं हिया काँप जाता है कि जाने अब क्या होने वाला है...मन आतंकित ,आँखें भयग्रस्त ,दिमाग आत्म रक्षा को प्रस्तुत.....
ReplyDeleteसोचती थी,यह केवल महिलाओं के साथ है...आज जाना उधर भी यही हाल है...
विषम समस्या है...इसका निवारण कैसे हो ????
Gazab.
ReplyDelete---------
क्या व्यर्थ जा रहें हैं तारीफ में लिखे कमेंट?
" विवाह न करने से जितना ज्ञान जीवन भर प्राप्त होता है उतना तो कुछ ही वर्षों का वैवाहिक जीवन आपको भेंट कर देता है। ज्ञान चक्षु शीघ्र खोलने हों, कुण्डलनी जाग्रत करनी हो तो बिना कुछ सोचे समझे विवाह कर लीजिये और यदि विवाह कर चुके हों तो अपनी धर्मपत्नी की बातों को ध्यानपूर्वक सुनना प्रारम्भ कर दीजिये।"सर नयी- नवेलियो के लिए अच्छा सुझाव दिया है आप ने !वैसे मैंने बहुतो को कहते सुना है - " जब से शादी हुयी है सारे के सारे बुद्धि...मंद ! मजे की बात आप ने बताई है ! धन्यवाद ....
ReplyDeleteकहीं पढ़ा था बैस्ट कपल के बारे में - गूंगी पत्नी, बहरा पति। जो अपने वश में है वो कर लेते हैं, कान में दर्द का बहाना और दोनों कान में रुई:))
ReplyDeleteमैं तो दोनों को एक ही इकाई मानता हूँ इसलिए द्वैत का द्वैध नहीं समझा! शुभकामनाएं !
ReplyDeleteमेरी कहानी है, मैं स्वयं झेलूँगा
ReplyDeleteसबकी अपनी - अपनी कहानी है ...सब अपनी तरह से झेलेंगे ,
हमने आपका क्या बिगाडा था? हमारी पोल यूं सरे बाजार क्यों खोल दी?:)
ReplyDeleteरामराम.
डरे-डरे की बजाय रूठे-रूठे के मोड में रहिए तो पत्नी जी मनाये-मनाए के मूड में आ जाएगी :)
ReplyDeleteरोचक अंदाज़ में लिखी मनोरंजक पोस्ट| धन्यवाद|
ReplyDeleteअरे, ये कैसा डारावना आदमी बनाया...
ReplyDeleteहाँ पाण्डेय जी, बहुत सुन्दर व चटपटी अभिव्यक्ति दी है आपने पति-पत्नी के समय के साथ निखरते व बदलते गहरे, अनूठे व अजूबे रिस्ते की । पर एक अनुभूति अवश्य यहाँ बाँटना चाहूँगा कि अव तो सैयाँ की चुप्पी के पीछे के मनोविचारों को ( व मनोविकारों को भी ... हाहाहाहा) मैडम भाँप लेती हैं, और वे यहीं पंक्तियाँ गुनगुनाती हैं-
ReplyDeleteहुजूर चुप रह करके भी कहाँ और क्या छुपाइयेगा ।
मन में जो भी चल रहा है, बच्चू पकडे ही जाइयेगा ।
मोरे सैंया मोहे बहुतै सुहात हैं,
ReplyDeleteजो परस देओ बस वही खात हैं,
न जाने काहे छोटी छोटी बात मा,
पहले से घबराय जात हैं।
हा...हा...हा....
बहुत खूब .....
धरती का डोलना, किसका प्रतीक माना जाये?
पिछली पोस्ट से सम्बंधित ....
अब पता चला प्रवीण जी की प्रवीणता का राज.सूक्ष्म और नुकीली टिपण्णी करना कोई आसान बात तो नहीं.पक्का भाभीजी का ही हाथ होगा इसमें भी.
ReplyDeleteवर-वर की कहानी।
ReplyDeleteढेरों शुभकामनाएं।
बधाई।
मज़ेदार पोस्ट.
ReplyDeleteअच्छा. तो यह बात है. तभी तो मैं कहूं क़ि उस दिन आप जरा सी देर होने पर इतने डर क्यूँ रहे थे. फोन पर बस अभी पहुंचा, बस, आ रहा हूँ, बार-बार यही कह रहे थे. भगवान जाने घर पहुँचने पर आप पर क्या बीती? हाँ, मुझे याद है, कई दिनों तक तक आप कहते रहे क़ि तबीअत ठीक नहीं है. शरीर में दर्द है.आदि,आदि.
ReplyDeleteवैसे वह वाली बात यदि उन्हें पता चल जाये, फिर तो गज़ब ही हो जाये.
आशा है, आप इसे यथा ही लेंगे, अन्यथा नहीं.
होली की अग्रिम शुमकामनाएँ.
मोरे मोहे बहुतै सुहात हैं,
ReplyDeleteजो परस देओ बस वही खात हैं,
अजी रोटी के संग कोई लठ्ट ले कर बेठा हो तो .... तो यही होगा, बेचारा सॆंया,
अगर बीबी पहलवान हो तो भी सैंया डरे डरे तो होंगे ना:)
आपकी कहानी .. मेरी, उनकी, ज़्यादातर ब्लॉगेर्स की लगती है ... पर आने हिम्मत की है लिखने की ...
ReplyDeletebahut hi shaandar majedaar post .saath me gaane ke bol ne char chanad
ReplyDeletelaga diye .
ज्ञान चक्षु शीघ्र खोलने हों, कुण्डलनी जाग्रत करनी हो तो बिना कुछ सोचे समझे विवाह कर लीजिये और यदि विवाह कर चुके हों तो अपनी धर्मपत्नी की बातों को ध्यानपूर्वक सुनना प्रारम्भ कर दीजिये।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है -
पर जीवन के हर पथ पर सामंजस्य तो ज़रूरी है ही |ब्याह न करते तो इनता सुंदर लेख कैसे लिखते ?
दयनीय जेठालाल' और श्रीमतीजी 'निर्भीक दया भाभी'
ReplyDeleteहा हा हा.....
वैसे क्या से क्या हाल हो जाता है शादी के बाद, आप लोगों की बातों से अब डर लगने लग रहा है ;) ;)
हम तो चुप ही रहेंगे।
ReplyDeleteप्रवीण भाई ,आज तो सच में मजा आ गया पढ
ReplyDeleteकर ।अभी-अभी बीते हुए तथाकथित महिला-दिवस
गूंज सी लगी ।वैसे ये कहानी घर-घर की है । जैसे
मुझे तो मेरे पतिदेव ने ओबामा ही बना दिया है ।
हमने अब यह तय किया है,
ReplyDeleteउसे भी कुछ समय दिया जाए,
यह उस पर अहसान नहीं
हक़ है उसको भी कुछ कहने दिया जाए !
ek dam sachhi bat keh di aapne
ReplyDeleteDil ki baat jubaan par laana and that too with a pich of humour...enjoyed reading it. Thanks
ReplyDeleteW.I.F.E.
ReplyDeleteWORRIES INVITED FOR EVER
जय हिंद...
हाहाहा.. प्रवीन जी ... बहुत खूब .. मगर ये तो एक तरफ़ा बात हुई .. है तो घर घर की कहानी लेकिन ... ज़रा हमारी हालत भी तो सोचो ... कुछ भी कहने से पहले .. एक बड़ा सा शून्य दिख जाता है श्रीमान जी के चेहरे पर ... हम पर क्या गुज़रती होगी .. :)
ReplyDeleteसखी सैयां तो बहुत ही भात है
ReplyDeleteपर बबिताजी को लाइन मारत जात है |(दया भाभी जानकर भी अनजान बनती जात है )
बढ़िया पोस्ट |
मेरी कहानी है, मैं स्वयं झेलूँगा ...
ReplyDeleteआपकी कहानी...आपकी जुबानी...
रोचक अंदाज़ में...दिलचस्प...
हम तो पहले से ही ज्ञान अर्जित करे बैठे हैं.. आठ साल हो चुके...
ReplyDeleteहम तो पहले से ही ज्ञान अर्जित करे बैठे हैं.. आठ साल हो चुके...
ReplyDeleteसभी को लग रहा होगा- ‘अरे, ऐसा तो मेरे साथ भी होता है।‘
ReplyDelete'ज्ञान चक्षु शीघ्र खोलने हों, कुण्डलनी जाग्रत करनी हो तो बिना कुछ सोचे समझे विवाह कर लीजिये और यदि विवाह कर चुके हों तो अपनी धर्मपत्नी की बातों को ध्यानपूर्वक सुनना प्रारम्भ कर दीजिये।'
ReplyDeleteहम भी अपने सैयां को पढाते हैं आपका लेख...कई लोगों के मन की बात लिखी आपने. बहुत अच्छा लगा...उम्मीद है ऐसे ज्ञानवर्धक लेख आगे भी पढ़ें को मिलेंगे. :) :)
हा हा हा ...बहुत सुन्दर अंदाज़ में लिखा है आपने .....
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और स्वस्थ हास्य. शुभकामना .
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब लिखा है आपने ।
ReplyDeleteसंवाद पर अनेकों शास्त्र लिखे ऋषियों ने पर पता नहीं क्यों पारिवारिक संवाद को इतना महत्व नहीं दिया गया? संभवतः परिवार में जो एकमार्गी संप्रेषण होता हो वह संवाद की श्रेणी में आता ही न हो। आदेश और संवाद में अन्तर ही इस प्रतीत होती सी भूल का कारण होगा।
ReplyDeleteबहुत गहरे पैठ कर लाये है आप ये मोती...
प्रवीण भाई घर घर की कहानी को बखूबी शब्दों के माध्यम से उकेरा है आपने|
ReplyDelete@ Udan Tashtari
ReplyDeleteनिश्चित ही आपकी कहानी आप ही झेलेंगे मगर शुभकामनाएँ तो दे ही सकते हैं हम....एक तसल्ली रहेगी. :)
पारस्परिक शुभकामनाओं से ही टिका है जगत, नहीं तो हम कब के ही ढह गये होते।
फोटुवा वाले का हिम्मत नहीं पड़ा अपना ब्लॉग लगाने का, इसीलिये न दूसरे की फोटू लगा दिये हैं।
@ ललित शर्मा
ब्लॉग में ध्यान लगाना तो भय छिपाने के लिये होता है।
@ संतोष त्रिवेदी
हमारी सारी विवशता और भय, ऊर्जा में बदलकर ब्लॉग में लगा हुआ है।
@ ashish
हर व्यक्ति की कहानी है यह, सबका यही हाल है।
@ दीपक 'मशाल'
यह सीरियल तो अब लगभग नियमित देखना होता है, खाना खाते समय।
@ ZEAL
ReplyDeleteपरिस्थियों में तरलता बनी रहने दें, नहीं तो जीवन कष्टमय हो जायेगा।
.
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
कोतवाल भी तो किसी न किसी के सैंया होते हैं।
@ amit-nivedita
स्वयं खुश रहने के लिय उन्हें खुश रखना पड़ता है। खुश रखने की कीमत बहुत है जिससे दुख अधिक हो जाता है, अतः हम स्यं ही खुश नहीं रहते हैं।
@ सतीश पंचम
मन जब अनुभव की एक डुबकी लगाकर आता है तो एक पोस्ट बन जाती है। हम श्रीमतीजी के ऋणी हैं कि मसाला मिलता रहता है। कहीं इस मसाले के भी दाम न देने पड़ जायें।
@ Sunil Kumar
जब हिम्मत जबाब दे जाती है तभी यह पोस्ट निकल पाती है, नहीं तो हम जूझते रहते हैं।
@ Rahul Singh
ReplyDeleteमँहगाई का नाम इसलिये नहीं लिये काहे कि पूरा पीपली भी नहीं हुये हैं।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
आपसे शिक्षा लेने आते हैं शीघ्र ही।
@ honesty project democracy
डर के आगे जीत है, मान लिया, पर जब आपका डर आपसे अधिक बुद्धिमान हो जाये तो क्या करियेगा?
@ अनूप शुक्ल
हाँ डरते हैं तो मुस्कान छिटक रही है, जब से डरना बन्द करने का प्रयास भी करेंगे तो क्रोध फट पड़ेगा।
@ वाणी गीत
यह तो है हमारी व्यथा-कथा।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
ReplyDeleteबिचार बाँट लीजिये। हमारा दुख बाँटने से कम हो जायेगा, साथ में उनका भी।
@ सतीश सक्सेना
तसल्ली की पुछल्ली है, वरना किस्मत तो निठ्ठली है।
@ रश्मि प्रभा...
यदि दिनकर नहीं आये तो स्वयं ही कलम उठा काव्य लिखना पड़ेगा।
@ Kajal Kumar
यदि बोलने वाला आत्ममंथन कर ले तो हमारा चिंतन कम हो जायेगा।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
जो कहा है, सच कहा है और सच भी पूरा बताने में लाज आ रही है।
@ निर्मला कपिला
ReplyDeleteविवाह और ज्ञानचक्षु एक विषय हो सकता है शोध के लिये। आने वाली पीढ़ियाँ ही बतायेंगी कि विवाहितों की तपस्या अधिक कठिन थी।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
आपकी कविता तो बिल्कुल मेरी कहानी है, चार दिन बाद एक चीज लाया हूँ तो सीना चौड़ा कर पिछले दो घंटे से घर पर बैठा हूँ।
@ सुशील बाकलीवाल
इसी सिद्धान्त के कारण टिके हुये हैं।
@ गिरधारी खंकरियाल
संवाद कब आदेश बन जाता है और स्नेह कब रूठने में बदल जाता है, पता ही नहीं चलता है।
@ अन्तर सोहिल
जेठालाल जैसे टिके भी हुये हैं हम तो, दिनभर दुखी फिर भी सुखी।
@ वन्दना
ReplyDeleteजब पूरा चित्र दिखायेंगे तब समझ में आयेगा कि मुस्कान का कारण क्या है?
@ Manpreet Kaur
बहुत धन्यवाद आपका।
@ रंजना
भगवान ने न्याय और अन्याय भी बराबर से बाटा है।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
बहुत धन्यवाद आपका।
@ G.N.SHAW
बुद्धिपटल बन्दकर बैठे हैं हम तो, न जाने कब से।
@ संजय @ मो सम कौन ?
ReplyDeleteयदि दोनों समझें तभी यह युक्ति कार्य करेगी।
@ Arvind Mishra
जब तक ईकाई रहें ठीक है, जब दहाई हो जाती हैं तब दुहाई देते हैं सब।
@ : केवल राम :
और जीवन चल पड़ेगा।
@ ताऊ रामपुरिया
हमें तो लगा था कि हम सर्वाधिक पीड़ित हैं।
@ cmpershad
रूठे रहेंगे तो खाना भी नहीं मिलेगा, डरे रहते हैं तो दया आ जाती है उन्हे।
@ Patali-The-Village
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ Akshita (Pakhi)
ध्यान से देखो पाखी, इसे पति कहते हैं।
@ देवेन्द्र
अब तो पकड़े जाने के भय से छिपाना भी बन्द कर बैठे हैं।
@ हरकीरत ' हीर'
बहुत धन्यवाद आपका। धरती का डोलना निरीह को सताने की ध्वनि है, कभी प्रकृति को, कभी हमको।
@ Rakesh Kumar
कभी कभी न चाहते हुये भी गुण प्रवाहित होते रहते हैं।
@ मनोज कुमार
ReplyDeleteशुभकामनाओं की नितान्त आवश्यकता है।
@ वन्दना अवस्थी दुबे
बहुत धन्यवाद आपका।
@ संतोष पाण्डेय
मन और शरीर तो आगत भय से डरने लगता है। उस दिन सच में और भी कार्य थे अतः भय कम था।
@ राज भाटिय़ा
अगर न खायें तो खाना न मिलने का भय।
@ दिगम्बर नासवा
दर्द जब हद से गुजर जाये तब दवा बन जाता है।
@ ज्योति सिंह
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ anupama's sukrity !
ब्याह कर लिया अतः सुन्दर लिख रहे हैं, न किये होते तो सुन्दर दिखते भी।
@ abhi
आप तो निभा ले जाओगे, हम संचित कर्मों को निभा रहे हैं।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
हम भी तो चुप रहते हैं, पकड़े जाने में हमारी कौन सी गलती।
@ nivedita
जब ओबामा बना ही दिया है तो सारे अधिकारों का समुचित प्रयोग करें।
@ संतोष त्रिवेदी
ReplyDeleteहम तो यह हक देकर न जाने कब से बैठे हैं।
@ Khare A
काश हम लोगों के लिये उतनी अच्छी भी होती यह बात।
@ Gopal Mishra
बहुत धन्यवाद आपका।
@ खुशदीप सहगल
जय हो आपकी।
@ क्षितिजा ....
हम पर क्या गुज़री, हम वही बता सकते हैं। अब सामने वाले के आनन्द पर आँसू तो नहीं बहा पायेंगे।
@ शोभना चौरे
ReplyDeleteहर जेठालाल के जीवन में बबीता आ ही जाती है, क्या करे बेचारा जेठा।
@ Dr (Miss) Sharad Singh
सह रहे हैं,
रह रहे हैं,
गुज़री गयी हद से,
तो कह रहे हैं।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
ज्ञान भी मिल रहा हैऔर उसकी तीव्रता भी।
@ mahendra verma
मुझे लगा कि अपनी कहानी कह हम विशिष्ट हो गये।
@ Puja Upadhyay
विवाह में तो ज्ञान का अम्बार है, जबरिया मिलता रहता है। ज्ञान रहेगा और उलका भान रहेगा तो अवश्य लिखेंगे।
@ Coral
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ मेरे भाव
बहुत धन्यवाद आपका।
@ सदा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ kase kahun?by kavita.
अनुभवजन्य ज्ञान तो मात्र वैवाहिक जीवन से ही मिल पायेगा।
@ Navin C. Chaturvedi
मन को व्यक्त कर पाया, मेरे लिये वही बहुत है। बहुत धन्यवाद आपका।
पोस्ट पढ़कर बड़ा मज़ा आया...
ReplyDeleteहो सकता है आपकी ये अनुभव भरी बातें मेरे लिए बहुत मददगार साबित हों... याद रखूंगी...
धन्यवाद...
सुंदर पोस्ट ...सुंदर विचार !
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!
आपकी इस पोस्ट को 'देवानन्द पोस्ट' या फिर 'सदा जवॉं, सदा बहार पोस्ट' कहने दीजिए। आपका चुना हुआ विषय अपने आप में 'ब्रह्म' है - सर्वकालिक, सर्वोपयोगी, सर्वसम्बध्द आदि-आदि।
ReplyDeleteपढते-पढजे ही गुदगुदी होने लगी थी। अब भी हो रही है। काश। मुझे इस तरह हँसते कोई देख पाता।
अच्छी पोस्ट मजा आगया
ReplyDelete@ POOJA...
ReplyDeleteये अनुभव आपके बहुत काम आयेंगे क्योंकि अन्ततः पति ही बेचारा हो जाता है।
@ डॉ. हरदीप संधु
बहुत धन्यवाद आपका।
@ विष्णु बैरागी
किसी की जान जाती है,
आपको गुदगुदाती है।
@ संजय कुमार चौरसिया
बहुत धन्यवाद आपको।
भाभी जी को खुश करने का यह तरीका भी अच्छा लगा !
ReplyDeleteमेरी शुभकामनाएँ !
माता उर्वशी के सारे अधिकार समेट अपनी कान्ति की आभा का विस्तार करने में व्यस्त हैं। कोई दिनकर पुनः आये और नयी उर्वशी का रूप गढ़े, पारिवारिक संदर्भों में।
ReplyDeleteआप कौनसे कम हैं जी, कर दीजिये श्री गणेश । डर भी जाता रहेगा ।
@ ज्ञानचंद मर्मज्ञ
ReplyDeleteयदि ऐसे ही खुशी मिलती है उन्हें तो हम प्रस्तुत हैं डरे डरे रहने के लिये।
@ Mrs. Asha Joglekar
स्वयं लिखेंगे तो संलिप्तता का आक्षेप लग जायेगा।
मेरे ब्लोगिंग की सबसे बड़ी शत्रु मेरी धर्मपत्नी है | लेकिन जिस दिन मै कम्प्युटर के सामने नहीं बैठता हूँ या नेट बंद हो जाता तो मुझसे भी ज्यादा बैचेनी उसे ही होती है | ये माजरा क्या है भगवान जाने |
ReplyDeleteगृहस्थ आश्रम का जीवन दर्शन है आपकी पोस्ट...
ReplyDeleteSHADI KA TAJURBAA GAHAN GYAAN!!!
ReplyDelete@ नरेश सिह राठौड़
ReplyDeleteतुम्ही से दिल का हाल बतायें, तुम्ही से हाल छिपायें, हमें क्या हो गया है।
@ अरुण चन्द्र रॉय
गृहस्थ आश्रम में तो जीवन के दर्शन हो जाते हैं।
@ murari
विवाह ज्ञान का स्रोत है, निबाह उसकी गहनता का।
हा...हा...हा...हा..
ReplyDeleteक्या कमाल का लिखा है
उस पर सतीश पंचम जी का कमेन्ट :)
आनंद आ गया पढ़कर
@ क्रिएटिव मंच-Creative Manch
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
मन की बात लिखी.....बहुत अच्छा लगा
ReplyDelete@ संजय भास्कर
ReplyDeleteमन में तो डर बैठा है, उसी की ही बात है, कारण भी ज्ञात है।
नेह और अपनेपन के
ReplyDeleteइंद्रधनुषी रंगों से सजी होली
उमंग और उल्लास का गुलाल
हमारे जीवनों मे उंडेल दे.
आप को सपरिवार होली की ढेरों शुभकामनाएं.
सादर
डोरोथी.
@ Dorothy
ReplyDeleteआपको भी बहुत बहुत शुभकामनायें होली की।
ek dum sahi kahe hai aap...aaj ke zamane me pati -patni bas ek dusre ko jhe rahe hai bas...sab apne apne ghar me ajkl jetalal or daya vhavi hi bane hue hai...bhut khub likha aapne..ek line yaad aai mujhe ki...
ReplyDeleteki pati ne patni se kaha-tumse picchha chudake chalo mar hi jayenge,or tum waha nark me bhi pahuch gai to tab kha jayenge....
@ arti jha
ReplyDeleteसच कहा, जब हर जगह साथ ही रहना है तो क्यों न निभा लें।
होली की आपको बहुत बहुत शुभकामनाये आपका ब्लॉग देखा बहुत सुन्दर और बहुत ही विचारनीय है | बस इश्वर से कामनाये है की app इसी तरह जीवन में आगे बढते रहे | http://dineshpareek19.blogspot.com/
ReplyDeletehttp://vangaydinesh.blogspot.com/
धन्यवाद
दिनेश पारीक
@ Dinesh pareek
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।