27.12.15

जीवन-इच्छा

बहुधा मैं असहाय पाता हूँ स्वयं को,
खोखले दिखते मुझे उद्देश्य मेरे
विवश हो मैं चाहता हूँ गोद ऐसी,
तुष्ट हूँ मैं, सान्त्वना भी मिले मुझको ।।१।।

व्यथित मन में चीखता तम रिक्तता का,
जानता हूँ पर स्वयं से भागता हूँ
स्वयं के धोखे विकट हो काटते हैं,
प्राप्त जल पर तृप्त मैं हो सका हूँ ।।२।।

विकल अन्तरमन उलसना चाहता है,
हर्ष का जीवन बिताना चाहता
व्यर्थ का दुख पा बहुत यह रो चुका है,
प्रेम का अभिराम पाना चाहता ।।३।।

20.12.15

राधा-माधव

देहभान में प्राण तिरोहित,
अन्तर आत्मा दुखी बेचारी ।
प्रेम भक्ति की सुधा चखा दो,
राधा माधव, कृष्ण मुरारी ।।१।।

भ्रम टूटा, मैं मुझसे छूटा,
नित माया की चोट करारी ।
मुझको अपनी गोद छुपा लो,
गोपी रक्षक, हे गिरिधारी ।।२।।

जग की जगमग रास न आये,
कैसे रह जाऊँ संसारी ।
मुझमें अपना रंग चढ़ा दो,
मेरे जीवन के अधिकारी ।।३।।

जीवन की अक्षय अभिलाषा,
मनमोहन, हे वंशीधारी ।
वृन्दावन मम हृदय उतारो,
प्रेम सरोवर, कुंज बिहारी ।।४।।

आनन्दित मन भरे कुलाँछे,
तेरी लीलायें अति प्यारी ।
बिन तेरे सब शान्त शुष्क है,
गोविन्दा, हे गोकुलचारी ।।५।।

हे शब्दों के उद्भवकर्ता,
तुम्हें समर्पित कृतियाँ सारी ।
छंदों के इस तुच्छ भोग को,
स्वीकारो हे रास बिहारी ।।६।।

13.12.15

और तुम

मन की तहों में क्या हलचल मची है ।
न बोलूँ अगर, पर ये आँखें बतातीं ।।१।।

अगर पूछ सकते तो धड़कन से पूछो ।
किसे कष्ट कितना, वह कहकर सुनाती ।।२।।

तुम्हारे लिये मात्र सो के है उठना ।
तड़प कितनी होती, जो रातें सताती ।।३।।

वचन था, हृदय को हृदय में रखेंगे ।
भूले नहीं, बात तुमने भुला दी ।।४।।

कहा, तुम नहीं तो, नहीं चैन आता ।
सुनी बात, सुनकर हँसी में उड़ा दी ।।५।।

है मन को मनाने के औरों तरीके ।
नहीं बोलते बात, तुमपर जो आती ।।६।।

तुममें बसा मन, तुम्हे मन में ढूढ़ूँ ।
यही कर्म औ चाह मन में बसा ली ।।७।।

मेरी जीवनी को, समझती है दुनिया ।
नहीं कुछ किया और यूँ ही बिता दी ।।८।।


6.12.15

परिचय

अतुलित रूप सम्पदा तेरी,
मादकता मधु का निर्झर ।
नयनों में अप्रतिमाकर्षण,
चेहरे का सौन्दर्य प्रखर ।।१।। 

नयन तुम्हारे कान्ति-सरोवर,
चेहरे पर अभिराम ज्योत्सना ।
परिचय तेरा शब्द रहित है,
तुम पृथ्वी पर अमर-अंगना ।।२।।

मधुरस के इस महासिन्धु में,
मन नैया चुपचाप बढ़ रही ।
मेरी सृजना, चुपके चुपके,
तेरा यह आकार गढ़ रही ।।३।।

पर यथार्थ में मिली नहीं तुम,
स्वप्नों में आ जाती प्रतिदिन ।
राग सभी अनसुने हैं अभी,
जो आकर गा जाती हर दिन ।।४।।

ना जानूँ, तुम कौन स्वप्न में,
मनस पिपासा जगा रही हो ।
ना जाने क्यों आशाआें के,
पुष्प सुनहरे खिला रही हो ।।५।।

अनुभूतित सौन्दर्य अतुल है,
पर अन्तः उत्सुक अतीव है ।
मैं जीवन की प्रथम संगिनी,
में तेरी आकृति चाहूँगा ।।६।।