29.11.15

क्यों

सकल, नित, नूतन विधा में,
दोष प्रस्तुत हो रहे क्यों
क्यों विचारों में उमड़ता,
रोष जो एकत्र बरसों ।।१।।

क्यों प्रदूषित भावना-नद,
तीक्ष्ण होकर उमड़ती है
ईर्ष्या क्यों मूर्त बनकर,
मन-पटल पर उभरती हैं ।।२।।

क्यों अभी निष्काम आशा,
लोभ निर्मित कुण्ड बनती
मोह में क्यों बुद्धि निर्मम,
सत्य-पथ से दूर हटती ।।३।।

और अब क्यों काम का,
उन्माद मन को भा रहा है
कौन है, क्यों जीवनी को,
राह से भटका रहा है ।।४।।

22.11.15

हृदय-कक्ष

हृदय के विस्तृत भवन में, अनुभवों से,
किये निर्मित काल्पनिक कुछ कक्ष मैंने ।

सजा उनको आचरण की सहजता से,
तृप्त करने कल्पना की प्यास मैंने ।

किया शब्दित अनुभवों को जटिलता से,
ग्रहण करके लुप्त होते स्वप्न मैंने ।

और आँसू अनवरत बहते नयन से,
कभी पाये रिक्त हृद के कक्ष मैंने ।

15.11.15

आभार

अति प्रसन्न हूँ, इस पथ पर, तेरा ढाढ़स और प्यार मिला है,
पृथक विचारों को तेरे ही, भावों का आधार मिला है,
अन्तः पीड़ा को तेरे कोमल मन का संसार मिला है,
सच कहता हूँ, बड़े भाग्य से, तेरे सा उपहार मिला है ।

कविता बनकर आज हृदय से प्यार बहे तो मत रोको,
इस बन्धन को प्रथम बार ही, शब्दों का आकार मिला है ।।

8.11.15

अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा

लिये समय का बोझ हृदय में, संवेदित जीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।।

नेह नियन्त्रित नहीं, शीघ्र ही आँखों को सरसा जाता है ।
भावों से परिपूर्ण, अपेक्षित सुख-फुहार बरसा जाता है ।।
नहीं बिखरने पाये जग में,
पर दुख जो भी आये मन में,
कोमल मन है, कष्ट बड़े घनघोर, सहज जीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। १ ।।

कुटिल जगत की रीति, छिला था हृदय, अनेकों आघातों से ।
कब तक सहती, बहुधा आत्मा, चीखी भी थी संतापों से ।।
सोचा तब हुंकार कर उठूँ,
चालों का प्रत्युत्तर भी दूँ,
किन्तु स्वयं को समझाता हूँ, होठों को सीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। २ ।।

था निरीह, पाशित बन्धों में, कहता क्या, अपने जो थे ।
कई बार इच्छा होती थी, तन्तु तोड़ दूँ सम्बन्धों के ।।
नहीं किसी से कुछ भी कहता,
शान्त खड़ा शापित सा सहता,
सम्बन्धों को मधुर बनाये, दुविधा में जीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। ३ ।।

कैसे लब्ध आचरण छोड़ूँ, कैसे इतना गिर जाऊँ मैं ।
कैसे मान प्रतिष्ठा प्रेरित, अपने से ही फिर जाऊँ मैं ।।
नहीं ढूढ़ता हूँ अब कारण,
त्याग, तपस बन गये उदाहरण,
वही तर्क प्रस्तुत करता हूँ, वही कृष्ण-गीता कहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। ४ ।।

1.11.15

दावानल सा

कैसे सहज, मधुर हो बोलूँ,
सौम्य आत्म कोई छलता है ।
वाणी से कुछ दूर दृष्टि में,
दावानल सा जलता है ।।

नहीं विवादों में उलझा, बस हाँ की,
छलित वहीं पर, जहाँ नहीं शंका की ।
आज विरोधों से पूरित स्वर, बढ़ता और बदलता है ।
वाणी से कुछ दूर दृष्टि में, दानावल सा जलता है ।। १।।

नहीं कृष्ण हूँ, ना ही कोई शपथ धरी है ,
शस्त्र उठाने की इच्छा फिर हो सकती है ।
प्रत्युत्तर का अंकुर मन में, फलता और मचलता है ।
वाणी से कुछ दूर दृष्टि में, दावानल सा जलता है ।। २।।

रुका हुआ था, स्वयं बनाये अवरोधों से,
नहीं कभी भी क्रोध लुप्त, था हुआ रगों से,
आज धैर्य का सूर्य, हृदय से दूर कहीं पर ढलता है ।
वाणी से कुछ दूर दृष्टि में,दानावल सा जलता है ।। ३।।

नहीं कंठ रुकता, केवल यह कह कर,
अन्तः का आवेश उमड़ता रह कर,
नहीं गूँज यह नयी, हृदय में कोलाहल यह कल का है ।
वाणी से कुछ दूर दृष्टि में,दानावल सा जलता है ।। ४।।