27.12.14

पृथु जीवन के प्रथम वर्ष पर

पृथु, जीवन के प्रथम वर्ष पर,
नहीं समझ में आता, क्या दूँ ?

नहीं रुके, घुटनों के राही,
घर के चारों कोनो में ही,
तुमने ढूँढ़ लिये जग अपने,
जिज्ञासा से पूर्ण हृदय में,
जाने कितनी ऊर्जा संचित,
कैसे रह जाऊँ फिर वंचित,
सुख-वर्षा, मैं भी कुछ पा लूँ,
नहीं समझ में आता, क्या दूँ ?

भोली मुसकी, मधुर, मनोहर,
या चीखों से, या फिर रोकर,
हठ पूरे, फिर माँ गोदी में,
बह स्वप्नों से पूर्ण नदी में,
डरते, हँसते, कभी भूख से,
होंठ दुग्ध पीने वश हिलते,
देख सहजता, हृदय बसा लूँ,
नहीं समझ में आता, क्या दूँ ?

कृत्य तुम्हारे, हर्ष परोसें,
नन्हे, कोमल, मृदुल करों से,
बरसायी कितनी ही खुशियाँ,
चंचलता में डूबी अँखियाँ,
देखूँ, सुख-सागर मिल जाये,
मीठी बोली जिधर बुलाये,
समय-चक्र उस ओर बढ़ा दूँ,
नहीं समझ में आता, क्या दूँ ?

(पृथु के एक वर्ष होने पर लिखी थी, १३ वर्ष बाद आज भी लगता है कि जैसे कल की बात हो)

24.12.14

याद आती हो

मेरे दिन-रात चाहें, बस तुम्हारी याद में रहना,
सुबह बन गुनगुनाती, रात बनकर गीत गाती हो ।।१।।

नहीं अब है सताती, जीवनी ही स्वप्न में डूबी,
कली सी कुनमुनाती, फूल जैसी मुस्कुराती हो ।।२।।

तुम्हारा पास रहना भी, तुम्हारी याद के जैसा,
कभी तो छेड़ जाती और कभी मन गुदगुदाती हो ।।३।।

जिसे मैं ढूढ़ने निकला, जलाये दीप आशा के,
हृदय के रास्ते में धूप सी तुम फैल जाती हो ।।४।।

अधूरा चाँद अम्बर में, कभी तो पूर्णता पाये,
उसी अनुभूति का विश्वास, अधरों से पिलाती हो ।।५।।

20.12.14

आँख-मिचौनी

फिर आँखों को यूँ फिरा लिया, क्यों आँख-मिचौनी करती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।

भाव पुरातन, शब्द नये हैं, कैसे मन की बात उजागर,
कठिन बहुत भावों की भाषा, शब्द अशक्त रहे जीवन भर ।
आँखों की भाषा मौन बहे, कितने आमन्त्रण कहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।१।।

लज्जा बनकर दीवार खड़ी, तुम सहज और उद्वेलित हम,
कुछ बोलो यदि, जग जानेगा, कैसे वाणी का आलम्बन ।
झपकी, सकुचाती आँखों से, पर प्रणय-प्रश्न बन बहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।२।।

हो सकता आँखें पूछें मैं, कब तक रह सकती एकाकी,
कब तक एकाकी ढोऊँगी, घनघोर व्यथायें जीवन की ।
आँखों से जी भर बात करो, एकान्त कहाँ तुम रहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।३।।

मन प्रेम बसा या मंथन हो, या फिर भटकाता चिंतन हो,
अब आँख मिचौनी छोड़ो भी, क्यों खींच रही हो जीवन को ।
जो छिपा हृदय में बतला दो, क्यों मन उत्कण्ठा सहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।४।।

निःशब्द भाव की कविता हो तू सूर्य रश्मि हो, सविता हो 
जीवन में ऊष्मा भरती हो, कलकल छलछल सी सरिता हो 
मेरे जीवन के शोणित पर शीतल समीर सी बहती हो 
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।५।।

* सिद्धार्थ जी द्वारा समर्पित

17.12.14

कटु यथार्थ

अनुपस्थित अब तक जीवन से, थी अश्रुत्पादित यथार्थता,
दोषों का अम्बार दिखेगा, ऐसा मैने सोचा ना था ।

इस शतरंजी राजनीति में,
जाने क्यों पैदल ही मरते,
मानव, धन से सस्ते पड़ते ।
सब सच था, कुछ धोखा ना था ।
मानव इतना गिर सकता है, ऐसा मैने सोचा ना था ।।१।।

अब शासन में शक्ति उपासक,
अट्टाहस कर झूम रहे हैं ,
हो मदत्त गज घूम रहे हैं ।
पर दुख से मैं रोता ना था ।
क्रोधानल में ज्वलित हुआ जो, अश्रु-सिन्धु वह छोटा ना था ।।२।।

बर्बरता का जन्तु कभी,
मानव-संस्कृति में पला नहीं है,
सदियों से यह रीति रही है ।
यह भविष्य पर देखा ना था ।
अब आतंक-भुजाआें का बल, बढ़ता था, कम होता ना था ।।३।।

मानव का व्यक्तित्व-भवन,
कब से चरित्र पर टिका हुआ,
जो संस्कृति का आधार रहा ।
क्या खण्ड खण्ड हो जाना था ।
वह महारसातल को उन्मुख, क्या उस पथ पर ही जाना था ।।४।।

13.12.14

कुछ निमन्त्रण

आज कुछ बरसात की बूँदें बरसती और हवा भी,
बह रही उन्मुक्त होकर और कोयल कूजती हैं,
औ’ मदित सा धुन्ध छाना चाहता निर्बाध होकर,
सरसता के इस समय में कमल-कोपल फूटती हैं ।

अब हृदय के द्वार में बजाते शहनाइयाँ है,
जो समय की बाट जोहे, थक गये थे चूर होकर ।

आज कविता बिन बँधे,
गाम्भीर्य की यादें भुला कर,
मस्त लहरों की तरह यूँ,
बहकना ही चाहती है ।

कभी जीवन की सुबह,
जो कल्पना की गोद में थी,
आज पाकर प्यार का,
संसार जीना चाहती है ।

आज यादों की सुनहरी शाम में,
मैने संजोये कुछ निमन्त्रण ।।

10.12.14

आया कोई याद हृदय में

आया कोई याद हृदय में,
सुखदायी अनुनाद हृदय में ।
तनिक विहँस कर हौले हौले,
कह जाता संवाद हृदय में ।।१।।

कहाँ छिपा था, मन में आया,
सुखारूढ़ जो समय बिताया ।
स्मृति के छोटे हाथों भर,
लाया लघु-उन्माद हृदय में ।
आया कोई याद हृदय में ।।२।।

याद आ रहे हैं मधुरिम क्षण,
काल-ताल में डूबा जीवन ।
भूला बिसरा राग सुनाये,
सुर बन गाये आज हृदय में ।
आया कोई याद हृदय में ।।३।।

कौन और किस प्रायोजन से,
स्मृतियों के महासिन्धु से ।
चुपके से जाकर ले आया,
सुख का बीता ज्वार हृदय में ।
आया कोई याद हृदय में ।।४।।

किसकी करनी, नहीं ज्ञात है,
इस जीवन पर ऋण अपार है ।
यादों से जो दे जाता है,
आस भरा विश्वास हृदय में ।
आया कोई याद हृदय में ।।५।।

6.12.14

बिताये हुये पल

बिताये थे जो पल, कभी संग तेरे,
वो बनकर उमड़ते हैं, यादों के बादल ।
बड़ी सोहती है, वो छाहों की ठंडक,
रहूँ काश ऐसी, बहारों में हर पल ।। १।।

अभी तक सुनाई पड़े बोल तेरे,
तेरा खिलखिलाना औ’ किस्से सुनाना ।
सताता है, रह रह कर, याद आ रहा है,
वो बातें बनाते हुये मुस्कुराना ।। २।।

कभी देर तक ही, बिना कुछ कहे ही,
सुझाये, बताये, दिखाये थे रस्ते ।
कई और बातें, छिपाई थी मन में,
आँखों ही आँखों में, चुपके से हँस के ।। ३।।

मुझे आकर हौले से, थपका गयी थी,
तेरी प्रेम-पूरित, सलोनी सी बातें ।
तेरी सान्त्वना से ही, सब मिल गया था,
उहापोह में क्यों बितायीं थी रातें ।। ४।।

अभी मेरे कानों में तुम बोलती हो,
रहो गुनगुनाती, वही गीत अपने ।
मैं सुनता रहूँ, तुम सुनाती रहो यूँ,
उनींदी सी आँखों में सजने दो सपने ।। ५।।

3.12.14

क्या जो मैनें पा लिया

और कहने को बहुत कुछ, जो था मैने पा लिया,
किन्तु पहचानों की गहरी छाँह में छिपता गया ।।१।।

कभी उड़ता था हवा में, धरा पर जब आ गया,
पंख थकने के सभी आरोप मैं सहता गया ।।२।।

और कर्तव्यों के ढाँचे में, सहज जीवन फँसा कर,
कष्ट का अभिशाप बनकर अश्रु जब बहता गया ।।३।।

मुझे आरोपी बनाकर, स्वयं ही निर्णय दिये थे,
नहीं कुछ उत्तर दिये, बस सजायें सहता गया ।।४।।

है यह माना, जीवनी, कुछ ज्वलित है, कुछ पददलित है,
किन्तु कूड़े ढेर जिसको जो मिला, कहता गया ।।५।।

सत्य कहता हूँ, हृदय से क्षीण हूँ, यह समय भीषण,
इसलिये ही स्वयं-निर्मित यज्ञ में जलता गया ।।६।।

जानता हूँ, इस जगत में, प्रश्न तो अस्तित्व का है,
कापुरुष तो बह गये, निज पंथ मैं बढ़ता गया ।।७।।