31.5.14

प्रश्नोत्तर

प्रश्नचिन्ह मन-अध्यायों में,
उत्तर मिलने की अभिलाषा ।
जीवन को हूँ ताक रहा पर,
समय लगा पख उड़ा जा रहा ।।१।।

ढूढ़ रहा हूँ, ढूढ़ रहा था,
और प्रक्रिया फिर दोहराता ।
उत्तर अभिलाषित हैं लेकिन,
हर मोड़ों पर प्रश्न आ रहा ।।२।।

काल थपेड़े बिखरा देंगे,
प्रश्नों से घर नहीं सजाना ।
दर्शन की दृढ़ नींव अपेक्षित,
किन्तु व्यथा की रेत पा रहा ।।३।।

पूर्व-प्रतिष्ठित झूठे उत्तर,
मन में बढ़ती और हताशा ।
अनचाहा एक झूठा उत्तर,
मन में सौ सौ प्रश्न ला रहा ।।४।।

संग समय का जीवन में हो,
नभ को छू जाये मन-आशा ।
उलझा हूँ सब कहाँ समेटूँ,
जीवन मुझसे दूर जा रहा ।।५।।

प्रश्न निरर्थक हो जाता है,
बढ़ता यदि परिमाण दुखों का ।
निरुद्देश्य पर उठते ऐसे,
प्रश्नों का जंजाल भा रहा ।।६।।

जीवन छोटा, लक्ष्य हर्ष का,
छोटी हो जीवन-परिभाषा ।
शेष प्रश्न सब त्याज्य,निरर्थक,
जो मन कर्कश राग गा रहा ।।७।।

प्रश्न लिये आनन्द-कल्पना,
प्रश्न हर्ष की आस बढ़ाता ।
प्रश्न लक्ष्य से सम्बन्धित यदि,
उत्तर मन-अह्लाद ला रहा ।।८।।

28.5.14

स्मृति

कहीं शीर्ष पर स्थिर जो है,
संकल्पों की प्रखर ज्योत्सना ।
बिना ध्येय का दीप जलाये,
अंधकूप में उतर न जाये ।।१।।

कहीं समय की भगदड़ में मैं,
जीवन का पथ भूल न जाऊँ ।
रुको ध्येय की वेदी पर मैं,
स्मृति के कुछ पुष्प चढ़ा दूँ ।।२।।

24.5.14

हँस लेते सब

सुखी पलों की आस लगाये,
कुछ लोगों के संग बिताये,
माह, दिवस बिन आडम्बर के,
प्राय ही कष्टों से लड़ के,
बिन प्रयास बढ़ जाते थे पग,
चाह अकेली, हँस लेते सब ।।१।।

किन्तु लगा सब हुआ निरर्थक,
श्रम निष्फल, देखें हैं अब तक,
दुखी दुखी चेहरे मुरझाये,
जाने कितना बोझ उठाये,
मानो पीड़ा बरसाता नभ ।
चाह अकेली, हँस लेते सब ।।२।।

कुछ वर्षों में सिमटा जीवन,
और बहुत कुछ करने का मन,
चलो आज मिल दुख बाँटेंगे,
चुभते काँटों को काटेंगे,
सुख-समृद्धि में खेले यह जग ।
चाह अकेली, हँस लेते सब ।।३।।

21.5.14

किसके लिये

भूख मिटाकर दो रोटी में, जीने की क्षमता रखता हूँ,
अपमानों का घोर हलाहल पीने की क्षमता रखता हूँ।
मन को तुच्छ प्रलोभन पर मैंने बहुधा फटकारा है,
स्वार्थ प्रेरणा मुखरित जब भी, जी भर के धिक्कारा है।
संशय के क्षण में डूबी पीड़ाओं को स्वीकार किया,
निश्छल भाव छ्ले जाने का दुख भी अंगीकार किया।
क्रोध रोक कर, हृदय बसे अंगारों को जलते देखा,
क्षमताओं को बाट जोहते, अकुलाते, ढलते देखा।
किस ढाँचे में ढला मन मेरा, कौन दिशा मेरा जीवन,
किसकी आहुति बन कर प्रस्तुत, जीवन के सब आकर्षण।
यह सब किसके लिये, बताओ कौन भला यह समझेगा,
पागलपन की संज्ञा देकर, मौन सभा में भर देगा।

घोर निराशा बीच संग में रात रात कोई जगता है,
वह विराग का राग छेड़ता, उत्सव जैसा लगता है।
नहीं व्यक्त जो सत्य, उसी को जीवन में ले आया हूँ,
किसके आलिंगन में छुपने छोड़ सभी को आया हूँ।

17.5.14

अस्तित्व लगाने बैठा हूँ

कर लो प्रारम्भ महाभारत, निष्कर्ष बताने बैठा हूँ,
तुम रोज उजाड़ो घर मेरा, मैं रोज बनाने बैठा हूँ।

आवारापन मेरे मन का, कुछ और जमीनें पायेगा,
मर्यादा की जो दरक रही, दीवार हटाने बैठा हूँ।

सम्बन्धों के क्षण मैंने, हो उन्मादित निर्बाध जिये,
निश्चिन्त रहो, अब आहुति बन, अस्तित्व लगाने बैठा हूँ।

14.5.14

समझौते

खाई बड़ी थी मतभेदों की,
भरने की करता अभिलाषा,
कितने ही थे समझौते, 
जो मैने अपने साथ किये ।

और अभी भी जीवन के जीवन ही इसमें बह जायेंगे ,
नहीं किन्तु वह भर पायेंगे, किञ्चित दुख बढ़ा जायेंगे ।

और अभी भी मुक्त विवशता आयेगी मेरे ही द्वारे,
समझौतों का भार लिये और पीड़ाआें का हार लिये ।

रहने दो इन मतभेदों को,
क्यों मतैक्य की लिये लालसा,
जीवन के अनुपम मूल्यों को,
 मैं व्यर्थों में व्यर्थ करूँ ।

किन्तु तुम्हारा श्रेय रहा है,
मेरे इस अवमूल्यन में,
तुमने ही आँखें खोली,
तुम धन्यवाद स्वीकार करो ।

10.5.14

कहाँ अकेले रहते हैं हम

कहाँ अकेले रहते हैं हम?

अपने से ही सब दिखते हैं,
जितने गतिमय हम, उतने ही,
जितने जड़वत हम, उतने ही,
भले न बोलें शब्द एक भी,
पर सहता मन रिक्त एक ही,
और भरे उत्साह, न थमता,
भीतर भारी शब्द धमकता,
लगता अपने संग चल रहा,
पथ पर प्रेरित दीप जल रहा,
लगता जीवन एक नियत क्रम,
कहाँँ अकेले रहते हैं हम?

औरों से हम क्यों छिपते हैं,
कर लें हृद को रुक्ष,  अनवरत,
नहीं वाह्यवत, अपने में रत,
मन में मन के क्रम उलझाये,
सहजीवन के तत्व छिपाये,
नहीं कहीं कुछ सुनना चाहें,
अपनी सुविधा, नियम बनायें,
एकान्ती भावुक उद्बोधन,
मूक रहे वैश्विक संबोधन,
शुष्क व्यवस्था और हृदय नम,
कहाँ अकेले रहते हैं हम? 

7.5.14

झम झमाझम

ढाढ़सी मौसम,
बस रसद कम,
जी ले लल्ला,
बैठ निठल्ला,
पानी बरसे,
झम झमाझम। 

3.5.14

तुम्हीं पर

प्रश्न कुछ भी पूछता हूँ,
उत्तरों की विविध नदियाँ,
ज्ञान का विस्तार तज कर,
मात्र तुझमें सिमटती हैं ।

नेत्र से कुछ ढूँढ़ता हूँ,
दृष्टियों की तीक्ष्ण धारें,
अन्य सब आसार तजकर,
तुम्हीं पर कब से टिकी हैं ।

जब कभी कुछ सोचता हूँ,
विचारों की दिशा सारी,
व्यर्थ का संसार तजकर,
तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।

नहीं खुद को रोकता हूँ,
हृदय के खाली भवन में,
जब तुम्हारी ही तरंगें,
अनवरत ही भटकती हैं ।

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