नहीं, संदर्भ बिल्कुल वह नहीं है जो आप समझ रहे हैं। सड़कों पर किये हुये विशेष कृत्य पर नहीं, वरन यह शीर्षक सड़कों पर किये हुये वृहद अवलोकनों के पश्चात समझ में आयी रोचकता पर आधारित है। रेलवे में सारे निरीक्षण ट्रेन से किये जाने असम्भव होते हैं। समपार फाटकों, पुलों और संरक्षा के लिये महत्वपूर्ण कई स्थानों पर ट्रेन नहीं रुकती है। मोटरट्रॉली से इन स्थानों पर पहुँचा तो जा सकता है पर रेलमार्ग में ट्रेनों की बहुतायत से अत्यधिक समय लग सकता है। साथ ही साथ यदि आपने बीच खण्ड में गहन निरीक्षण कर अधिक समय ले लिया तो उसमें अन्य ट्रेनों के विलम्बित होने की संभावना बढ़ जाती है। जहाँ कहीं भी पहुँचा जा सकता है, निरीक्षण सड़क मार्ग से करना श्रेयस्कर होता है।
यही कारण रहा कि सड़क मार्ग पर कई हज़ार किलोमीटर चलना हुआ। दक्षिण भारत में सड़कें बहुत अच्छी हैं और जितने किलोमीटर जाना हो, बहुधा उतने मिनट से अधिक का समय नहीं लगता है। हाँ, बेंगलोर से बाहर निकलने और वापस आने के लिये सुबह और सायं के व्यस्त घंटों से स्वयं को बचाना होता है। सुबह शीघ्र निकल कर सायं होने के पहले ही वापस आने से ही समय की बचत संभव है यहाँ। आगे बैठने से सड़क की गतिविधि स्पष्ट दिखती हैं।
निरीक्षणों के समय की गयी सड़क यात्राओं में किये गये सतत अवलोकनों से इस विषय की उत्पत्ति हुयी है। हर बार जो देखा, उसमें लोकतन्त्र के साम्यरूप स्वतः ही दिखते गये। जो भी घटना देखी, विचार किया तो पाया कि लोकतन्त्र में भी यही होता है। धीरे धीरे सड़क यात्राओं की क्रियात्मक रिक्तताओं को सार्थक विचारशीलता मिलती गयी। मन में उठते प्रश्नों को उत्तर मिलता गया, उत्तरों की निश्चितता सिद्धान्त में बदलती गयी, उबाऊ सड़क यात्राओं में आनन्द आने लगा और साथ ही साथ सड़क के बहाने लोकतन्त्र की प्रक्रियाओं को समझने का अवसर भी मिलता गया।
कभी कभी बड़े तन्त्र को न समझ पाने की स्थिति में उससे मिलते जुलते छोटे तन्त्र को समझने से बड़े तन्त्र के गुण समझ में आ जाते हैं। तब उन दो तन्त्रों के भिन्न अवयवों में एक नियत संबंध पा लेने से एक तन्त्र की जानकारी को दूसरे तन्त्र की समस्यायें सुलझाने में प्रयोग किया जा सकता है। इन्जीनियरिंग में इस तकनीक को सिमुलेशन कहते हैं। बड़े तन्त्रों पर प्रयोग करना बड़ा कठिन, महँगा और घातक हो सकता है, अतः उपयुक्त और सर्वाधिक मिलते जुलते तन्त्र पर प्रयोग कर अवलोकन के निष्कर्षों से बड़े तन्त्र को लाभ पहुँचाया जा सकता है। उदाहरण के लिये अच्छे हवाई जहाज़ बनाने के आकाश में प्रयोग करने असंभव होते हैं, तब प्रयोगशाला में प्रयोग करने के लिये हमें छोटे मॉडल और ठीक वैसा ही तन्त्र बनाना होता है, जो बड़े से मिलता जुलता हो।
अव्यवस्थित लोकतन्त्र के संकेत |
मैं न तो राजनीति शास्त्र का विद्यार्थी रहा हूँ और न ही लोकतन्त्र के प्रयोगों पर गहरी रुचि है, पर टीवी चैनलों, ट्रेन के डब्बों और चाय की दुकानों पर हुयी हाहाकारी चर्चाओं से अछूता भी नहीं रह सका हूँ। जब लोग अपने कार्य करने के तरीक़ों को लोकतन्त्र की सच्ची परिभाषा बताने लगते हैं तो मुझे पर सड़क पर दिखी किसी घटना से उसकी साम्यता दिख जाती है। तब लगता है कि सड़कों पर तो और बहुत कुछ होता है तो क्या सिमुलेशन के सिद्धान्तों के आधार पर लोकतन्त्र में उन सबकी संभावना बनती है क्या? इन तथाकथित प्रयोगों के अतिरिक्त यदि कोई लोकतन्त्र पर सार्थक प्रयोग करना भी चाहे तो क्या सीमित भाग पर किये प्रयोग सार्वभौमिक हो सकेंगे? न जाने कितने प्रयोगों में हम हाथ झुलसा बैठे हैं, आइये सड़कीय तन्त्र से उसकी अद्भुत साम्यता देख भविष्य के निष्कर्ष निकालने के प्रयास करते हैं।
एक सड़क है, दो दिशायें हैं, दोनों दिशाओं में वाहन चल रहे हैं। यदि एक ही लेन होगी तो जब भी कोई सामने से आयेगा तो गति धीमी कर खड़ंजे में उतरना पड़ेगा। यही नहीं आगे चलने वाला कितने भी धीरे चले, पीछे वाले को आगे निकलने नहीं देगा। कुछ ऐसा ही दिखता है हमें लोकतन्त्र में भी। सड़क चौड़ी कर दें, आने जाने वालों के लिये अलग अलग लेन बना दें। एक दिशा में भी दो लेन बना दें जिससे पीछे से अधिक गति से आने वाले को रुकना न पड़े। आगे बढ़िये तो आपको चौराहे मिलते हैं, बायें या जायें से आने वाले के लिये आपको रुकना पड़ता है। रोकने के लिये या तो सिग्नल लगे रहते हैं या ट्रैफिकवाला खड़ा रहता है। जो भी रहे, चक्रीयता से सबको जाने देता है। जब किसी दिशा से आने वाला प्रवाह कम या अधिक हो तो सिग्नल की अवधि यथानुसार कम या अधिक की जाती है।
व्यवस्थित लोकतन्त्र के संकेत |
जब लगता है कि चौराहे पर दोनों ही दिशाओं में प्रवाह सतत है और बहुत लोगों को बहुत अधिक विलम्ब हो रहा है तो फ्लाईओवर बनाये जाते हैं जिससे दोनों दिशाओं का यातायात निर्बाध चले। इस स्थिति में सीधे जाने वालों को तो सुविधा हो जाती है, पर बायें या जायें मुड़ने वालों के लिये पूरा चक्कर लगा कर जाना पड़ता है। अष्टचक्रीय आकृतियाँ बन जाती हैं यदि हर दिशा के यातायात को बिना रुके जाना हो। लोकतन्त्र में भी यदि लोगों के भिन्न विचारों और अपेक्षाओं को समाहित करना हो तो ऐसी ही व्यापक आधारभूत संरचनायें बनानी होती हैं और जब तक वह संभव न हो, अनुशासित ढंग से व्यवस्था चलानी होती है।
यातायात व्यवस्था का यदि कोई मानक हो सकता है तो वह है, चलने वाली गाड़ियों का न्यूनतम विलम्ब। वह विलम्ब शून्य हो जाये तो सर्वोत्तम, पर उसके लिये व्यापक आधारभूत संरचनायें आवश्यक होंगी। जो भी हो, पर प्रयास की दिशा वही हो जिससे यह विलम्ब न्यूनतम हो जाये। ऐसा नहीं है कि विलम्ब न्यूनतम हो जाने से सारे वाहन एक गति में चलने लगेंगे। भिन्न वाहन होंगे, भिन्न चालक होंगे, वाहनों की अपनी क्षमता और चालकों की अपनी योग्यता होगी। हो सकता है कोई गतिशील वाहन में बैठा हुआ भी धीरे चला रहा हो, कोई चालक थका हुआ हो, कोई अपने वाहन को क्षमता से भी अधिक खींच रहा हो। सब उसी के अनुसार गतिशील होंगे पर व्यवधान रहने से उन्हें अपनी क्षमता से जीने का अवसर न मिलना सड़कों पर उपजे असंतोष का प्रथम स्वर होता है, यही लोकतन्त्र में भी होता है।
कभी दो ट्रकों को सड़क पर प्रतियोगिता करते हुये देखा है? यदि भारी भरकम दो ट्रक मदत्त हो जायें तो छोटे वाहन दूर ही रह कर आगे बढ़ते रहते हैं, पास रहकर अपने जीवन को संकट में नहीं डालते हैं। कभी देखा है कि जब दो बड़े ट्रक दोनों लेनों पर एक ही गति से और बराबर से चलते हैं तो पीछे से पों पों करती गतिमय और क्षमतावान फ़ोर्ड और बीएमडब्लुओं को कितनी मानसिक पीड़ा होती होगी। लोकतन्त्र की प्रक्रियाओं में भी देखा जाये तो इस तरह मिल जुल कर रास्ता छेकने वालों की कमी नहीं है। उनके बीच तनिक सी भी जगह मिल जाये तो लहराते हुये कई गाड़ियाँ देखते ही देखते आगे निकल जाती है। बग़ल की लेन से जा रही यदि किसी गाड़ी से आगे निकलना होता है तो कई बार लोग बहुत अधिक गति पकड़ लेते हैं।
किसी गाँव या क़स्बे के पास से निकलते हुये स्पीड ब्रेकरों से सामना होता है और आप न चाहकर भी अपनी गति नियन्त्रित करते हैं, आप सावधानी से गति का पालन करते हैं। कई वाहनों की गाड़ी का मॉडल ही नहीं, उसकी नम्बर प्लेट के अंक भी उसके अतिविशिष्ट होने के संकेत दे जाते हैं। हम जैसे कुछ समझदार वाहन सड़क पर तब निकलते हैं जब यातायात कम होता है। रोड पर बने गढ्ढे न केवल गति कम करते हैं वरन वाहन और चालक का कचूमर भी निकाल देते हैं। रात में सामने की ओर से आते हुये वाहनों की लाइटों से आँखें चुँधियाँ जाती हैं। रोड के किनारे लगे हुये बड़े बड़े विज्ञापनों के बोर्ड आपका ध्यान भंग करने का प्रयास करते हैं। बहुधा बड़े नगर या गंतव्य पर पहुँचने के समय बड़े बड़े जाम लग जाते हैं। ये सारी साम्यतायें मुझे लोकतन्त्र में यथारूप दिखती हैं।
मैंने ऐसे चालक और वाहन भी बहुतायत में देखें हैं जो सड़क पर बिखरी संभावनाओं से अलग चुपचाप समगति बनाये रहते हैं और अपने गंतव्य पर पहुँचते हैं। ऐसे अनुशासन में रहने वालों की संख्या बहुत अधिक है, सड़क का तन्त्र ऐसे ही लोगों से स्थिर रहता है, चलता रहता है। नहीं तो गतिमय प्रयोग करने वाले बहुत से कहीं सड़क के किनारे दुर्घटनाग्रस्त पड़े होते हैं, क्योंकि सब के सब तो प्रथम आ नहीं सकते।
आप भी जब अगली बार सड़क यात्रा करें तो सड़क पर हो रहे उन प्रयोगों को अवश्य देखियेगा जो लोकतन्त्र में या तो चल रहे हैं या निकट भविष्य में उनकी संभावना बन रही है। हो सकता है कि कभी ऐसे ही अपना देश लाभान्वित हो जाये।
चित्र साभार - www.colourbox.com, www.sfgate.com
सडको पर लोकतन्त्र का ड्रामा करने वाले भी सडक में बने गढढे जैसे ही हैं । सडको को सुचारू रूप से चलने देना चाहिये लोकतंत्र की तरह
ReplyDeleteआपका स्वेटर वाला लेख अमर उजाला में पढा था मैने । यदि आपको पता हो तो सम्पादकीय पेज के नीचे साइबर संसार कालम में
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा लेख सर |
ReplyDeleteलोकतंत्र स्वयं में एक अति सकारात्मक परिवेस है जो सबको रहने ,सोचने,कहने ऐर कहने की पूर्ण आजादी देता है ,परंतु यह तो मनुष्य का चारित्रिक व स्वाभाविक जातिगत दोष कि वह अपनी स्वंतंत्रता का अर्थ मर्यादायों का उल्लंघन और दूसरे के अधिकार के हनन के अपने मौलिक अधिकार के रूप में समझने लगता है। सड़कों पर लोकतंत्र में भी मनुष्य व समाज का यही चारित्रिक दोष परिलक्षित होता है ।
ReplyDeleteलोकतंत्र स्वयं में एक अति सकारात्मक परिवेस है जो सबको रहने ,सोचने,कहने ऐर कहने की पूर्ण आजादी देता है ,परंतु यह तो मनुष्य का चारित्रिक व स्वाभाविक जातिगत दोष कि वह अपनी स्वंतंत्रता का अर्थ मर्यादायों का उल्लंघन और दूसरे के अधिकार के हनन के अपने मौलिक अधिकार के रूप में समझने लगता है। सड़कों पर लोकतंत्र में भी मनुष्य व समाज का यही चारित्रिक दोष परिलक्षित होता है ।
ReplyDeleteआगाह करती हुई प्रबोधिनी प्रस्तुति । जब मैं सडक पर चलती हूँ तो अपने आप से बार-बार कहती हूँ- " देखो शकुन ! तुम्हें स्वयं भी बचना है और दूसरों को भी बचाना है । " इसी में सबका कल्याण है ।
ReplyDeleteभारत में किसी भी तंत्र के लिए कानून से बड़ा ताल-मेल की प्राथमिकता है. बढ़िया आलेख.
ReplyDeleteयात्रा तो सब करते हैं ,यही अनुभव ही होता है
ReplyDeleteलेकिन सब के बश की बात नहीं होती न
इतनी खूबसूरती से अभिव्यक्ति करना
हार्दिक शुभकामनायें
आप भी जब अगली बार सड़क यात्रा करें तो सड़क पर हो रहे उन प्रयोगों को अवश्य देखियेगा जो लोकतन्त्र में या तो चल रहे हैं या निकट भविष्य में उनकी संभावना बन रही है। हो सकता है कि कभी ऐसे ही अपना देश लाभान्वित हो जाये।
ReplyDeletejarur ....:))
बहुत ही उम्दा लेख सर।
ReplyDeleteWe have been following adhocism.
ReplyDeleteसड़क पर हो रहे उन प्रयोगों को अवश्य देखियेगा जो लोकतन्त्र में या तो चल रहे हैं या निकट भविष्य में उनकी संभावना बन रही है। ध्यान रखेंगे।
ReplyDeleteक्षमता से जीने का अवसर सभी को अवश्य प्राप्त हो।
ReplyDeleteनिरीक्षण रेलवे का और नज़रें सड़कों के माध्यम से लोकतंत्र को रेखांकित करती!! बहुत ख़ूब!!
ReplyDeleteआपने पहली पंक्ति में डिस्क्लेमर डालकर "उस घटना" के बारे में सोचने पर विवश कर दिया!!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteजैसी सड़क वैसा तंत्र मान लिया जाय ? आप पूर्वी उत्तर प्रदेश की यात्रा कीजिए। :)
ReplyDeleteबिलकुल बहुत समानताएं हैं सिस्टम और सड़क पर चलते जीवन में ....
ReplyDeleteकुछ नियमों का पालन और साथ चलने वालों के प्रति संवेनशीलता और धैर्य का भाव बहुत कुछ बदल सकता है ....
आपकी इस प्रस्तुति को आज की राष्ट्रीय मतदाता दिवस और ब्लॉग बुलेटिन (मेरी 50वीं बुलेटिन) में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteगणतन्त्र दिवस की शुभकामनायें और बधाईयां...जय हिन्द...
ReplyDeleteलोक-तंत्र का गहन निरीक्षण .
ReplyDeleteलोकतंत्र हो या राजतंत्र, सभी मे एक अनुशासन है। यदि इस अनुशासन को नहीं माना गया तो फिर यह अराजकता ही है।
ReplyDeleteयहाँ तो 'free for all' सिचुएशन है ,क्या सड़क ,क्या लोकतंत्र |
ReplyDeleteसड़क लोकतान्त्रिक अभिव्यक्ति का प्रथम सोपान है ......सारगर्भित आलेख
ReplyDeleteसडक पर चलते हुए सदा यही लगता है कि भारत का लोकतंत्र कहीं है तो सडकों पर।
ReplyDeleteVery apt considering the scenario these days
ReplyDeleteसड़क और व्यवस्था का विस्तृत घालमेल!!
ReplyDeleteसड़क के रास्ते ही लोकतंत्र आता है अपने देश में तो खास कर ...
ReplyDeleteइस पोस्ट के राजनीतिक निहितार्थ भी रोचकता लिए हो सकते हैं
ReplyDeleteक्या बात है, क्या नज़रिया है
ReplyDeleteसड़क पर लोकतंत्र की खोज।
ReplyDeleteवाह बहुत बढिया..सडको पर लोकतन्त्र
ReplyDeleteबेहतरीन तुलना की है आपने, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
सड़क पर अनुशासन में चलनेवाले वाहनों की वजह से ही यातायात थोडा-बहुत सुगम बना हुआ है, बिकुल वैसे ही जैसे अच्छे लोगों की वजह से दुनिया जीने लायक बनी हुई है.
ReplyDeleteमुझे ऐसा लोकतंत्र ट्रेन में महसूस होता है । एक गति एक लक्ष्य ,पर कोई भीड़ में , कोई सहजता से ,कोई आरक्षित ,कोई अनारक्षित ,किसी का अवसर छूट गया ,किसी का साथ छूट गया ।
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