28.12.13

सांस्थानिक समर्थन का अर्थ

पिछले दस वर्ष के इतिहास और भविष्य की अपेक्षाओं के संदर्भ में देखता हूँ तो मुझे सांस्थानिक समर्थन का अर्थ ९ स्पष्ट कार्यों या स्तरों में समझ आता है। उसमे प्रथम ६ स्थूल हैं और भिन्न भिन्न रूपों में उपस्थित हैं, पर वे आधार कितने दृढ़ हैं और उन पर कितना निर्भर रहा जा सकता है, यह एक यक्ष प्रश्न है। यदि हिन्दी ब्लॉग के लिये एक व्यापक आधार बनाना है तो हर स्तर को आत्मनिर्भर, स्वतन्त्र और सुदृढ़ बनाना होगा। अन्तिम ३ विरल हैं, ब्लॉग जगत में यत्र तत्र छिटके भी हैं, पर इतने आवश्यक हैं कि प्रत्येक ब्लॉगर उनको चाहता है।  

प्रथम ६ हैं, आधार(प्लेटफ़ार्म), प्रेषक(फीडबर्नर), फीडरीडर, चर्चाकार, संकलक, संग्रहक। अन्तिम ३ हैं, उत्साहवर्धक, मार्गदर्शक, व्यावसायिक उत्प्रेरक। चर्चा के लिये प्रत्येक बिन्दु पर प्रकाश डालना आवश्यक है। हो सकता है कि कोई पक्ष सहज या सरल लगे, पर समग्रता की दृष्टि से उन पर भी विहंगम दृष्टि आवश्यक है।

प्रत्येक आधार है आवश्यक
पहला है आधार या प्लेटफार्म। ब्लॉगर या वर्डप्रेस ऐसे ही दो आधार हैं। उनकी निशुल्क सेवाओं का निश्चय ही बहुत महत्व रहा है और यदि वे न होतीं तो ब्लॉग जगत अपने वर्तमान स्वरूप में न होता। अधिकांश ब्लॉग अभी भी निशुल्क हैं, उन पर उपयोगकर्ताओं को अभिव्यक्ति का अधिकार है। उन पर लिखा हुआ साहित्य और प्रचार की दृष्टि से उनका व्यावसायिक उपयोग सेवा देने वाली कम्पनियों के हाथ में ही है। भला सोचिये, कोई आप पर धन व्यय कर रहा है, कोई न कोई निहितार्थ तो होगा ही। आपका माध्यम आपके नियन्त्रण में है ही नहीं। भगवान न करे, कभी कोई कुदृष्टि हो गयी औऱ आपकी वर्षों की साधना स्वाहा। यह प्रथम पग है और बिना इस पग के कहीं पर भी छलांग लगाना अन्धश्रद्धा है। ऐसा नहीं है कि इस प्लेटफार्म का निर्माण करने में बहुत धन व्यय होगा। थोड़ा बहुत तो निश्चय ही होगा, साइट, सर्वर, सुरक्षा आदि में, पर सांस्थानिक समर्थन के लिये वह अत्यावश्यक भी है।

एक बार लोगों ने अपना ब्लॉग बना लिया, तब प्रेषक या फीडबर्नर का कार्य प्रारम्भ होता है। जब कभी भी आप अपने ब्लॉग पर कुछ नया लिखेंगे, उसे फीडबर्नर तुरन्त ही जान लेता है। ऐसा वह उस प्रक्रिया के रूप में करता है जिसमें सारे ब्लॉगों की स्थिति फीडबर्नर सतत जाँचता रहता हैं और पिछली स्थिति की तुलना में हुये बदलाव को एकत्र करता रहता है। इन कम्पनियों का धन कमाने का अपना कोई साधन नहीं होता है क्योंकि इनका कार्य परोक्ष में चलता है और इन्हें प्रचार का अवसर नहीं मिल पाता है। प्लेटफार्म या फीडरीडर यह कार्य भी करते रहते हैं क्योंकि ऐसा करने से उन तक भी पाठकों का प्रवाह बना रहता है और प्रचार से  होनी वाली आय के लिये प्रचार मिलता है।

एक बार प्लेटफार्म या ब्लॉग पर लिखी लेखक की बात फीडबर्नर की सहायता से पाठक तक पहुँचा दी जाती है तो पाठक को भी अपनी रुचि के विभिन्न ब्लॉगों को सुविधानुसार पढ़ने के लिये एक जगह एकत्र करने की आवश्यकता होती है। यह कार्य फीडरीडर करता है। कुछ महीने पहले जब गूगल रीडर बन्द हुआ था तो पूरी की पूरी ब्लॉग व्यवस्था पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया था। लगा था कि अब कैसे ब्लॉग पढ़े जा सकेंगे, बिना पाठक कैसे लेखकों में उतना ही उत्साह रह पायेगा? वह तो भला हो फीडली का कि हम लगभग पहले की तरह ही लेखन व पठन कर पा रहे हैं। वैकल्पिक व्यवस्था के अन्तर्गत फीडबर्नर नयी पोस्टों की जानकारी ईमेल के माध्यम से भी प्रेषित कर सकता है, पर पाठकों को ईमेल में सैकड़ों अनपढ़े लेखों को रखने की तुलना में एक अलग व्यवस्था भाती है। फीडरीडर में भी आत्मनिर्भरता सांस्थानिक समर्थन का तीसरा स्तर है।

एक बार लेखक और पाठक में संपर्क स्थापित हो जाता है तो लिखने और पढ़ने का प्रवाह बना रहता है। तब लेखक को अधिक पाठक मिले, पाठक को अधिक लेखक मिले, ये निष्कर्ष सहज ही हैैं, ब्लॉग के विकास और विस्तार के लिये। इस स्तर पर चर्चाकार और चर्चामंच अपना कार्य करते हैं। सौभाग्य से हिन्दी ब्लॉग में यह कार्य अच्छे ढंग से चल रहा है। सुधीजन न केवल अच्छे ब्लॉग लिखते और पढ़ते हैं, वरन उन्हें सबके सामने लाते हैं और प्रेरित करते हैं। आज भी चर्चाकारों के माध्यम से हर दिन कुछ न कुछ नये और स्तरीय ब्लॉगों से जुड़ता रहता हूँ और उनको पढ़ता रहता हूँ। यह एक साझा मंच होता है जहाँ पर ब्लॉग नित विकसित होता है। यह अभी तक व्यक्तिगत स्तर पर ही हो रहा है, इस प्रक्रिया को भी सांस्थानिक समर्थन की आवश्यकता है और वह भी व्यापकता में। यह एक पूर्णकालिक कार्य है, ढेर सारे ब्लॉगों को पढ़ना और उनमें से स्तरीय चुनना वर्षों के साहित्यिक अनुभव से ही आता है। अनुभवी चर्चाकारों की उपस्थिति हिन्दी ब्लॉग व साहित्य के लिये शुभ लक्षण है, यह लक्षण और भी घनीभूत हो और साहित्य का स्थायी अंग हो जाये। 

अगला स्तर है संकलक का, चर्चाकारों के सहित हर पाठक को ऐसा मंच चाहिये जहाँ पर हिन्दी ब्लॉग जगत की प्रत्येक पोस्ट के बारे में जाना जा सके। नये लेखकों के लिये यह मंच प्रारम्भिक पड़ाव हो। अपना ब्लॉग बनाने के बाद वे इसमें स्वयं को पंजीकृत कर सकते हैं जिससे वह ब्लॉग पढ़ने वाले सारे पाठकों की दृष्टि में आ सकें। यही नहीं, संकलकों में इस बात की भी जानकारी हो कि कोई पोस्ट कितनी बार पढ़ी गयी, हर बार उसे कितनी देर पढ़ा गया, लेखन के कितने वर्षों के बाद भी उसे पढ़ा जा रहा है। इस तरह के मानकों से कालान्तर में पाठकों को अच्छा साहित्य ढूढ़ने में सहायता मिलेगी। यही नहीं संकलकों में खोज की उन्नत व्यवस्था हो, जिससे किसी भी विषय पर क्या लिखा जा रहा है, कितना लिखा जा रहा है, सब का सब सहज रूप से सामने आ जाये। संकलकों के माध्यम से न केवल नये लेखकों को सहायता मिलेगी वरन हर स्तर पर पाठकों को ब्लॉग जगत को समग्रता से देखने का अवसर भी मिलेगा।

अगला स्तर संग्रहक का है। यह एक व्यापक कार्य है, इस स्तर में अब तब हिन्दी साहित्य में लिखा हुया एक एक शब्द संग्रहित हो। प्रश्न यह उठ सकता है कि क्या संग्रहणीय है, क्या नहीं? इस पर अधिक चर्चा न कर इतिहास की दृष्टि से अधिकाधिक संग्रहित किया जाये। संभव है जो आज संग्रहण योग्य न लगे, हो सकता है वह भविष्य में सर्वाधिक पढ़ा जाये। साहित्य का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा है औरर उनसे सीखने के क्रम में सबकुछ संग्रहित किया जाये। डिजिटल रूप में संग्रहण सरल भी है और अधिक समय तक सुरक्षित भी रखा जा सकता है।
   
इस समय देखा जाये तो प्रत्येक स्तर के लिये एक अलग व्यवस्था है। कहीं पर भी कोई क्रम टूटा तो ब्लॉग आंशिक या पूर्ण रूप से प्रभावित हो जायेंगे। कहीं पर भी लगा तनिक सा भी झटका हमें पूरी तरह से हिला जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि ये सारे स्तर एकीकृत हों और हमारे नियन्त्रण में हों। इस परिप्रेक्ष्य में सांस्थानिक समर्थन से मेरा आशय ब्लॉग की व्यवस्था को न केवल और अधिक सुविधाजनक बनाना है, वरन उसे अनिश्चितता से पूर्णतया बाहर लाना है।

इन सारे स्तरों को स्कीकृत करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिये। हमारा एक ही वेबपेज हो, उसी में संबंधित सारे ब्लॉग हों। उसी वेबपेज में हमारी रुचियों के अनुसार फीडरीडर भी हो। फीड भेजे जाने की प्रक्रिया पूर्णतया आन्तरिक हों। संकलक भी उसी पृष्ठ से ही दिख जाये, किसी विषय से संबंधित सारी पठनीय पोस्टें हमारे सम्मुख हों। चर्चा के लिये हम उसी पेज से उन पर अपनी संस्तुति देकर चर्चा के लिये प्रेषित कर सकते हों। एक व्यवस्था के अनुसार विषयानुसार सर्वाधिक संस्तुति की गयी पोस्टें स्वतः ही उसी क्रम में चर्चामंचों में दिखायी पड़ें। इस प्रकार ब्लॉग के लिये एक स्थान पर ही जाना पड़ेगा और वहीं से सारे कार्य सम्पादित हो जाया करेंगे, बिना किसी घर्षण के। 

भारत में न प्रतिभा की कमी है, न धन की और न ही संसाधनों की। हिन्दी के प्रति प्रेम भी हमारा है और उत्तरदायित्व भी हमको ही लेना होगा। स्वयं सक्षम होते हुये भी किसी अन्य पर आश्रित बने रहना और आधार हटने पर सामूहिक विलाप करना हम जैसे प्रतिभावान समाज को शोभा नहीं देता है। हम ब्लॉग व्यवस्था के लिये किसी से भी अच्छा मंच तैयार कर सकते हैं, जो भी सांस्थानिक समर्थन करें, उसे गुणवत्ता और क्रियाशीलता की दृष्टि से उत्कृष्ट बना सकते हैं। पहल तो करनी ही होगी, कहीं ऐसा न हो कि अपेक्षायें हमसे कहीं आगे निकल जायें और हम योगदान के स्थान पर अश्रुदान करने में लगे रहें।

अन्तिम ३ स्तरों पर चर्चा अगली पोस्ट में।

चित्र साभार - www.oxy.edu

25.12.13

हिन्दी ब्लॉग और सांस्थानिक समर्थन

आज से दस वर्ष पहले आलोकजी ने पहला हिन्दी ब्लॉग नौ दो ग्यारह बनाया था। तब संभवतः किसी को अनुमान नहीं होगा कि डायरीनुमा ढाँचे में स्वयं को इण्टरनेट पर व्यक्त करने वाला यह माध्यम इतना व्यापक, सशक्त और लोकप्रिय होकर उभरेगा। अभावों से प्रारम्भ हुयी यात्रा संभावनाओं का स्रोत बन जायेगी, यह किसने सोचा था? हिन्दी ब्लॉग न केवल पल्लवित हो रहा है, वरन लाखों रचनाकारों के लिये एक आधारभूत मंच तैयार कर रहा है, जिस पर भविष्य के साहित्यिक विस्तार मंचित होंगे, भाषायी आकार संचित होंगे। अंग्रेजी की तुलना में देखा जाये तो हिन्दी ब्लॉगिंग अभी भी विस्तारशील है, पर उसका कारण हिन्दी रचनाकारों में उत्साह व प्रतिभा की कमी नहीं है। जैसे जैसे कम्प्यूटर और इण्टरनेट हिन्दी जनमानस को उपलब्ध होता जायेगा, हिन्दी ब्लॉगिंग का आकार बढ़ता जायेगा।

संख्या के पश्चात गुणवत्ता की सुध लेनी होती है। यह सत्य है कि गुणवत्ता के लिये प्रतिभा के साथ सतत श्रम की आवश्यकता होती है, श्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ आने में समय लेती हैं। इसके लिये आवश्यक है कि लोग ब्लॉगिंग में बने रहें। पहले वर्ष के बाद ही लगभग १५ प्रतिशत लोग ब्लॉगिंग छोड़ देते हैं, जो बने रहते हैं उन्हें रस आने लगता है। ब्लॉगिंग में रोचकता बनाये रखने के लिये सृजनात्मकता भी चाहिये और विषयात्मक गहराई भी, यही दो पक्ष गुणवत्ता के वाहक बनते हैं। गुणवत्ता से भरी अभिव्यक्तियाँ न केवल स्वयं को संतुष्ट करती हैं, वरन पाठकों को भी वांछित आहार देती हैं, एक बार नहीं, बार बार। मुझे आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता तब होती है जब आज से चार वर्ष पूर्व लिखे गये किसी लेख पर पाठक की टिप्पणी आ जाती है। यहीं ब्लॉगिंग का सशक्त पक्ष है, यही ब्लॉगिंग का सौन्दर्य भी है, नहीं तो कौन चार वर्ष पुराने समाचार पत्रों या पत्रिकाओं को पढ़ता है, और न केवल पढ़ता है वरन लेखक को अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराता है।
 
कुछ ब्लॉगरों को जब मैं कहता हूँ कि उनकी कोई पोस्ट संग्रहणीय हैं तो वे बहुधा सकुचा जाते हैं। उन्हें लगता है कि स्वान्तः सुखाय के लिये लिखी गयी पोस्ट को इतना मान क्यों? विनम्रता एक अच्छा गुण है पर वह साहित्यिक प्रभातों को प्रकाश फैलाने देने में सकुचाने क्यों लगता है। प्रतिभा अपना आकार, प्रभावक्षेत्र और कालक्षेत्र स्वयं निर्धारित करती है, रचनाकार को उसे विनम्र भाव से ही फैलने देना चाहिये। स्वान्तः सुखाय में यदि तुलसीदास भी सकुचाये रहते तो रामचरितमानस का अमृत कोटि कोटि कण्ठों में कैसे पहुँचता? हमने जो भी साहित्य पढ़ा है, वह इसलिये संभव हो सका कि हमारे पूर्वजों ने केवल संग्रहणीय लिखा वरन उसे आगामी पीढ़ियों के लिये संग्रहित रखा। हमारा भी दायित्व बनता है कि हम भी आगामी पीढ़ियों के लिये पढ़ी जा सकने योग्य गुणवत्ता बनाये और साथ ही साथ यह प्रयास भी करें कि ज्ञानसंग्रह यथारूप बना रहे।

स्वप्न बड़े हैं, अड़े खड़े हैं
कुछ लोगों को संशय हो सकता है कि जो भी हिन्दी ब्लॉगों में लिखा जा रहा है, वह स्तरीय नहीं है। माना जा सकता है कि स्थापित मानकों पर पहुँचने के लिये वर्षों लग जायेंगे। यह भी माना जा सकता है कि ब्लॉग के माध्यम से सबको लेखन का अधिकार मिल जाने से कोई भी अपने मन की कह सकता है, बिना स्तर पर ध्यान दिये। किन्तु यह प्रक्रिया तो सदा से होती आयी है। जब ब्लॉग नहीं भी होते थे तब भी ढेरों ऐसी पुस्तकें प्रकाशित होती थीं जिन्हें लेखक के अतिरिक्त कोई पढ़ता भी नहीं था। कोई पुस्तक पठनीय है या नहीं, इसके पीछे अनुभवी संपादकों का संचित ज्ञान और विवेकपूर्ण निर्णय रहा करते थे। पुस्तकालय में शोभायमान और अपना एकान्तवास झेल रही ऐसी पुस्तकों से कहीं अधिक व्यावहारिक है ब्लॉग में व्यक्त किसी नवल किशोर का प्रयास, जिसके माध्यम से वह शब्दों में स्वयं को ढूँढता है।

जैसा भी हो, जो भी है, उसी स्तर के आगे सोचना प्रारम्भ करना है और प्रवाह की मात्रा और गति बनाये रखनी है। आने वाले दशकों में लोग आश्चर्य करेंगे कि किस तरह से हिन्दी ब्लॉगिंग ने लाखों की संख्या में साहित्यकारों का निर्माण किया है, किस तरह से हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या बढ़ायी है, किस प्रकार से लेखन ली गुणवत्ता बढ़ाने में सहयोग दिया है और किस प्रकार से साहित्योत्तर अन्यान्य विषयों को हिन्दी से जोड़ा है। यदि इस स्वप्न को साकार करने की इच्छा को फलीभूत होते देखना है तो हमें निकट भविष्य की कम, दूरस्थ भविष्य की संरचना सजानी होगी। दूरस्थ भविष्य, जिसमें लाखों की संख्या में साहित्यकार होंगे, करोड़ों की संख्या में पाठक होंगे, सैकड़ों की संख्या में विषय होंगे, विषयवस्तु इतनी स्तरीय कि उन पर शोधकार्य किया जा सके। यदि वह दूरस्थ भविष्य पाना है तो ब्लॉग के माध्यम को न केवल स्वीकारना होगा वरन उसके हर पक्ष को सशक्त करना होगा। यह महतकर्म वैयक्तिक स्तर पर संभव नहीं है, इसमें संस्थागत प्रयास लगेंगे, और इन प्रयासों को कोई नाम देना हो तो उसे सांस्थानिक समर्थन कहा जायेगा। वर्धा में भी सांस्थानिक समर्थन पर प्रारम्भिक चर्चा हुयी थी।

हिन्दी के साथ दुर्भाग्य यह रहा है कि उसे प्रेम तो व्यापक मिला है, सदा मिला है, भावनात्मक मिला है। किन्तु जो ढाँचा विस्तार और विकास के लिये तैयार होना था, उसे यह मान कर प्रमुखता नहीं दी गयी कि जब इतने बोलने वाले हैं तो स्वतः ही यह भाषा विकसित हो चलेगी। ऐसा पर है नहीं, यदि ऐसा होता तो दशा चिन्तनीय न होती। मेरा यह स्थिर विचार है कि बिना सांस्थानिक ढाँचे के हिन्दी अपने सुदृढ़ व सुगढ़ आकार में नहीं आ सकती है। पारम्परिक ढाँचे पारम्परिक माध्यमों के लिये तो ठीक थे पर ब्लॉग के प्रवाह को सम्हालने के लिये एक विशेष और सुव्यवस्थित ढाँचा चाहिये, एक ढाँचा जो कई दिशाओं से आने वाले महत प्रवाह को अपने में समेट सके।

शत द्वार हमारे घर में हों
हिन्दी ब्लॉग का सौभाग्य यह भी है कि इसमें न जाने कितनी दिशाओं से लोग आ रहे हैं। अभिव्यक्ति की क्षमता हर ओर छिटकी है, यही नहीं पाठक भी नये विषयों को पढ़ना चाहता है, अपना ज्ञानवर्धन विभिन्न विमाओं में ले जाना चाहता है। सोचिये कितना ही अच्छा होगा कि कोई वैज्ञानिक अपने विषय की विशेष विमा ब्लॉगिंग के माध्यम से व्यक्त करेगा, कितना ही अच्छा होगा कि कोई खिलाड़ी, कोई घुमक्कड़, कोई प्रशासक, कोई संगीतज्ञ ब्लॉग के माध्यम का आधार लेकर पाठक के लिये नयापन लेकर आयेगा। यही नहीं ब्लॉगिंग सीखने का भी माध्यम बनकर उभर रहा है। लोगों का इस प्रकार जुटना सबके लिये लाभप्रद रहेगा।   

हमें न केवल नये विषयों को समाहित करना है, वरन उनको विस्तारित और गुणवत्तापूर्ण करने के लिये भी करने के लिये प्रेरित करना है। केवल साहित्य तक ही केन्द्रित न रह जाये हिन्दी का विस्तार, ज्ञान के सभी नये क्षेत्रों को समझने और व्यक्त करने की क्षमता हो हिन्दी में। इसके लिये ब्लॉग सा माध्यम सहज ही मिला जा रहा हो तो उसे छोड़ना नहीं चाहिये, वरन त्वरित अपनाना चाहिये।

हमने जिस स्तर पर सफलता को पूजा है, उसे जितना मान दिया है, उसका शतांश भी यदि संघर्ष और असफलता के ऊपर  खपाया होता तो हमारे पास प्रतिभाओं का समुद्र होता। सांस्थानिक समर्थन न केवल सफलता को उभारेगी वरन संघर्ष को सहलायेगी और असफलता को पुनः उठ खड़ा होने के लिये प्रेरित भी करेगी। हमें सफल तो दिखते हैं पर असफल नहीं। यह उपक्रम सफल की चर्चा का न होकर उस असफलता के विश्लेषण का हो जिसके माध्यम से लाखों को जोड़ा जा सके।

कभी कभी सांस्थानिक समर्थन के नाम पर बड़े और सक्षम संस्थान एक लाठी का सहारा टिका कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। इस बात में संशय न हो कि प्रभाव प्रयास से लेशमात्र भी अधिक नहीं होगा। व्यापक प्रभाव की अपेक्षा है तो प्रयास भी वृहद हों। ऐसा नहीं है कि कोई आधार ही उपस्थित नहीं है, पर जो है वह निश्चय ही अपर्याप्त और अस्थिर है।

आने वाली कड़ियों में इस बात की चर्चा करेंगे कि सांस्थानिक समर्थन का आकार, आधार और रूपरेखा क्या हो। यह विषय हम सबको न केवल प्रिय है वरन हमारी ब्लॉगिंग के भविष्य की रीढ़ भी है। चलें, अपनी राह समझने के क्रम में थोड़ा और चलें।

21.12.13

रिक्त मनुज का शेष रहेगा

यही दृश्य हमने देखा था
हम कार्यालय से उतरे थे,
दिन के कार्य दिवंगत कर के,
देखा सम्मुख उतरे आते,
मित्र हमें जो मन से भाते,
पीछे आये दो सेवकगण,
वाहन में कुछ करके अर्पण,
ठिठके पग, जब देखा जाकर,
आँखे फैली दृश्य समाकर,
भर भर घर फ़ाइल के बक्से,
हम पूछे तो बोले हँस के,
शेष रहा जो कार्य करेंगे,
घर जाकर वह रिक्त भरेंगे,
काम बहुत है, समय बहुत कम,
इसी विवशता में डूबे हम।

प्रश्न चिन्ह जब रहा उपस्थित,
खोले मन के द्वार अनिश्चित,
हम औरों के जैसे ही थे,
किन्तु आज तक बड़े जतन से,
इस स्थिति को पाला पोसा,
सबका हम पर पूर्ण भरोसा,
चाहें, अब कितना भी चाहें,
चक्रव्यूह से निकल न पायें,

जब भी दिन कुछ हल्का दिखता,
ईश्वर ढेरों उलझन लिखता,
सब जन आते, कहते आकर,
गहन समस्या सम्मुख लाकर,
दर्शनीय हों मार्ग हमारे,
आये हम सब द्वार तुम्हारे,
सुनते हम भी तत्पर होकर,
समयचक्र की सब सुध खोकर,
समाधान की राह निकलती,
पहियों की गति आगे बढ़ती,
मन में भाव जगें करने के,
तन्त्र व्याप्त कंटक हरने के,

उनसे निपटे तो ऊपर से,
आते बारम्बार संदेशे,
अनुभव की है हानि निरन्तर,
पकड़े जाते समय समय पर,
सम्बंधित या आरम्भिक ही,
संशय किंचित, सामूहिक भी,
कार्य सभी उलझाये रहते,
बैठक में बैठाये रहते,

कार्यक्षेत्र में कभी निरीक्षण, 
मानकता के गहन परीक्षण,
इतने विस्तारों में जीना,
गतिमयता, विश्राम कभी ना,
कार्यालय में क्षणभर को ही,
दिन पूरा हो जाता यों ही,
फाइल रहें दर्शन की प्यासी,
महत प्रतीक्षा, और अभिलाषी,
नहीं छोड़ तब जाना होता,
यह संबंध निभाना होता,

सुने शब्द, मन नम हो आया,
किन्तु बुद्धि ने तुरत चेताया,
बोले हम, हमको संवेदन,
किन्तु आप से एक निवेदन,
घर में रहते तीन जीव हैं,
उनके भी सपने सजीव हैं,
कर्तव्यों के मौन पढ़ रहे,
किन्तु अघोषित मौन गढ़ रहे, 
जितना आवश्यक कार्यालय,
उतना आवश्यक हृदयालय,
तनिक देर यदि हो भी जाये,
शेष कार्य पर घर न आये,
घर में बस घर का गुंजन हो,
संबंधों का अभिनन्दन हो,

सच पूछो अच्छा लगता है,
कर्मशील सच्चा लगता है,
किन्तु नहीं वंचित रह जाये,
कर्मठ भी शीतलता पाये,
द्वन्द्व सदैव विशेष रहेगा,
रिक्त मनुज का शेष रहेगा।

18.12.13

चलो रूप परिभाषित कर दें

नेहा
वत्सल

(वत्सल अर्चना चावजी के सुपुत्र हैं, मृदुल, सौम्य और विलक्षण प्रतिभा के धनी, न जाने कितने क्षेत्रों में। नेहा उनकी धर्मपत्नी हैं। स्नेहिल वत्सल ने नेहा के कई चित्रों का मोहक स्वरूप जब फेसबुक में पोस्ट किया तो आनन्द में अनायास ही शब्द बह चले)

भाव उभारें, अमृत भर दें,
चलो रूप परिभाषित कर दें,

किन शब्दों में ढूँढ़े उपमा,
कैसे व्यक्त करें मन सपना,
कहना मन का रह न जाये,
अलंकार में बह न जाये,
ऊर्जान्वित उन्माद उकेरण,
शब्दों में शाश्वत उत्प्रेरण,
सघन सान्ध्रता प्लावित कर दें,
चलो रूप परिभाषित कर दें।

रंग हजारों, रूप समाये,
इन्द्रधनुष आकार बनाये,
जितने छिटके, उतने विस्तृत,
जितने उड़ते, उतने आश्रित,
हो जाये विस्मृत विश्लेषण,
रंगों में संचित संप्रेषण,
मूर्तमान संभावित कर दें,
चलो रूप परिभाषित कर दें।

कुछ हँसते से चित्र उतारूँ,
यथारूप, मैं यथा बसा लूँ,
जितना देखूँ, उतना बढ़ती,
आकृति सुखमय घूर्ण उमड़ती,
धूप छाँव का हर पल घर्षण,
दृष्टिबद्ध अधिकृत आकर्षण,
किरण अरुण अनुनादित कर दें,
चलो रूप परिभाषित कर दें।

प्रेम रूप के विग्रह गढ़ता,
भावजनित मन आग्रह पढ़ता,
रूप प्रेम पाकर संवर्धित,
कांति तरंगें अर्पित अर्जित,
एक दूजे पर आश्रय अनुपम,
रूप प्रेममय, पूर्ण समर्पण,
अन्तः प्रेम प्रभासित कर दें,
चलो रूप परिभाषित कर दें।

14.12.13

लुटे जुटे से

लुटे तभी थे, 
और आज भी, 
लुटे जा रहे।

जो जीते थे, 
अब रीते हैं,
जीत रहे जो,
वे भी भर भर,
मन में, मनभर,
अधिकारों को,
घुटे जा रहे।

दूल्हा, दुल्हन,
अपनी धुन में,
हम सब दर्शक,
बेगाने से,
बने बराती, 
जुटे जा रहे।

11.12.13

मिलकर जुटें

यदि कहीं अन्याय लक्षित जगत में,
जूझना था शेष, निश्चय विगत में,
स्वर उठें, निश्चय उठे, अधिकार बन,
सुप्त कर्णों पर टनक हुंकार सम,
पथ तकेंगे, कभी न लंका जलेगी,
बद्ध सीता, कमी हनुमत की खलेगी,
राम की होगी प्रतीक्षा, मर्म क्यों क्षत,
सेतु सागर पर बनाना, कर्म विस्तृत, 
हो अभी प्रस्तावना, हम सब जुटें,
प्रबल है संभावना, मिल कर डटें। 

7.12.13

कल्याणी

आपदा प्रबन्धन की एक परिचर्चा में गया था। आपदा प्रबन्धन का विषय भारत के लिये गंभीर होता जा रहा है। आपदा के बाद किस तरह से जनजीवन की रक्षा की जाये, किस तरह से पूर्वसंकेतों को पढ़ा जाये और क्या तैयारी करके रखी जाये, ये परिचर्चा के प्रमुख विषय थे। परिचर्चा बड़ी रोचक थी और अन्य व्यस्ततायें होने के बाद भी वहाँ से उठकर आना संभव नहीं हुआ। कितने पहले से कितनी तैयारी करके रखी जाये, क्या संसाधन सीमित समय में जुटाये जायें, इस पर मतभिन्नता स्वाभाविक थी। मतभिन्नता इसलिये कि कुछ मानते थे कि पहले से इतनी तैयारी करके रखी जाये कि आपदा के समय कम सोचना पड़े, कुछ मानते थे कि आपदा की दृष्टि से संसाधन जुटाकर रखना संसाधनों को व्यर्थ करने जैसा होगा, क्यों न हम निर्धारित करें कि आपदा के संकेतों के अनुसार हम संसाधन जुटायें।

इस तरह की कई परिचर्चायें हुयीं। उत्तराखंड में आयी बाढ़ और उड़ीसा में आये चक्रवात, हमारी स्मृतियों में अभी तक जीवित थे। उनसे जो भी सीखने को मिला, वे आगामी आपदाओं में हमें दृढ़ रखेंगे। निश्चय ही हम अनुभव के आधार पर ही सीखते हैं और तब अधिक सीखते हैं, जब पीड़ा गहरी होती है। हमारी सामान्य बुद्धि को आश्चर्य तब अधिक होता है जब हम नये को अपनाने की व्यग्रता और मूढ़ता में सदियों पुरानी बुद्धिमत्ता को तिलांजलि दे बैठते हैं।

बात बाढ़ और सूखे की चल रही थी, वक्ता डॉ विश्वनाथ थे, कर्नाटक में आई ए एस, बागलकोट और कोलार के पूर्व डीएम। यद्यपि उनसे व्यक्तिगत भेंट नहीं हो पायी, पर उनके अनुभवों ने प्रभावित अवश्य किया। उन्होंने बागलकोट में आयी बाढ़ और कोलार में पड़ने वाले सूखे के बारे में चर्चा की। जहाँ बाढ़ जैसी आपदा चार-पाँच दिनों में ही आ जाती है हमें सोचने के लिये पर्याप्त समय नहीं मिल पाता है, वहीं सूखे जैसी आपदा हमारे सामाजिक कुप्रबन्धन के इतिहास की गाथायें भी कह सकती है। उदाहरण कोलार का लिया जा सकता है पर बात पूरे भारतीय समाज पर ही लागू होती है।

कोलार में सूखे की समस्या है, पेयजल तक की गम्भीर समस्या है, कारण कम वर्षा भी है। यहाँ तक कि कुओं का जलस्तर १२०० से १६०० फीट तक चला गया है। इतनी बोरिंग के बाद भी पानी निकले, इसकी संभावना घटती जा रही है। रेलवे ने भी वहाँ कभी कई ट्रेनों में पानी भरने की व्यवस्था कर रखी थी पर पानी की कमी के कारण उसे बहुत वर्ष पहले छोड़ देना पड़ा है। सैकड़ों गावों और नगरीय क्षेत्रों में टैंकर से पानी भेजना पड़ता है। पहले यही समस्या और गहरी और व्यापक थी।

समस्या से जूझने वाले उसके मूल में जाते हैं, उस समय से पीछे जाना प्रारम्भ करते हैं जहाँ से समस्या प्रारम्भ होती है। इतिहास में झाँकते हैं, वे कालखण्ड देखते हैं जब सूखे की समस्या नहीं थी। वे तात्कालिक कारण देखते हैं, जो समस्या के मूल में थे। साथ ही उन उपायों को देखते हैं जिससे समस्या का कारण निष्प्रभावी हो सके।

कल्याणी या पुष्करणी
डॉ विश्वनाथ ने भी वही किया, पता किया कि पहले क्या व्यवस्था थी। कोलार आज से चार सौ साल पहले मैसूर राजा के अधिकार क्षेत्र में आता था। राजाओं ने व्यापक स्तर पर पूरे क्षेत्र में कल्याणी बनवायी थीं। कल्याणी या पुष्करणी के नाम से सीढ़ीदार और पक्के तालाबों का निर्माण उन स्थानों पर किया जाता था, जहाँ स्वाभाविक रूप से जल बह कर आता था, उस जलक्षेत्र के सबसे निचले स्तर पर। हर गाँव में एक कल्याणी या पुष्करणी तो अवश्य रहती थी। अंग्रेजों के आने के पहले तक पूरे मैसूर राज्य में जल के संचय की इतनी व्यवस्था थी कि उस समय किसी ने सोचा ही नहीं होगा कि आने वाली संततियाँ मूढ़ता की सीमायें पार कर प्यासे मरने की कगार पर खड़ी होंगी।

कल्याणी का भी वही हुआ जो भारतीय शिक्षा पद्धति का हुआ। उन्हें पाश्चात्य से बदल दिया गया, इसलिये नहीं कि पाश्चात्य पद्धतियाँ श्रेष्ठ थीं, इसलिये भी नहीं कि वे वैज्ञानिक थीं, बस इसलिये कि उत्कृष्ट और स्वायत्त प्राच्य पद्धतियों को उनके मूल से मिटाकर पाश्चात्य के द्वारा अधिरोपित कर दिया जाये, इसलिये कि भारतीय अपने समृद्ध इतिहास का गौरव न कर सकें। अंग्रेजों ने लोक निर्माण विभाग बनाया और कल्याणी पर होने वाला राजकीय व्यय कम होता चला गया। जो गाँव कर सकते थे, उनकी कल्याणी जीवित रही, उनका कल्याण जीवित रहा। जो गाँव असमर्थ थे, उनकी कल्याणी रख रखाव के अभाव में सूख गयीं।

सार्वजनिक, अनुपयोगी और कीचड़ बनी कल्याणी कूड़ाघर बनती गयीं। जनसंख्या का दबाव बढ़ा और कल्याणी अतिक्रमित होती गयीं। पहले नदियाँ, फिर गर्भजल का दोहन होता रहा। जब गर्भजल का स्तर १६०० फिट के नीचे चला, जब पेयजल के लिये संघर्ष होने लगा, पेयजल टैंकर व्यवसाय बन गया, तब कल्याणी याद आयीं। डॉ विश्वनाथ ने जहाँ पर भी संभव था, श्रमदान के माध्यम से कल्याणी जीवित कीं, आसपास के अवैध निर्माणों को सप्रयास हटाया। ऐसा लगा कि कल्याणी की आत्मा कल्याण हेतु अब तक जीवित थीं, उनमें जल न जाने कहाँ से आना प्रारम्भ हो गया, सब एक ही वर्षा में लबालब भर गयीं।

शताब्दियों की उपेक्षा धीरे धीरे भरती है। कल्याणी जलप्लावित रहेंगी तो भूजल का स्तर धीरे धीरे बढ़ता रहेगा, क्षेत्र का एकत्र जल क्षेत्र में ही संचित रहेगा।

बंगलोर में ही २०० से भी अधिक झील थीं, वर्षा वर्ष में ८ माह, जल इतना गिरता है कि वह न केवल बंगलोर को वरन आसपास के कई नगरों को जल दे सके। हम इसे कुप्रबन्धन की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि फिर भी बंगलोर में जल १०० किमी दूर बहती कावेरी नदी से पंप करके लाया जाता है, वह भी तीन स्तरों पर पंप करके। जनसंख्या ने यहाँ बसने की लालसा में झीलों को बाहर निकाल दिया, अपना भाग्य बाहर निकाल दिया, उस भविष्य के लिये जो स्वायत्तता से हमें पराश्रय की ओर लिये जा रहा है।

यह एक अच्छा संकेत है कि हम पाश्चात्य के भ्रमजाल से निकल आपनी सामर्थ्य ढूढ़ पा रहे हैं। देश के अन्य भागों से भी प्राकृतिक जलतन्त्र को जीवित करने के प्रयासों की सूचनायें मिल रही है। आशा है कल्याणी हमारी गौरवगाथा और हमारे कल्याण को पुनर्जीवित कर पायेंगी।

4.12.13

न दैन्यं, न पलायनम्

जब तक मन में कुछ शेष है, कहने को,
जब तक व्यापित क्लेश है, सहने को,
जब तक छिद्रमयी विश्व, रह रह कर रिसता है,
जब तक सत्य अकेला, विष पाटों में पिसता है,

तब तक छोड़ एक भी पग नहीं जाना है,
समक्ष, प्रस्तुत, होने का धर्म निभाना है,
उद्धतमना, अवशेष यदि किञ्चित बलम्,
गुञ्जित इदम्, न दैन्यं, न पलायनम्।